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मंगलवार, 18 जनवरी 2022

रंगमंच पर बहुरूपिये सा


 
किसी दिन 

उत्सव सा

आदमी

हर पल

समय की पीठ पर 

उदय और अस्त होता है।

रंगमंच पर

बहुरूपिये सा

मुखौटे में 

रोता, हंसता, चीखता

आदमी

दरक जाता है

आदमियत की दीवार सा

टूट जाता है 

कई जगहों से।

रंगों को चेहरे पर मलता

स्याह आदमी

पूरा जीवन

कुछ नहीं खोजता

केवल

अपने आप को

भीड़ में टिमटिमाता 

पाने की जिद में

भागता रहता है

अपने आप से

कोसों दूर

किसी अपने तरह के 

आदमी की खोज में

समय की पीठ पर

गुलाबी पैरों की 

छाप छोड़ता 

बदहवास आदमी।

दरकता आदमी

धूल की दीवार है

जिसमें 

केवल सच है

टूटन है

और 

सख्त जमीन।

रविवार, 2 जनवरी 2022

ये तो रंगरसिया


हजार बार नन्हें

परों से 

उड़ती है तितली

तब जाकर 

पाती है

फूलों का प्रेम 

और 

जीवन का रस।

धूप सहती है

नुकीले कांटे भी

रोकते हैं राह

बचती 

खिलखिलाती

फूलों के मन को

छू ही लेती है

क्योंकि भरोसा अपनी पीठ पर

रोज रखती है

उड़ने से पहले तितली।

आसमान 

छूना 

और आसमान पर बने रहना

ऐसी कोई ख्वाहिश

नहीं रखती

ये तो

रंगरसिया है

रंगों में जीती

रंगों से जीवन को सीती

यूं ही भरती है कई

उड़ान।

कभी दूसरी तितली का नहीं करती 

प्रतिकार

क्योंकि

जानती है

ये बागान

उनकी उड़ान

और 

रंगों से उत्साह पाता है

जीवन पाता है।

सीख लें..

कि 

शिकायत नहीं करती 

परों के टूटने पर

खामोशी से तिनकों पर 

सिर रख सी लेती है

परों के घाव..।।

सीख लें

मनबसिया से

खुशबू सहेजना

और उसे बांटना सभी के बीच

खिलखिलाते हुए....।


गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

स्याह तस्वीर


भूख का रंग नहीं होता
आकार भी नहीं
चेहरा होता है
जली हुई रोटी सा
झुलसा और गुस्सैल चेहरा।
फटे जीवन में 
जली रोटी की महक
बच्चे की ललचाई और गहरे धंसी आंखों में
जीवन की उम्मीद है।
भूख का एक सिरा
घर की चारपाई से बंधा होता है
और 
दूसरा सिरा 
बेकारी की फटी छत की तिरपाल से। 
भूख की पीठ पर 
बेबसी के निशान
उम्र के साथ गहरे होते जाते हैं।
कंदील में रोशनी में 
झुलसी रोटी और बच्चे 
एक जैसे लगते हैं। 
रोटी की स्याह तस्वीर
चेहरे पर हर पल नजर आती है।
भूख का कद 
पेट से होकर
उम्र के अंतिम सिरे तक जाता है।
भूख एक उम्मीद पालती है
और
अगले ही पल
बांझ हो जाती है।
भूख पर शोर 
एक आदत है, चीख है, सच है।
भूख पर नीति
केवल 
चेहरे बनाती है। 
चेहरे पर भूख केवल एक सच है
जिसमें तलाशी जाती है भूख
और मिटाई जाती है
भूख।
भूख पर दस्तावेज
अक्सर कोरे नज़र आते हैं
क्योंकि भूख शब्दों में 
लिखी नहीं जा सकी अब तक।
भूख 
रोती हुई मां के चेहरे पर 
चिंता की गहरी झाई है
जिसे 
पहले समय
फिर समाज
और आखिर में 
बच्चे भी कर देते हैं
अनदेखा।
भूख केवल 
पल पल मौत की ओर बढ़ता 
हलफनामा है।।





 

