कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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गुरुवार, 25 नवंबर 2021
पग पग जिंदगी...

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021
भयभीत चेहरों का समाज

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021
फटे लिबास में तुम्हारी हंसी
इस बाज़ार से
कुछ
बचपन बचा पाता...।
काश
मुस्कान का भी
कोई
कारोबार खोज पाता।
काश
तुम्हारे लिए
सजा पाता कोई
रंगों भरा आसमान।
जानता हूँ
कि
फटे लिबास में
तुम्हारी हंसी
मुझे
चेताती है हर बार
दिखाती है
हमारे समाज को आईना।
तुम्हारी मुस्कान निश्छल है
लेकिन
तुम्हारी भूख
हमारे समाज के चेहरे पर तमाचा।
मैं जानता हूँ
तुम सशक्त हो
क्योंकि तुम
भूख की पीठ पर बैठ
मुस्कुरा रहे हो...।
हमारी दुनिया में
बचपन
अब
तुम्हारी तरह कहाँ जीया जा सकता है।
मैं जानता हूँ
तुम्हारी दुनिया में
प्यार एक गुब्बारे की तरह है
और
हमारे यहाँ बचपन
उम्र के गुब्बारे की तरह
होकर
गुबार सा हो जाता है।

रविवार, 10 अक्टूबर 2021
एक सदी का सूखापन
तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ
जानता हूँ
अगली सदी
बिना फूलों की होगी।
इन्हें रख लेना
डायरी के
पन्नों के बीच
उम्र के पीलेपन
के साथ
संभव है
इन्हें भी
जीना पड़े
एक सदी का सूखापन।
सहेज लेना इन्हें
कम से कम
पीढ़ियां
देख तो सकेंगी
इन्हें छूकर
और
शायद इसी तरह बच सके
इनकी खुशबू
हमारा
फूलों से प्रेम
और
फूलों
के शरीर...।
जानता हूँ
किसी को फर्क नहीं पड़ता
कि
क्या कुछ खो चुके हैं हम।
फर्क पड़ेगा
जब हम
एक सूखे संसार में
रेतीले जिस्म
और
सूखी आत्मा के बीच
हम
नहीं खोज पाएंगे
कोई पक्षी
कोई फूल
कोई जीवन
और
कोई उम्मीद...।

शनिवार, 9 अक्टूबर 2021
सच सहमा सा आ बैठता है
सच
उस
भयभीत बालक की तरह है
जिसे
अकेला छोड़ दिया जाता है
उग्र भीड़ के बीच
यह जानते हुए भी कि
वह लौटेगा नहीं।
सच
उस गुबार का नाम है
जिसे
आम आदमी कंठ में
रखता है
विष की तरह
और घूंट-घूंट पीता है
अपनी जीत को हार में
बदलता देख।
सच
उस बेबसी का नाम है
जो भूखे बच्चे के
भयभीत चेहरे से
टपकता है लार बनकर।
सच
उस चीख के समान है
जिसके बाद
ठहर जाती है जिंदगी
किसी
अधबीच चौराहे पर
लपलपाती नजरों के बीच।
सच
उस किताब की तरह है
जिसके पन्ने पीले हो गए हैं
इस इंतजार में
कि उसके शरीर से
धूल हटे और खोला जाए सच।
सच
उस ग्रंथालय की तरह भी है
जो धधकता रहे
किताबों के सच के बीच
झूठे समाज में।
सच
उस जीत की तरह है
जिसे पाकर
अक्सर
फटेहाल हो जाता है
एक शरीर
फिर भी मुस्कुराता है
अपने अधनंगे शरीर को देखकर।
सच
उस हार की तरह है
जिसमें सूखे शरीर की भयाक्रांत चीख होती है।
सच
सहमा सा आ बैठता है
किसी मासूम के चेहरे की रुंआसी में।
सच
किसी
वृद्ध की आंखों में
लंबी लड़ाई जीतने के बाद
उतना ही धुंधला जाता है
जितनी उसकी उम्र।
सच
कैसे कहूं
बहुत दुखता मन
और
सच कैसे सहूं
अपने ही बोझ से
भिंची जा रही है
जिव्हा मेरी।
कान में बहरापन ओढ़कर
जी रहे समाज का
हिस्सा होकर
मैं
अब धीरे-धीरे
भीड़ ही हो हूं।
सच
केवल
मन के शोर का
एक चेहरा है
जो
फटे हुए
मन के जिस्म के जर्जर हो जाने तक
उसे
ढांकता रहता है
भयभीत बालक की तरह
जिसे
अकेला छोड़ दिया जाता है
उग्र भीड़ के बीच।
PHOTOGRAPH@SANDEEPKUMARSHARMA

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021
प्रेम ऐसा ही होता है

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021
घर नमक नहीं हो सकता
मुझे याद है
आज भी
तुम्हारी आंखों में
उम्र के सूखेपन के बीच
कोई स्वप्न पल रहा है
कोई
श्वेत स्वप्न।
तुम जानती हो
कोरों में नमक के बीच
कोई स्वप्न
कभी भी
खारा नहीं होता।
अक्सर
तुम स्वप्न को घर कहती हो
और
मैं
घर को स्वप्न।
कितना मुश्किल है
घर को स्वप्न कहना
और
कितना सहज है
स्वप्न को घर मानना।
मैं जानता हूं
तुम्हारी आंखों की कोरों के बीच
जो नमक है
वही
घर है
नींव है
जीवन है
और गहरा सच।
तुम अक्सर कहती हो
घर नमक नहीं हो सकता
हां
सच है
लेकिन
आंखें नमक हो सकती हैं
जीवन भी नमक हो सकता है
और
गहरा मौन भी।
एक उम्र के बाद
जब जीवन का सारा खारापन
सिमटकर
कोरों पर हो जाता है जमा
तब
जिंदगी
बहुत साफ दिखाई देती है
एकदम
तुम्हारे स्वप्न की तरह
जिसमें
तुम हो
मैं हूं
एक घर है
और
नमक झेल चुकी
तुम्हारी ये
पनीली हो चुकी आंखें।

अभिव्यक्ति
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...
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यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
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नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
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सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...