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रविवार, 11 अप्रैल 2021

आभासी दुनिया की धुंध


 कांटों

के जंगल को 

गुलाब

एक तोहफा है।

कांटों

के मन 

में उठते

कोहराम के बीच

गुलाब

होना

और 

गुलाब बने रहना 

दुर्लभ चुनौती है।

गुलाब

का जीवन

कांटों भरा है

कांटों 

का जीवन 

कोई 

गुलाब नहीं है।

खूबसूरती 

की परिभाषा

है 

कि 

उसका

वाक्य 

अधूरा रह जाता है।

खूबसूरती

के बाहर

गुरूर का

दैहिक 

आवरण है

जो 

अंदर से उतना ही

स्याह है

एकांकी है

विद्रोही है

और 

अकेला है।

खूबसूरती

कभी नहीं जीतती

उसकी

और 

उससे

केवल हार के 

चीत्कार 

सुनाई देते हैं।

खूबसूरती

केवल 

आभासी 

दुनिया की धुंध 

की मानिंद 

जीती है 

अक्सर हारती हुई

और खुद

से

बेज़ार होती सी...।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

कच्ची और अधूरी छत


 कुछ

घर

केवल 

अधूरे रह जाने के लिए

बनते हैं।

जीवन 

की सिसकी

और

अट्टहास

उन दीवारों को

नहीं 

मिलते

उन्हें 

केवल 

एकांत मिलता है।

मौन 

के 

चीखते 

शब्द उन्हें

जीवित रखते हैं।

मकान से घर 

के 

सफर के 

अधबीच

बो दिए जाते हैं

दालान।

चीखते मकानों

की तरह

चीखते 

घर 

अच्छे नहीं लगते।

कुछ 

घर 

अधूरे 

भी पूरे

से लगते हैं।

कच्ची 

दीवारें

मन के फर्श के साथ

अंगुली थामें

पूरा घर घूम आती हैं।

कच्ची और अधूरी छत

सवाल 

नहीं पूछती

हर 

बार 

बातों ही बातों में

परिवार के बीच 

आ बैठती है

ठहाकों की महफिल में।

आंगन

भीगने की शिकायत 

नहीं करता

कैसा 

पागल है

हंसता ही रहता है।

घर

अधूरे 

और 

पूरे

ठहाकों 

से बनते हैं। 

वे 

बनकर भी अधूरे रह 

जाते हैं

बिना 

बतियाये।

वे अधूरे होकर भी

पूरे हो जाते हैं

मुस्कुराते 

हुए।

घर 

खुद का नहीं

आपका 

प्रतिबिंब होता है

जिसमें 

आपकी शक्ल, हालात और

व्यवहार 

हर पल 

नज़र आते हैं...।

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

मन की नदी के तट पर


एक नदी

बहती है

अब 

भी निर्मल

और 

पूरे प्रवाह से

मन 

की स्मृतियों में।

कोई 

तटबंध

नहीं है

कोई

रिश्ते 

की बाधा भी नहीं।

वो बहती है

मन 

की 

एक इबारत वाले

पथ पर।

वो बहती है

आंखों में

बिना सवाल लिए।

अंदर और बाहर

एक 

जिद्दी

सच है जो 

नदी को

पानी को

भावनाओं को

तटबंध 

में बांधकर

उसका दूसरा सिरा

कारोबार

की 

घूरती और ललचाई 

शिला से बांध देता है।

बाहर 

नदी नहीं है

केवल 

स्वार्थ और उसकी दिशा

के पथ पर

एक 

विवशता बहती है।

बाहर की नदी

कभी

मन की नदी

थी

अब केवल उसका

अक्स है।

बाहर की 

नदी 

अब नहीं झांकती

अपने अंदर

क्योंकि

सूखा देख 

वो सहम उठती है।

मैं थका हारा

बाहर की नदी

किनारे

पड़ी कुछ

अचेतन 

अवस्था वाली मछलियों 

को लिए

लौट आया

मन की नदी

के तट पर

और 

उन्हें

दे दी

वो निर्मल नदी।

एक दिन

मन की नदी

से 

मिलवाऊंगा

बाहर की नदी को। 

कहते हैं

स्मृतियां

हमें 

दोबारा गढ़ जाया करती हैं।

जब हम पनीली आंखों में मुस्कुराए


जिंदगी

का वह हरेक दिन

जब हम साथ बैठ

खिलखिलाए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब हम 

उलझनों पर 

दर्ज करते थे जीत

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब

तुम और 

मैं 

हम हो गए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब हम पनीली आंखों में