रविवार, 19 दिसंबर 2021

उम्र और सांझ


सुर्ख सच 
जब उम्रदराज़ होकर
कोई किताब हो जाए
तब मानिये
उम्र का पंछी 
सांझ की सुर्ख लालिमा 
के परम को 
आत्मसात कर चुका है।
उम्र और सांझ
परस्पर
साथ चलते हैं
उम्र
का कोई एक सिरा
सांझ से बंधा होता है
और 
सांझ
का एक सिरा
उम्रदराज़ विचारों से बंधा होता है।
एक 
किताब
उम्र
और 
सांझ
आध्यात्म का चरम हैं।
सांझ लिखी जा सकती है
ठीक वैसे ही
उम्र विचारों में ढलकर
किताब हो जाती है।
आईये
सांझ के किनारे
एक उम्र की
किताब
सौंप आएं
सच और सच 
को गहरे जीती हुई 
नदी की लहरों को।
आखिर 
उम्र और सांझ 
दोनों ही प्रवाहित हो जाती हैं
एक किताब के श्वेत पन्नों पर...।

 

शनिवार, 4 दिसंबर 2021

पीला समय


उम्र के कुछ पन्ने 

बहुत सख्त होकर 

सूखे से 

दोपहर के दिनों 

की गवाही हैं..।

सूखे पन्नों पर 

अनुभव का सच है

जो उभरा है अब भी

उन्हीं सूखे पन्नों

के खुरदुरे शरीर पर।

पन्ने का सूख जाना

समय का पीलापन है

शब्दों का नहीं।

समय 

सिखा रहा है

अपनी खुरदुरी पीठ 

दिखाते हुए

खरोंच के निशान

जो 

दिखाई नहीं देते

दर्द देते हैं।

उम्र का हरापन

भी जिंदा है

शब्दों 

की मात्राओं के शीर्ष पर 

अभी पीला नहीं हुआ है।

हरे से पीले हो जाने में 

कुछ नहीं बदलता

बस 

एक उम्र सख्त होना सिखा जाती है।

पीले पन्नों की किताब में 

अभी कुछ श्वेत हैं

अनुभव का 

खिलखिलाता हरापन 

लिखना चाहता हूँ

उन पर।

देख रहा हूँ 

पीले पन्नों में 

अनुभव के कुछ शब्द

घूर रहे हैं

वे 

अब भी सहज नहीं हैं।



(फोटोग्राफ /गजेन्द्र पाल सिंह जी...। आभार)

 

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

जिस्म से नमक खरोंच कर


 

ये 

दुनिया 

एक खारी नदी है

और हम

नमक पर 

नाव खे रहे हैं।

नदी का नमक हो जाना

आदमी के खारेपन

का शीर्ष है। 

नदी और आदमी 

जल्द

अलग हो जाएंगे

नदी 

नमक का जंगल होकर

रसातल में समा जाएगी

और 

आदमी नाव में

नदी के जिस्म से 

नमक खरोंच कर

ठहाके लगाएगा..।

नमक 

नदी

और 

आदमी

आखिर में 

एक हो जाएंगे।

तब 

नाव होगी

पतवार पर

कोई

नया पंछी बैठेगा

जो 

दूसरी दुनिया से आकर

खोजेगा 

नदी

आदमी

और जीवन।

क्या हमें

नदी को

नमक होने से बचाना चाहिए

और 

खरोंचे जाने चाहिए

अपने पर जमे नमक के जिद्दी टीले...।

रविवार, 28 नवंबर 2021

नदी का मौन, आदमियत की मृत्यु है


आओ
नदी के किनारों तक
टहल आते हैं
अरसा हो गया
सुने हुए
नदी और किनारों के बीच
बातचीत को।
आओ पूछ आते हैं
किनारों से नदी की तासीर
और
नदी से
किनारों का रिश्ता।
आओ देख आते हैं
नदी में
बहते सख्त
पत्थरों से उभरे जख्मों को
जिन्हें नदी
कड़वाहट के नमक से बचाती रहती है
और
अक्सर छिपाती रहती है।
आओ छूकर देख आएं
नदी के पानी को
उसकी काया को
उसकी तासीर को
और
जांच लें
हम
पूरी तरह बे-अहसास तो नहीं रहे।
आओ बुन आते हैं
नदी और किनारों के बीच
गहरी होती दरारों को
जहां
टूटन से टूट सकता है
रिश्ता
और
भरोसा।
आओ नदी तक हो आएं
परख लें
नदी, कल कल कर पछियों से बात करती है
या
केवल
मौन बहती है
पत्तों और कटे वृक्षों के सूखे जिस्म लेकर
क्योंकि
बात करने और मौन हो जाने में
उसकी कसक होती है
जो चीरती है उसे गहरे तक
और मौन होती नदी
कभी भी सभ्यता को गढ़ने की क्षमता नहीं रखती
क्यांकि नदी का मौन
आदमियत की मृत्यु है..


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...