फ़ॉलोअर

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

हरापन शेष है


 कोरोना काल पर कविताएं

5.

अहसास की धरती

मरुस्थल

में

तब्दील कर दी गई है।

भावनाओं की दुर्वा 

सूखाकर

लालच का नमक

डालकर

संबंधों को

जंगल में तब्दील कर दिया गया।

अब अहसास की धरती

कंटीले

पौधों

पर

उग रहे

पीले फूलों को देख

सूखती जा रही है।

इस जंगल में

अब भी

कहीं

मन कंद्रा में

कोई दूब घास है

जिसमें

उम्मीद

का हरापन शेष है।

दूरियों की खाई अब

और 

गहरी है

अब 

सूखते अकेले शरीर

बेजान होकर सूखा कुआं हो गए हैं

जिसमें

बाज़ार अपनी महत्वाकांक्षाओं का

कूढ़ा उड़ेल रहा है।

सबसे ताकतवर प्राणी का शरीर

अब डस्टबिन हो गया है।

बाज़ार

और

उसके 

पिट्ठूओं को पहचानकर ही

जंगल

को अहसास में 

तब्दील किया जा सकता है।

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

सच को कांधे पर लटकाए


 कोरोना काल पर कविताएं...

4.

बहुत भूखा है बाज़ार

भय के कारोबार

का 

ग्राफ

चेहरों

पर 

नज़र आता है।

झूठ

फरेब

धोखा

मजबूरी नहीं होते

कोई

धधक रहा है

कहीं

सबकुछ टूटकर 

चकनाचूर है

केवल

यादें हैं

वे भी

आंसुओं में

धुंधली

ही हो गईं हैं।

बाजार

की भूख है

उसे अबकी

और 

ठहाके लगाना है

डर को

और बढ़ाना है।

मौत पर चीखते लोग

उसे 

अपने ग्राफ में

उछाल 

का

रास्ता नज़र आते हैं।

अखबार

अब सच देख पा रहे हैं

उन्हें

असल आंकड़ा

नज़र आ रहा है।

हर आदमी कल 

और

अगली सुबह से

भयाक्रांत है

केवल 

परजीवी

घूम रहे हैं

मदमस्त

भय और चीखते सच को

कांधे पर लटकाए

चीखों

पर 

अपनी 

हार पर

खिसियाहट बिखेरते।

सच

अब 

जेब में मरोड़कर

नहीं रखा जा सकेगा।

अब 

धैर्य की

तुरपाई उधड़ चुकी है।

अबकी समय चीखेगा

चीखते

शरीरों के बीच

सच

काफी रो लिया।

..........

फोटोग्राफ@विशाल गिन्नारे

रविवार, 18 अप्रैल 2021

मानवीयता रुआंसी है

 


कोरोना काल पर कविताएं...

3.

ये जीवन समर है

सब भाग रहे हैं

अंतहीन

दौड़

में

पैरों में

सपने

कुचले जा रहे हैं।

चेहरे और मानवीयता 

अब

रुआंसी है।

चेहरे पर चेहरे

वाला समाज

एक और मुखौटे को

ओढ़ चुका है। 

मन

की मन से 

दूरियों वाला समाज

असहज

और असहाय है।

कुछ चेहरे

मन 

कुछ

चेहरे

खुशी

कुछ चेहरे

अब तलाश रहे हैं

धन।

मन का बाजार

सूखा है

एक रेगिस्तान

है

धन की भूख

का भेड़िया

निगल रहा है

समाज को।

दो पैरों वाला इंसान

मदमस्त

घूम रहा है

अपने

बसाए जंगल में।

कुछ दूर

जंगल की सीमा पर

धन की गठरी

बांधे कुछ

बेबस मुसाफिर

तलाश रहे हैं

जीवन

अपने

सपने

और

समय जो कुचल दिया गया

लोलुपतावश।

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

शरीर चल रहे हैं, आंखें सुर्ख हैं


 कोरोना काल में कविताएं...

2.