मुस्कुराए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन 

जब खुशियों में भीग गए

हमारे मन

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब जब 

कठिन दिनों में

तुमने रखा कांधे पर हाथ

गुलाब थे...।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

हम हाईटेक होकर जंजाली हो गए


 पहले हम 

नदियों की तरह 

प्रवाहित थे

अब तालाबों की तरह

सूख रहे हैं।

नदियों से पहले 

हम प्रदूषित हुए

अब 

हम और हमारा 

प्रदूषित भविष्य

नदियों में समा रहा है।

हमने

नदियों को 

अपनी तरह बना दिया है

हमने अपने

सुखों के लिए

नदियों को सुखा दिया।

नदियों ने हमें जीवन दिया

हमने

उन्हें

कालिख पुती मौत।

हम

और प्रदूषित हुए

अब बावड़ी, तालाब

कुएँ

और 

बच्चों को 

सुखाने लगे।

हम 

और प्रदूषित हुए

अब जंगल

खत्म करने पर आमादा हो गए

अबकी प्रदूषित से हम 

अंदर से दहकने लगे।

हमने

वन्य जीवों को

अपनी शहर की मंनोरंजन शाला में

कैद कर लिया।

हम हाईटेक होकर 

तारों से जंजाली हो गए।

हम

जंगल को क्रूर 

और

अपने को

सभ्य 

कहने लगे हैं।

हम हाईटेक जंगल 

के

मशीनी

चिलगोजे हैं।

हम

पक्षियों के हिस्से की हरियाली

भी 

छीन लाए

और 

गहरे चिंतन का

हिस्सा हो गए।

अब

सुधार पर 

सालों मनन होगा

क्योंकि

हम

समझ ही नहीं पाए 

कि

प्रदूषित 

प्रकृति नहीं

हमारी मानव जाति है...।

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

पहाड़ तुम कभी शहर मत आना


 सुना है

सख्त पहाड़ों

के

गांव

में

तपिश

भी नहीं है

और 

गुस्सा भी नहीं।

वे

अब भी

अपनी पीठ पर

बर्फ के 

बच्चों को

बैठाकर

खिलखिलाते हैं।

सुना है

वहां

सुनहरी सुबह

और 

गहरी नीली

सांझ होती है।

पहाड़

अपने पैर

जमीन में

कहीं बहुत गहरे

लटकाए

बैठे हैं

चिरकाल से।

हवा

भी उसके भारी भरकम

शरीर पर

सुस्ताने आती है।

ओह

पहाड़ तुम

कभी 

शहर मत आना

यहाँ

आरी और कुल्हाड़ी

का 

राज है

जंगल

भी आए थे

शहर घूमने

यहीं बस गए

और अब

शहर

उन पर 

पैर फैलाए

ठहाके लगाता है।

आती है

कभी कभी

जंगल के

सुबकने की आवाज़...।

मत 

आना तुम शहर...।

रविवार, 4 अप्रैल 2021

पत्तों की उम्र में सयानेपन की धमक


 


फूलों की देह

पर 

जंगली 

सुगंध के निशान

उभरे हुए हैं।

प्रेम का जंगल 

हो जाना

सभ्यता 

को 

ललकारना नहीं है।

जंगल 

के बीच कहीं कोई

प्रेम

अंकुरित हो रहा है

पथरीली

जमीन

पर 

पांव

के 

निशान हैं।

ये 

निश्चित ही प्रेम है।

फूलों

के चेहरों पर

उम्र 

की शोखी

है 

और

पत्तों की उम्र

में सयानेपन 

धमक।

प्रेम

फूलों के 

कानों में

होले से 

सुना जाती है

कोई

जंगली

गीत

और प्रेम

वृक्ष हो जाता है

जो 

अनुभूति 

का स्पर्श 

सदियों पाता है।

प्रेम 

ऐसा ही होता है

जंगली खुशबू लिए...।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...