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गुरुवार, 8 जुलाई 2021

यह सब पुराना सा...




पुराना शहर
पुरानी गलियां
पुराने दोस्त
 पुराने दिन, 
पुरानी यादें, 
पुराना भवन, 
पुराना पेड़,
पुराने लोग,
पुरानी जीवन डायरी, 
पुरानी चिट्ठी,
पुराना मौसम, 
पुरानी बातें,
पुराना गीत, 
पुरानी धुन
-बहुत महकते है।
ये पहचान होते हैं, 
थकी हुई उम्र की लंबी उड़ान होते हैं।


मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मां


 

मां

की आंखें उम्र के पहले

धंस जाती हैं 

चिंता के भंवर में।

वह

तराशती है

घर

बच्चे

सपने

पति

आंगन

उम्मीद

संस्कार।

बदले में

हंसते हुए न्यौछावर कर देती है

अपनी उम्र

अपनी मंजिल

अपनी ख्वाहिशें।

हर बार 

केवल मुस्कुराती है

छिपाए हुए पैसे भी

कहां छिपा पाती है। 

घर सजाती है

खुद संवरने के दौर में भी।

बच्चों के चेहरों को

कई बार

निहारती है

दर्द पढ़ती है

उसे खुद जीती है

खुद सीती है।

परिवार को साथ पाकर

खिलखिला उठती है अक्सर

अकेले में

क्योंकि 

तब वह जीत को महसूस करती है। 

डर जाती है

घर की एक भी दरार को देखकर

अंदर तक कांप जाता है उसका मन

घर को उदास पाकर।

उम्र के पहले

उसे पसंद है

ढल जाना

उसे स्वीकार्य है

सांझ का सच

लेकिन

उसे स्वीकार्य नहीं है घर की चीखें

घर का एकांकीपन

बच्चों के चेहरे पर उदासी

पति के चेहरे पर थकन

घर के आंगन में सूखा...।

ओह, सोचता हूं

अपने और अपनों में

कितनी विभाजित हो जाती है

अक्सर मां

जो

कभी शिकायत नहीं करती 

अपनी थकन की

जिसकी आंखें

स्याह घेरे के बीच से भी

मुस्कुराती हैं

क्योंकि मां 

चेहरे को पढ़़ना

बिना कुछ कहे समझना

और

दर्द को जीना जानती है

तभी तो

वह रच पाती है

एक घर

एक परिवार

और

बहुत सारे संस्कार।

सोचता हूं

कितनी सहजता से कर लिया करती है

मां

उधडे़ रिश्तों की तुरपाई।

मुस्कुराती है

जब बहुत थक जाती है

उम्मीद करती है

उससे कोई पूछ ले

दर्द कितना है

अगले ही पल

उठ जाती है

ये सोचकर 

बच्चे उसे हारता देखकर

कहीं हार न जाएं 

जीवन

और

दोबारा

पीसने लगती है

उम्र की चक्की में

घर की खुशियों का अनाज।





शनिवार, 3 जुलाई 2021

उस रेत पर बिटिया और मैं











यूं रेत पर 

बैठा था 

अकेला

कुछ विचार 

थे, 

कुछ कंकर 

उस रेत पर। 

सजाता चला गया

रेत पर कंकर 

देखा तो बेटी तैयार हो गई

उसकी छवि 

पूरी होते ही वो मुझसे बतियाने लगी

मुस्कुराई, 

कभी नजरें इधर-उधर घुमाई...। 

ये क्या 

तभी बारिश भी आ गई...

वो रेत पर बेटी भीगने लगी

मेरा साहस नहीं हुआ 

कि 

उसे वापस कंकर बना दूं। 

वो भीगती रही 

मैं देखता रहा...

भीगता रहा...। 

न मै उठकर गया और न ही वो। 

हम दोबारा बतियाने लगे

बारिश में बहुत सारा मन

भीग चुका था

बेटी 

भीगती हुई 

ठिठुरती है बिना आसरे।

मैंने उसके ठीक ऊपर

बना दिया

दोनों हथेलियों से  एक बड़ा सा छाता।

अब बेटी खिलखिला रही थी

मुझे देखते हुए।


 

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

मौन हरियाली












किसी 

निर्बल और सूखे वृक्ष की टहनी 

से बेशक

हरेपन की उम्मीद 

सूख जाए

लेकिन 

कोई थका हुआ पंछी

उस पर

सुस्ताने ठहरता तो है।

सूखे वृक्ष

बेशक

हमारे वैचारिक दायरे में भी

सूख जाया करते हैं

लेकिन

उस पर कुछ

जीव

रेंगते तो हैं।

हम बेशक मान लें

कि

सूखा वृक्ष

अब 

धरा पर बोझ है

लेकिन

उसकी जड़ों में

संभव है

पल रहा हो 

कोई

कोई पौधा

उसके अनुभव की

मिट्टी और खाद पाकर।

हम बेशक मान लें

कि 

सूखा

वृक्ष

भयावह लगता है

लेकिन

उस पर बैठ

कभी तो

कोई पक्षी

आलिंगन करता होगा

नए जीवन की

दिशा 

बुनने के लिए।

बेशक सूखे

शरीर अंत का आग़ाज हैं

लेकिन

सूखे

वृक्ष

और उसकी शाखाएं

अक्सर

बुन रही होती हैं

हमारे लिए

भविष्य की मौन हरियाली

जीवन

उम्मीद 

और अपनत्व।

 

रविवार, 27 जून 2021

मुझे पसंद है


 