जीवन

बुन रहा है

आंसुओं का नया आसमान।

चेहरे 

पर 

चीखती लापरवाहियां

भुगोल होकर 

इतिहास 

हो रही हैं।

घूरती आंखों के बीच

सच

निःशब्द सा 

खिसिया रहा है। 

सूनी

डामर की तपती सड़कें

बेजान 

मानवीयता के 

अगले सिरे पर सुलगा रही है

क्रोध।

चीख

तेजी से मौन

ओढ़ रही है। 

आंखें घूर रही हैं

बेजुबान

सी

सवाल करना चाहती हैं

कौन

है 

जिसने बो दी है

इस दुनिया में

ये जहर वाली जिद।

कौन है 

जिसकी सनक ने

मानवीयता को कर दिया है

बेजुबान।

कौन है

जिसे

फर्क नहीं पड़ता 

आदमी के बेजान 

शरीर में तब्दील हो जाने पर।

शरीर 

चल रहे हैं

आंखें सुर्ख हैं

शिकायत 

और शोर 

अब मौन में तब्दील है

सब 

तलाश रहे हैं

एक जीवन

एक सच

और

एक खामोशी।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

भीड़ बदहवास सी भाग रही है


आज से कोरोना काल पर कविताएं...

1.


सुबह 

कोई हिचकी

गहरे समा गई

किसी 

परिवार

की 

आंखों से

छिन गया

सूरज।

आंखों में

सपनों की फटी हुई

मोटी सी पपड़ी है

जिसमें 

गहरे 

आंसुओं का नमक है।

सभ्यता

और 

मानवीयता

का नमक हो जाना

आदमी

की खिसियाहट भरी

चालकी का

टूटकर

कई हिस्सों में 

बिखर 

जाना है।

सुबह

सूरज के साथ जागा 

कोई परिवार

अपने घर

असमय घुस आई

स्याह रात में

दीवारों से सटा

सुबक रहा है

देख रहा है

अंदर और बाहर

गहराती रात।

दूर 

कहीं कोई

वृद्धा

सूखी पसलियों को

पीट रही है

झुर्रियों से बहते

आंसू

में मिट्टी है

बहुत सारा नमक भी।

क्रूर बाजार

घूर रहा है

वृद्धा के विलाप पर।

भीड़

भाग रही है

बदहवास सी

अपनों के साथ

अपनों से दूर।

अखबार

का फटा

हिस्सा

काला है

खबर है

जहरीली हो गई है हवा...।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

अनुभूति


 













खूबसूरती
के 
पीछे 
कोई
तर्क नहीं होता
बस एक 
अनुभूति होती है
जो 
अभिव्यक्त 
नहीं की जा सकती।
अनुभूति
श्वेत-श्याम 
और 
रंगमयी
भी नहीं होती
केवल मन में
कहीं
शब्दों की अनकही
भाषा
सरीखी है।
अनुभूति
की महक होती है
जो
बिना कहे
अधिक गहरी
सुनी जा सकती है।
अनुभूति 
में फूलों का रंग
वैसा ही होता है
जैसे 
कोई
सबसे अधिक पढ़ी गई
किताब
का हर 
वक्त सिराहने होना।
अनुभूति 
जंगल नहीं बनाती
वो 
मन में मथे 
शब्दों 
का 
आभासी संसार अवश्य 
बसाती है...।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

मौसम में उसके आसपास


 तुमने

फूल 

देखा मैंने देखी

उसकी गहराई।

तुमने 

रंग देखे

मैंने 

देखी

रंगों की जुगलबंदी।

तुमने 

फूल का 

खिलना देखा

मैंने

उसके अंकुरण के सफर को।

तुमने 

उसका सौंदर्य देखा

मैंने 

देखी सादगी।

तुमने

उसके सौंदर्य के शिखर

तक 

पहुंचाई अपनी 

ख्वाहिश

मैंने 

उसे 

केवल खिलने दिया।

तुम 

खड़े रहे उसके

उस खिले हुए

मौसम में उसके आसपास

जैसा 

भंवरे को 

होती है 

फूल के रस की आस।

मैं 

उसे 

बस रोज देखता रहा

उसकी 

सादगी के साथ

उसकी उम्र के 

अच्छे दिनों में।

तुम 

तब वहां से बढ़ गए

अगले 

फूल की ओर

जब 

इसकी पत्ती पर

उम्र की 

पहली झुर्री

आई थी नज़र।

तुम अब नहीं आते वहां

जहाँ कभी

तुम्हारी नज़रें

ठहर जाने का वादा 

करतीं थीं पूरी उम्र।

तुम्हें 

बताऊँ

अब 

वो फूल 

सूख चुका है

झुर्रियों वाले

उम्रदराज़ मौसम को 

जी रहा है

मैं

आज 

भी उसके 

रेगिस्तान में 

उसके साथ हूँ।

अब बस

वो 

फूल कभी कभार

सूखने 

के 

दर्द से 

कराहता है

कभी कभी

हवा के साथ

उसकी 

उम्र वाली कराह

सुनाई देती है...।


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...