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रविवार, 19 दिसंबर 2021

उम्र और सांझ


सुर्ख सच 
जब उम्रदराज़ होकर
कोई किताब हो जाए
तब मानिये
उम्र का पंछी 
सांझ की सुर्ख लालिमा 
के परम को 
आत्मसात कर चुका है।
उम्र और सांझ
परस्पर
साथ चलते हैं
उम्र
का कोई एक सिरा
सांझ से बंधा होता है
और 
सांझ
का एक सिरा
उम्रदराज़ विचारों से बंधा होता है।
एक 
किताब
उम्र
और 
सांझ
आध्यात्म का चरम हैं।
सांझ लिखी जा सकती है
ठीक वैसे ही
उम्र विचारों में ढलकर
किताब हो जाती है।
आईये
सांझ के किनारे
एक उम्र की
किताब
सौंप आएं
सच और सच 
को गहरे जीती हुई 
नदी की लहरों को।
आखिर 
उम्र और सांझ 
दोनों ही प्रवाहित हो जाती हैं
एक किताब के श्वेत पन्नों पर...।

 

शनिवार, 4 दिसंबर 2021

पीला समय


उम्र के कुछ पन्ने 

बहुत सख्त होकर 

सूखे से 

दोपहर के दिनों 

की गवाही हैं..।

सूखे पन्नों पर 

अनुभव का सच है

जो उभरा है अब भी

उन्हीं सूखे पन्नों

के खुरदुरे शरीर पर।

पन्ने का सूख जाना

समय का पीलापन है

शब्दों का नहीं।

समय 

सिखा रहा है

अपनी खुरदुरी पीठ 

दिखाते हुए

खरोंच के निशान

जो 

दिखाई नहीं देते

दर्द देते हैं।

उम्र का हरापन

भी जिंदा है

शब्दों 

की मात्राओं के शीर्ष पर 

अभी पीला नहीं हुआ है।

हरे से पीले हो जाने में 

कुछ नहीं बदलता

बस 

एक उम्र सख्त होना सिखा जाती है।

पीले पन्नों की किताब में 

अभी कुछ श्वेत हैं

अनुभव का 

खिलखिलाता हरापन 

लिखना चाहता हूँ

उन पर।

देख रहा हूँ 

पीले पन्नों में 

अनुभव के कुछ शब्द

घूर रहे हैं

वे 

अब भी सहज नहीं हैं।



(फोटोग्राफ /गजेन्द्र पाल सिंह जी...। आभार)

 

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

जिस्म से नमक खरोंच कर


 

ये 

दुनिया 

एक खारी नदी है

और हम

नमक पर 

नाव खे रहे हैं।

नदी का नमक हो जाना

आदमी के खारेपन

का शीर्ष है। 

नदी और आदमी 

जल्द

अलग हो जाएंगे

नदी 

नमक का जंगल होकर

रसातल में समा जाएगी

और 

आदमी नाव में

नदी के जिस्म से 

नमक खरोंच कर

ठहाके लगाएगा..।

नमक 

नदी

और 

आदमी

आखिर में 

एक हो जाएंगे।

तब 

नाव होगी

पतवार पर

कोई

नया पंछी बैठेगा

जो 

दूसरी दुनिया से आकर

खोजेगा 

नदी

आदमी

और जीवन।

क्या हमें

नदी को

नमक होने से बचाना चाहिए

और 

खरोंचे जाने चाहिए

अपने पर जमे नमक के जिद्दी टीले...।

रविवार, 28 नवंबर 2021

नदी का मौन, आदमियत की मृत्यु है


आओ
नदी के किनारों तक
टहल आते हैं
अरसा हो गया
सुने हुए
नदी और किनारों के बीच
बातचीत को।
आओ पूछ आते हैं
किनारों से नदी की तासीर
और
नदी से
किनारों का रिश्ता।
आओ देख आते हैं
नदी में
बहते सख्त
पत्थरों से उभरे जख्मों को
जिन्हें नदी
कड़वाहट के नमक से बचाती रहती है
और
अक्सर छिपाती रहती है।
आओ छूकर देख आएं
नदी के पानी को
उसकी काया को
उसकी तासीर को
और
जांच लें
हम
पूरी तरह बे-अहसास तो नहीं रहे।
आओ बुन आते हैं
नदी और किनारों के बीच
गहरी होती दरारों को
जहां
टूटन से टूट सकता है
रिश्ता
और
भरोसा।
आओ नदी तक हो आएं
परख लें
नदी, कल कल कर पछियों से बात करती है
या
केवल
मौन बहती है
पत्तों और कटे वृक्षों के सूखे जिस्म लेकर
क्योंकि
बात करने और मौन हो जाने में
उसकी कसक होती है
जो चीरती है उसे गहरे तक
और मौन होती नदी
कभी भी सभ्यता को गढ़ने की क्षमता नहीं रखती
क्यांकि नदी का मौन
आदमियत की मृत्यु है..


