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गुरुवार, 25 नवंबर 2021

पग पग जिंदगी...



खुशियां भेद नहीं करतीं
क्योंकि
वे चेहरे खूब मुस्कुराते हैं
जिनके सिर
छत नहीं होती। 
ये संसार हमने बुना है
इसमें कुछ
स्वार्थ के तार 
जो 
गाहे बगाहे
हम ही पिरो देते हैं
फिर 
एक उम्र के बाद
हमीं 
उनकी चुभन पर क्रोधित होते हैं।
जीवन को बुनते हुए
हम एक जाल बुन जाते हैं
जिसमें हमारी 
खुशियां उलझकर 
अक्सर दम तोड़ देती हैं।
एक दूसरी दुनिया
जाल में उलझी सी
जीवन बुनती है
फुटपाथ पर
किसी पिल्लर 
पर 
खिलखिलाते।
जिंदगी
दोनों चेहरों में जीती है
एक जगह
कसक में मुस्कुराती है
और दूसरी ओर
अर्थ के मकड़जाल में
उलझी
कसमसाती है।
कोई कविता
जिंदगी जैसी
ऐसे ही लिखी जाती है
जहां शब्दों की खरोंच 
मन को लहुलुहान करती हैं
और 
कविता शब्दों का कोई फलसफा 
हो जाती है...।
मैं 
उन मुस्कुराते बच्चों से
नहीं पूछा
भूख 
बड़ी है
या खुशी...।
मैं जानता हूँ
सवाल पर 
वह फिर मुस्कुरा उठता
और 
मैं शब्दों के बीच
हो जाता
लहुलुहान
क्योंकि 
जिंदगी केवल किताब नहीं है
अलबत्ता
शब्द है
जो कई
दफा
गहरे उभर आते हैं
मन पर...।


 

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

भयभीत चेहरों का समाज

ये चेहरे
रोक देते हैं 
हमारी दौड़। 
भागते से हम 
ठिठक जाते हैं
इन्हें सामने पाकर। 
सच 
क्या ये आईना हैं
हमारे खुरदुरे समाज 
जिसमें हमेशा ही
बिगड़ी तस्वीर ही 
नज़र आती है...।
भागती जिंदगी की पीठ पर
कुछ
उदास और थके चेहरों का समाज
चीख रहा है
रोटी के लिए।
भूख यहां 
भूगोल और विज्ञान नहीं
गणित है।
चेहरों के बीच 
दरकती मानवीयता कहीं ठौर पाने
भटक रही है।
इनकी चीख
हमारे जम़ीर पर 
एक पल की दस्तक है
ग्रीन 
सिग्नल होते ही
विचारों और ऐसे समाज को रौंद
हम बढ़ जाते हैं
अपनी 
दुनिया में 
जहां
पीठ पर होते हैं
जोड़ घटाने
और 
पैरों तले कुचलने की साजिश।
समृद्ध समाज मदहोश है
और 
भाग रहा है 
अपने आप से
बहुत दूर
क्योंकि
ये सच्चे चेहरे
उन्हें डराते हैं...।


 

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

फटे लिबास में तुम्हारी हंसी


 काश मैं 

इस बाज़ार से

कुछ 

बचपन बचा पाता...।

काश 

मुस्कान का भी 

कोई 

कारोबार खोज पाता।

काश 

तुम्हारे लिए

सजा पाता कोई

रंगों भरा आसमान।

जानता हूँ

कि 

फटे लिबास में

तुम्हारी हंसी

मुझे 

चेताती है हर बार

दिखाती है

हमारे समाज को आईना।

तुम्हारी मुस्कान निश्छल है

लेकिन 

तुम्हारी भूख 

हमारे समाज के चेहरे पर तमाचा। 

मैं जानता हूँ

तुम सशक्त हो

क्योंकि तुम

भूख की पीठ पर बैठ

मुस्कुरा रहे हो...। 

हमारी दुनिया में 

बचपन 

अब 

तुम्हारी तरह कहाँ जीया जा सकता है।

मैं जानता हूँ

तुम्हारी दुनिया में 

प्यार एक गुब्बारे की तरह है

और 

हमारे यहाँ बचपन 

उम्र के गुब्बारे की तरह 

होकर 

गुबार सा हो जाता है।

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

एक सदी का सूखापन

 


तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ

जानता हूँ

अगली सदी

बिना फूलों की होगी।

इन्हें रख लेना

डायरी के 

पन्नों के बीच

उम्र के पीलेपन

के साथ 

संभव है

इन्हें भी 

जीना पड़े 

एक सदी का सूखापन।

सहेज लेना इन्हें

कम से कम 

पीढ़ियां 

देख तो सकेंगी 

इन्हें छूकर

और 

शायद इसी तरह बच सके

इनकी खुशबू

हमारा 

फूलों से प्रेम 

और 

फूलों 

के शरीर...।

जानता हूँ

किसी को फर्क नहीं पड़ता 

कि 

क्या कुछ खो चुके हैं हम।

फर्क पड़ेगा

जब हम

एक सूखे संसार में

रेतीले जिस्म

और 

सूखी आत्मा के बीच

हम 

नहीं खोज पाएंगे

कोई पक्षी

कोई फूल

कोई जीवन

और 

कोई उम्मीद...।


शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

सच सहमा सा आ बैठता है

 


सच 

उस 

भयभीत बालक की तरह है

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच

यह जानते हुए भी कि

वह लौटेगा नहीं।

सच

उस गुबार का नाम है

जिसे

आम आदमी कंठ में 

रखता है 

विष की तरह

और घूंट-घूंट पीता है 

अपनी जीत को हार में 

बदलता देख।

सच 

उस बेबसी का नाम है

जो भूखे बच्चे के 

भयभीत चेहरे से 

टपकता है लार बनकर।

सच 

उस चीख के समान है

जिसके बाद 

ठहर जाती है जिंदगी

किसी 

अधबीच चौराहे पर

लपलपाती नजरों के बीच। 

सच 

उस किताब की तरह है

जिसके पन्ने पीले हो गए हैं

इस इंतजार में 

कि उसके शरीर से 

धूल हटे और खोला जाए सच।

सच

उस ग्रंथालय की तरह भी है 

जो धधकता रहे 

किताबों के सच के बीच

झूठे समाज में।

सच 

उस जीत की तरह है

जिसे पाकर

अक्सर 

फटेहाल हो जाता है

एक शरीर

फिर भी मुस्कुराता है

अपने अधनंगे शरीर को देखकर।

सच 

उस हार की तरह है

जिसमें सूखे शरीर की भयाक्रांत चीख होती है।

सच

सहमा सा आ बैठता है

किसी मासूम के चेहरे की रुंआसी में।

सच 

किसी

वृद्ध की आंखों में

लंबी लड़ाई जीतने के बाद

उतना ही धुंधला जाता है 

जितनी उसकी उम्र। 

सच 

कैसे कहूं

बहुत दुखता मन

और

सच कैसे सहूं

अपने ही बोझ से

भिंची जा रही है

जिव्हा मेरी। 

कान में बहरापन ओढ़कर

जी रहे समाज का

हिस्सा होकर

मैं 

अब धीरे-धीरे

भीड़ ही हो हूं।

सच

केवल 

मन के शोर का 

एक चेहरा है

जो

फटे हुए

मन के जिस्म के जर्जर हो जाने तक 

उसे

ढांकता रहता है

भयभीत बालक की तरह

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच। 



PHOTOGRAPH@SANDEEPKUMARSHARMA

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

प्रेम ऐसा ही होता है


 

प्रेम

ऐसा ही होता है

अंदर से

बेहद शांत।

जैसे कोई

रंगों के महोत्सव

के 

बीच

किसी अधखिले फूल की

प्रार्थना।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

घर नमक नहीं हो सकता

मुझे याद है

आज भी

तुम्हारी आंखों में

उम्र के सूखेपन के बीच

कोई स्वप्न पल रहा है

कोई

श्वेत स्वप्न। 

तुम जानती हो

कोरों में नमक के बीच

कोई स्वप्न

कभी भी 

खारा नहीं होता।

अक्सर

तुम स्वप्न को घर कहती हो

और 

मैं

घर को स्वप्न।

कितना मुश्किल है

घर को स्वप्न कहना

और

कितना सहज है

स्वप्न को घर मानना।

मैं जानता हूं

तुम्हारी आंखों की कोरों के बीच 

जो नमक है

वही

घर है

नींव है

जीवन है

और गहरा सच।

तुम अक्सर कहती हो

घर नमक नहीं हो सकता

हां

सच है

लेकिन

आंखें नमक हो सकती हैं

जीवन भी नमक हो सकता है

और 

गहरा मौन भी। 

एक उम्र के बाद

जब जीवन का सारा खारापन

सिमटकर

कोरों पर हो जाता है जमा

तब

जिंदगी 

बहुत साफ दिखाई देती है

एकदम

तुम्हारे स्वप्न की तरह

जिसमें 

तुम हो

मैं हूं

एक घर है

और 

नमक झेल चुकी 

तुम्हारी ये

पनीली हो चुकी आंखें।




अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...