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शनिवार, 25 जून 2022

आदमी अक्सर घटता है

 

उम्र का पहिया

अनुभव 

का पथ होता है। 

सिंदूरी सांझ 

और 

स्याह रात के बीच

आदमी अक्सर घटता है

बंटता है

रचता है

खोजता है

पाता है

किसी मूल से टकराता है

किसी लकीर पर

कुछ गठानें बांधता है

आदमी इसी समय

विभाजित होकर

दोबारा जुड़ जाता है।

उम्र का अनुबंध 

सुबह देता है

दोबारा आदमी एक 

पहिया होकर

नापने लगता है स्वयं से दूरी 

और सांझ होते होते 

खेत हो जाता है।

उम्र में अनेक रात

भट्टी सा तपता है

एक दिन 

सुबह

दोपहर

सांझ

और 

रात होकर 

राख हो जाता है। 

अनुभव का पथ होता है

पहिया होता है

बस आदमी 

बदलता रहता है।

एक 

उम्र के अनुभव का पथ

दीवार पर 

सच में उकेरा जा सकता है

बेशक 

किसी सांझ के चेहरे पर

कोई लकीर की तरह।

बुधवार, 11 मई 2022

तुम आयत हो


 

तुममें और मुझमें

कुछ

है

जो केवल

तुमसे होकर

मुझ तक आता है।

तुम आयत

हो

मुझ पर

गहरे उकेरी गई।

तुम्हारे चेहरे पर

अक्सर

कुछ सुर्ख सा महकता है

और मैं

तुम्हें एक सदी की भांति

सहेज लेता हूँ।

तुम्हारे ख्वाब

जो

टांक रखे हैं

तुमने

हमारे भरोसे की शाख पर।

बारी -बारी उतार

तुम्हारा

उन्हें धूप दिखाना

हमें करीब लाता है

सपनों के।

तुम्हारी खींची गई

उस

कच्ची दीवार पर लकीर

जिसे

मैंने जिंदगी कहा था

आज भी

हम अक्सर टहल आते हैं

दूर तक

निशब्द से

हमारी राह

अपनी राह

कोई और राह हमने

खींची ही नहीं।


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

तुम चाहो तो तुम्हें मैं दे सकता हूँ


तुम चाहो तो तुम्हें मैं 

दे सकता हूँ
इस गर्म मौसम में 
सख्त धूप।
तुम्हें दे सकता हूँ
चटकती दोपहर
और 
परेशान चेहरों वाला समाज।
तुम्हें दे सकता हूँ
झंझावतों में उलझी जिंदगी
और 
चंद कुछ न कहती 
हाथ की लकीरें। 
तुम्हें मैं दे सकता हूँ
कोई सड़क तपकर पिघलती हुई
और 
पैरों के चीखते छाले।
तुम्हें मैं दे सकता हूँ 
जिंदगी का कुछ पुराना सा दर्शन
और 
एक खुराक खुशी। 
तुम्हें मैं दे सकता हूँ मुट्ठी में कैद उम्मीद
और 
बेतरतीब उखड़ती सांसें।
तुम्हें मैं दे सकता हूँ 
सूखे पेड़ों से झरती 
धूप पाकर खिलखिलाते पत्ते
दरारों की जमीन में 
शेष सुरक्षित जम़ीर। 
तुम्हें फरेब की हरियाली नहीं दे सकता
क्योंकि मैं जानता हूँ
बेपानी चेहरों वाला समाज
अंदर से सूख चुका है
बारी-बारी दृरख्त गिर रहे हैं
धरा के सीने पर। 
कोई झूठी हरियाली नहीं दे सकता तुम्हें।
सच देखो क्योंकि जो हरा है
वह भी अंदर से  
झेल रहा है भय का सूखा। 
हम बनाएंगे 
कोई राह इसी धरा पर 
जो जाएगी 
किसी पुराने हरे वृक्ष तक। 
आओ साथ चलें 
सच जीते हुए, पढ़ते हुए
क्योंकि सच उस अबोध बच्चे सा है
जिसे झूठ सबसे अधिक 
झुला रहा है अपनी गोद में...।


 