 

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

समय उस बचपन का

 



कदम
कुछ
कदम
लौटना चाहते हैं
अपने पदचिन्हों पर।
उस मंजिल के इर्द गिर्द
जहां किसी ठौर
बचपन
छोड़ आए हैं।
रेत छोड़ आए हैं
जिसमें कोई
घरोंदा
था
जिसमें
रेत की दीवारों के बीच
किसी कील पर
उलझा सा रह गया
समय
उस बचपन का।
छोड़ आए हैं
जिस डगर
बचपन के मित्र
मस्ती
अल्हड़पन
और
समझदारी के पहले की
अधपकी जमीन।
छोड़ आए हैं
किताबें और बस्ता
फटे जुर्राब
जिन्हें
अक्सर
तुरपाई से
सी दिया करते थे।
छोड़ आए हैं
बहुत सा छूट गया है
स्कूल की दीवारें
गुरूजी की घूरती आंखें
और
एक उम्र...।
अब बचपन
चांद पर किसी कोने में बसे
घर सा है
जिसे
देख सकते हैं
अतीत में
छू नहीं सकते वर्तमान में।
पदचिन्हों पर
अब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...।


गुरुवार, 25 नवंबर 2021

पग पग जिंदगी...



खुशियां भेद नहीं करतीं
क्योंकि
वे चेहरे खूब मुस्कुराते हैं
जिनके सिर
छत नहीं होती। 
ये संसार हमने बुना है
इसमें कुछ
स्वार्थ के तार 
जो 
गाहे बगाहे
हम ही पिरो देते हैं
फिर 
एक उम्र के बाद
हमीं 
उनकी चुभन पर क्रोधित होते हैं।
जीवन को बुनते हुए
हम एक जाल बुन जाते हैं
जिसमें हमारी 
खुशियां उलझकर 
अक्सर दम तोड़ देती हैं।
एक दूसरी दुनिया
जाल में उलझी सी
जीवन बुनती है
फुटपाथ पर
किसी पिल्लर 
पर 
खिलखिलाते।
जिंदगी
दोनों चेहरों में जीती है
एक जगह
कसक में मुस्कुराती है
और दूसरी ओर
अर्थ के मकड़जाल में
उलझी
कसमसाती है।
कोई कविता
जिंदगी जैसी
ऐसे ही लिखी जाती है
जहां शब्दों की खरोंच 
मन को लहुलुहान करती हैं
और 
कविता शब्दों का कोई फलसफा 
हो जाती है...।
मैं 
उन मुस्कुराते बच्चों से
नहीं पूछा
भूख 
बड़ी है
या खुशी...।
मैं जानता हूँ
सवाल पर 
वह फिर मुस्कुरा उठता
और 
मैं शब्दों के बीच
हो जाता
लहुलुहान
क्योंकि 
जिंदगी केवल किताब नहीं है
अलबत्ता
शब्द है
जो कई
दफा
गहरे उभर आते हैं
मन पर...।


 

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

भयभीत चेहरों का समाज

ये चेहरे
रोक देते हैं 
हमारी दौड़। 
भागते से हम 
ठिठक जाते हैं
इन्हें सामने पाकर। 
सच 
क्या ये आईना हैं
हमारे खुरदुरे समाज 
जिसमें हमेशा ही
बिगड़ी तस्वीर ही 
नज़र आती है...।
भागती जिंदगी की पीठ पर
कुछ
उदास और थके चेहरों का समाज
चीख रहा है
रोटी के लिए।
भूख यहां 
भूगोल और विज्ञान नहीं
गणित है।
चेहरों के बीच 
दरकती मानवीयता कहीं ठौर पाने
भटक रही है।
इनकी चीख
हमारे जम़ीर पर 
एक पल की दस्तक है
ग्रीन 
सिग्नल होते ही
विचारों और ऐसे समाज को रौंद
हम बढ़ जाते हैं
अपनी 
दुनिया में 
जहां
पीठ पर होते हैं
जोड़ घटाने
और 
पैरों तले कुचलने की साजिश।
समृद्ध समाज मदहोश है
और 
भाग रहा है 
अपने आप से
बहुत दूर
क्योंकि
ये सच्चे चेहरे
उन्हें डराते हैं...।


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...