तुम्हें पसंद है

मुझमें

स्वयं को खोजना

और 

मुझे पसंद है

तुम्हारे चेहरे पर नजर आना।

तुम्हें पसंद है

मेरे शब्द, भाव, गहनता

मुझे पसंद है

तुम्हारा वह

होले से आकर मुझे छू लेने वाला अहसास।

तुम्हें पसंद है

बारिश और उन बूंदों में

मेरा साथ

मुझे पसंद है

घर का दालान, बूंदें और तुम्हारे हाथों का स्पर्श।

तुम्हें पसंद है

अपने घर के दालान की मिट्टी की महक

मुझे पसंद है

तुम्हारे उस मर्म की गंध को छूते भाव।

तुम्हें पसंद है

घर के आंगन का नीम

मुझे पसंद है

तुम्हारा उस नीम को छूकर

पहली बार

मेरे मन के करीब आना।

तुम्हें पसंद है

सर्द हवा में मेरे मफलर में गर्माहट के रंग

मुझे पसंद है

तुम्हारे चेहरे का गुलाबी अपनापन।

तुम्हें पसंद है

हरीतिमा 

और मुझे पसंद हो

तुम 

क्योंकि

तुम और में 

एक ऐसे घर को गूंथ रहे हैं

जहां

प्रकृति के अंकुरण 

बहुत गहरे होंगे...।

हां 

सच हमारा घर महकता है

तुम्हारी और हमारी

इन नेह की फुहारों से।



गुरुवार, 24 जून 2021

यहां प्रेम पर


 









मैं पूछ बैठा

बस्ती में

क्या प्रेम 

बसता है

शरीर में

मन में

आत्मा में

या फिर

केवल शरीरों का एक लबाजमा है

बस्ती की काया। 

तपाक से उत्तर आया

एक थके हुए अधेड़ का

प्रेम

तंग गलियों में

आकर

शरीर हो जाया करता है।

प्रेम

टूटे छप्परों में

देह पर

केंचूएं सा रेंगता है

और

हर रात

हारकर

सीलन वाली

दीवारों पर

चस्पा हो जाता है

देह की 

थकी हुई गंध बनकर।

प्रेम

बस्ती की

घूरती आंखों में

कई बार

तार-तार हो जाया करता है

जिस्मों से झांकती मजबूरियों में।

प्रेम 

को बस्ती में

कोई नाम नहीं दिया जाता।

प्रेम

यहां बेनाम होकर

उम्र दर उम्र

बूढ़ा होता रहता है

जिस्म की गर्मी 

के 

पिघलने के साथ।

यहां के प्रेम पर

कोई 

कविता नहीं होती

यहां

प्रेम पर 

कोई शब्द नहीं होते

यहां

केवल ख्वाहिशों का जंगल है

जो 

सुबह से रात तक

थकन का एक स्याह

बादल बनकर

बरस जाता है

आत्मा को

पैरों से खूंदता हुआ। 

सच हमारे यहां तो 

प्रेम

ऐसा ही होता है। 

प्रेम यहां

एक सख्त

चट्टान है

जो हर तरह की चोट

सहकर

धीरे -धीरे टूटता है

अंदर ही अंदर

एक शरीर के

पत्थर हो जाने तक।


बुधवार, 23 जून 2021

यहां केवल फरेब है

 



महानगर की 
बंद गलियों के
बहुत अंदर
कहीं 
पलती है
बेबसी
किसी फूटे हुए
पाइप से
रिसते हुए 
नाले के मैले पानी के बीच
चरमराई जिंदगी
रोटी को
ही 
भूगोल कहने लगी है।
चीखती है
पूरी ताकत से
हुकुमरां के सामने। 
आवाज़
कभी भेद नहीं पाती 
गरीबी की उन संकरी गलियों 
को।  
हुकमरां 
आते रहे, जाते रहे
गलियां संकरी होकर
अपने में ही धंसती गईं
किसी वृद्धा के
पेट 
की अंतड़ियों की भांति
जिसकी भूख
खत्म हो जाती है
बचती है
केवल
धूरती हुई अस्थियां। 
मैं
उन बस्तियों पर सच सुनने वालों 
और 
खीसे निपारने वालों को
आईना दिखाना चाहता हूं
कि 
यहां 
जिंदगी
एक मैली गटर से आरंभ होती है
और 
उसी मैली गटर के 
किनारे कहीं
दम तोड़ देती है।
चीखता हूं मैं भी
उस दिन
जब 
गटर पर जीने वालों
के बीच
उम्मीद लेकर
कोई
नागैरत पहुंचता है 
तब देखता हूं
उन चेहरों को 
जो उसे वाकायदा घूर रहे होते हैं
खामोश रहते हुए।
महानगर बसता है
इन बस्तियों की संकरी
गलियों में भी
जहां
भूख
के मायने बदल रहे हैं 
जहां भूख
अक्सर
बच्चों की पैदाईश का सबब हो जाया करती है। 
सोचता हूं
ऐसी संकरी गलियों की चीख
कभी
बहरा कर पाएगी
बेज़मीर सियासतदारों को। 
खैर,
यहां
केवल रात होती है
सुबह
और 
सुबह की उम्मीद
यहां 
केवल
फरेब है।
यहां 
उम्मीदें 
अगले ही पल
पिघल जाती हैं
केवल
जिस्म बचते हैं
जो घूरते हैं
घूरते हैं 
और केवल घूरते हैं...। 





समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...