फ़ॉलोअर

शनिवार, 24 सितंबर 2022

चेहरों के आईने में


 वक्त 
हमारे
चेहरे बदलता है
वक्त
पढ़ा जा सकता है
हमारे चेहरे पर।
वक्त देखा जा सकता है
शब्दों में
उनके अर्थ और भाव में।
वक्त 
महसूस होता है
हर पल के मौसमी दंश में। 
वक्त महसूस होता है
अंदर से बढ़ते हौंसले में
कुछ अलग से सबक पढ़ने में
हर बार 
थककर खड़ा होने में।
चेहरों के आईने में
व्यवहार के खारेपन में
चुटकी भर मिठास में
और 
अपने किसी खास की 
हौंसला अफजाई में। 
वक्त 
नज़र आता है उम्र पर
और 
जीवन में।
वक्त के चेहरे नहीं होते
हमारे होते हैं।

मंगलवार, 20 सितंबर 2022

मैं तुम्हें देना चाहता था

मैं खुश हूँ
तुम्हें मौसम महसूस होता है
खासकर बारिश।
तुम्हें 
बचपन में 
कुछ बूंदें 
मैंने नन्हीं हथेली पर 
थाम लेना सिखाया था। 
देख रहा हूँ
बचपन की बारिश
अब विचारों में प्रवाहित है।
मैं तुम्हें 
संस्कार और विरासत में 
बूंदें ही देना चाहता था
जानता हूँ 
तुम दोनों बूंदों से 
सजा लोगी 
प्रकृति 
और 
अपनी बगिया। 
तुम्हें 
अंदर से हरित पाकर 
हम भी हो 
गए हैं 
उपजाऊ मिट्टी
जिससे सूखने का 
दरकने का भय 
कोसों दूर है।

(एक बिटिया बारिश की फोटोग्राफी में व्यस्त थी और दूसरी उसकी तल्लीनता पर फोकस कर रही थी...)

सोमवार, 19 सितंबर 2022

सफर में


सफर 
में 
अक्सर साथ होते हैं
अपना शहर
पुरानी गलियों में बसे 
बचपन वाले खोमचे।
दोस्तों 
के कुछ सुने सुनाए 
मीठे किस्से। 
घंटों उलझे से हम।
साथ होते हैं
कुछ बुढ़े हो चले दोस्तों के चेहरे
कुछ 
उनकी बातों में 
उम्र का खारापन।
साथ होते हैं
थकन की पीठ पर 
शब्दों के अर्थ।
साथ होते हैं
रेस में भागते पैर
और उनकी सूजन 
आंखों में थकन
और सुबह का सूरज। 
लौटने की खुशी
जीवनसाथी का इंतज़ार
बच्चों का नेह संसार
और 
उम्र के केलेंडर पर 
बीते हुए दिन के साक्ष्य।
साथ होता है देर तक 
अपने शहर का आसमां
और भुरभुरी जमीन। 
साथ होते हैं हम 
और 
वक्त।


 

रविवार, 18 सितंबर 2022

ताकि तुम्हें दे सकूं समय और आज

 हर बार तुम्हारे टूटने से

मेरे अंदर भी

गहरी होती है कोई पुरानी ददार।

तुम्हारे दर्द का हर कतरा

उन दरारों को छूकर 

गुजरता है

और 

चीख उठता हूं मैं भी

अतीत को झकझोकर 

पूछता हूं सवाल

मैं कौन हूं

और

क्या हूं

और कितना हूं...?