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

एक दिन गिर जाएंगे सूखे पत्तों से


सूखती धरा 
पलायनवादी विचारधारा
आग में झुलसती प्रकृति
धरा के सीने से
पानी खींचते लोग
पानी पर चढ़कर 
अट्टहास करता बाजार।
नदियों के सीने पर 
उम्मीद की नमी तलाशते खेत
सिर पर बर्तन रख
घंटों का सफर 
तय करते लहुलूहान पैरों वाले बच्चे
भविष्य कहे जाते हैं
खोखले वर्तमान में थकती माताएं
छोड़ चुकी हैं 
पानी के लिए बच्चों का बचपन।
गोद और बचपन
अब सख्त सा सच है 
गोद में बचपन अब पत्थर हो गया है।
पानी ढोते बच्चों की आंखें 
लटक रही हैं पेट पर। 
धरती दहक रही है
बचपन सूखकर दरक रहा है
भावनाएं केवल 
कागज पर दर्द को 
समाज का दर्शन बता कर 
सतही प्रयास कर रहा है।
सूरज की गेंद 
लुढ़कती बढ़ रही है मानव की ओर
ताप का साम्राज्य
सबकुछ जलाने पर आमादा है
और हम
घरों में दुबके 
सतही स्वार्थी दृश्यों पर बहस में उलझे हैं।
प्रकृति का कारोबार 
हमें 
झुलसा देगा
पीढ़ियों तक दरकन होगी
और होगी सूखी धरा। 
सोचिए 
हम कहां जा रहे हैं
आंखों पर कारोबारी पट्टी बांधकर।
उंगली पकड़े बच्चे 
चल नहीं पा रहे हैं 
तपती धरा पर
एक दिन 
गिर जाएंगे सूखे पत्तों से।


 

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

सूख जाएं कहीं कुछ पल

 


आओ
सूख जाएं कहीं कुछ पल 
ताकि जी सकें
प्रकृति की तपती दोपहरी
नाजुक पत्तों पर
गर्म हवा के अहसास
पत्तों के 
सूखकर गिरने का आध्यात्म
और
पक्षियों का प्रबंधन।
आओ सूख जाएं 
कुछ पल
ताकि जान सकें 
सूखकर दोबारा अंकुरित 
होना
मुश्किल तो नहीं है। 
सूख जाएं 
ताकि 
समझ सकें
सूखी देह से 
बूंद का निर्मल नेह
और 
चातक की बिसराई जा रही
प्रेम कथा।
सूख जाएं
ताकि जी सकें
सावन और भादो का उल्लास
जी सके एक रिश्ता
प्रकृति से हमारा।
सूख जाएं 
ताकि एक पीढ़ी जान सके
कैसे सहज 
छोड़ा जा सकता है शरीर
उम्रदराज़ होने पर
और 
कैसे हो सकते हैं
खाद 
अगली पीढ़ी की हरी शाखों के लिए।
सूख जाएं 
क्योंकि 
यह सुख है 
प्रकृति का आशीष भी
सूखने के बाद ही
रचा जा सकता है
नया संसार।
सूख जाएं 
ताकि समझ सकें 
पक्षियों का जल प्रबंधन
जीवन और नवसृजन।
समझ सकें
वृक्षों की दोपहरी से पक्षियों का रिश्ता
उनका आपसी प्रेम।
समझ सकें 
कि 
पक्षी छोड़ते नहीं हैं
दोपहर में भी
सूखे दरख्तों का साथ।
यही भरोसा हमें 
और 
हमारी प्रकृति को रखेगा 
हमेशा हरा...।


मंगलवार, 18 जनवरी 2022

रंगमंच पर बहुरूपिये सा


 
किसी दिन 

उत्सव सा

आदमी

हर पल

समय की पीठ पर 

उदय और अस्त होता है।

रंगमंच पर

बहुरूपिये सा

मुखौटे में 

रोता, हंसता, चीखता

आदमी

दरक जाता है

आदमियत की दीवार सा

टूट जाता है 

कई जगहों से।

रंगों को चेहरे पर मलता

स्याह आदमी

पूरा जीवन

कुछ नहीं खोजता

केवल

अपने आप को

भीड़ में टिमटिमाता 

पाने की जिद में

भागता रहता है

अपने आप से

कोसों दूर

किसी अपने तरह के 

आदमी की खोज में

समय की पीठ पर

गुलाबी पैरों की 

छाप छोड़ता 

बदहवास आदमी।

दरकता आदमी

धूल की दीवार है

जिसमें 

केवल सच है

टूटन है

और 

सख्त जमीन।

रविवार, 2 जनवरी 2022

ये तो रंगरसिया


हजार बार नन्हें

परों से 

उड़ती है तितली

तब जाकर 

पाती है

फूलों का प्रेम 

और 

जीवन का रस।

धूप सहती है

नुकीले कांटे भी

रोकते हैं राह

बचती 

खिलखिलाती

फूलों के मन को

छू ही लेती है

क्योंकि भरोसा अपनी पीठ पर

रोज रखती है

उड़ने से पहले तितली।

आसमान 

छूना 

और आसमान पर बने रहना

ऐसी कोई ख्वाहिश

नहीं रखती

ये तो

रंगरसिया है

रंगों में जीती

रंगों से जीवन को सीती

यूं ही भरती है कई

उड़ान।

कभी दूसरी तितली का नहीं करती 

प्रतिकार

क्योंकि

जानती है

ये बागान

उनकी उड़ान

और 

रंगों से उत्साह पाता है

जीवन पाता है।

सीख लें..

कि 

शिकायत नहीं करती 

परों के टूटने पर

खामोशी से तिनकों पर 

सिर रख सी लेती है

परों के घाव..।।

सीख लें

मनबसिया से

खुशबू सहेजना

और उसे बांटना सभी के बीच

खिलखिलाते हुए....।


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...