मैं जानता हूं तुम्हारे दर्द पर 

सहलाने के बहाने

कुरेदा जाता है समय

मैं जानता हूं

तुम्हें चेहरे से हर बार

मैं तिल तिल घटता पा रहा हूं

मैं 

अपनी हथेलियों पर रेखाओं के बीच

कोई रास्ता तलाशता हूं

ताकि तुम्हें दे सकूं

समय

जवाब

और हमारा बहुत सा आज।

मैं जानता हूं

तुम हर बार टूट रही हो

झर रही हो

क्योंकि तुम मुझ सी हो

और मेरे अंदर बहुत गहरे

बहती हो सदानीरा सी

अपने किनारों पर होने वाली

हलचल को अनदेखा करती हुई।

मैं 

तुम्हें सदनीरा ही चाहता हूं

मैं चाहता हूं

तुम और मैं यूं ही साथ प्रवाहित रहें

विचारों में

जीवन में

इस 

महासमर के हरेक सख्त सवाल पर। 

मैं जानता हूं

तुम सूख सकती थीं

तुम सुखा सकती थीं

तुम रसातल में भी समा सकती थीं

लेकिन 

तुमने मेरे लिए 

खामोशी को आत्मसात कर

सदानीरा होना स्वीकार किया।

मन में कहीं

हर बार बहुत सा सूखता है

बिखरता है 

लेकिन

हर बार तुम सदानीरा बन

उसे अंकुरित कर जाती ह

समय के सांचे में ढाल...।

मंगलवार, 30 अगस्त 2022

तुम्हें अधिकार है

तुम्हें अधिकार है

मेरे प्रेम तत्व के हरण का।

तुम्हें 

अधिकार है

उस रंग को बदरंग करने का

जो निखरा है तुम्हारे लिए

और तुमसे। 

तुम्हें 

अधिकार है

उन कोमल हिस्सों पर 

नुकीले दंश चुभाने का 

जिन्हें तुम चाहते तो

सहला सकते थे 

सदियों। 

तुम्हें 

अधिकार है

मेरे अंतस में छिपे पराग को 

छिन्न भिन्न करने का

तुम चाहते तो 

उनसे बसा सकते थे 

असंख्य प्रकृति। 

तुम्हें 

अधिकार है 

नेहालाप का

तुम्हें 

अधिकार है

उन सभी क्रूर बहानों को छिपाने का

जो तुम रचते रहे 

मेरे 

दैहिक हनन के समय। 

तुम्हें 

अधिकार है

मुझे शोषण के बाद 

बिखरने को छोड़ने को। 

मुझे बिखरकर भी 

बेमतलब खाद होना 

पसंद है

तुम्हें तो दूसरा फूल खोजना होगा

उसे दोबारा वायदों में 

बहकाने को..।

 

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

युग अपने पैरों लौट जाएगा

कोई उम्मीद

पत्तों पर नूर सी 

महकती है।

पत्तों पर उम्र गुजार 

समा जाती है 

सशरीर

बिना शर्त

क्योंकि

रिश्तों में अनुबंध नहीं होता। 

हरापन 

देकर 

पत्तों से जीवन का दर्शन

सीखकर

बूंद 

का आभा मंडल दमकता है। 

बूंद एक युग है

जो सूख रहा है

मानवीय शिराओं में। 

हरापन 

बूंद को सहेज 

एक उम्मीद गढ़ती है हर रोज।

सांझ 

उम्मीद की पीठ फफोले से पट जाती है

पूरा दिन

उस बूंद में आखेट करता है

और समा जाता है

उसी के गर्भ में..।।

अबकी युग अपने पैरों 

लौट जाएगा

सूखे और बिलखते आपदाग्रस्त 

विचारों से 

हारकर...। 

कोई युग कैसे ठहरेगा

इस 

बेसुरे विचारों के बीच।

 

शनिवार, 30 जुलाई 2022

हमारे प्रेम अनुबंध के दस्तावेज


कोई गंध 
तुम्हें और मुझे 
खींचती है
कोई श्वेत गंध। 
तुम्हें 
मुझसे गुजरने को 
बेताब करता 
यह 
श्वेत वक्त। 
ये जो 
पत्ते हैं 
यह तुम्हारे हमारे 
प्रेम अनुबंध के 
दस्तावेज हैं। 
यह उम्र के पैर की भांति
पदचिह्न नहीं छोड़ते
यह 
बस अंकित हैं
तुममें 
और 
मुझमें
एक इबारत बनकर। 
मैं तुम्हें 
यह पूरा श्वेत सच 
देना चाहता हूँ
ताकि 
हम सहेज सकें 
गढ़ सकें
भविष्य। 
मैं तुममें 
और 
यकीनन तुम 
मुझमें
महकते हैं 
एक सदी का सच होकर। 
देखना एक दिन
यह पत्ते 
हमारी डायरी के पन्नों में
हमारी उम्र 
हमारी खुशियों के 
हस्ताक्षर होंगे।


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...