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मंगलवार, 23 मई 2023

यह वह सिरे वाली नदी नहीं

नदी का पहला सिरा

यकीनन कभी 

उगते सूर्य के सबसे निचले

पहाड़  के गर्भ में कहीं

बर्फ के नुकीले छोर से बंधा रहा होगा।

नदी का दूसरा सिरा

नहीं होता।

नदी 

उत्पत्ति से विघटन

की परिभाषा है।

सतह पर जो है

नदी नहीं

क्योंकि 

पहले सिरे का वह बर्फ वाला

नुकीला छोर 

टूटकर नदी के साथ बह गया।

अब उस नदी का 

पहला सिरा भी नहीं है

केवल 

हांफती हुई जिद का कुछ 

सतही आवेग है

जो

उस पहले सिरे सा

किसी दिन बह जाएगा

और 

रह जाएगी

केवल नदी की दास्तां

पथ

निशान

और उसकी राह में

शहरों की आदमखोर भीड़।

नदी 

उस पुत्री की तरह है

जो जानती है

मायके के हमेशा के लिए छूट जाने का दर्द

और

दूसरे सिरे की अंतहीन यात्रा का अनजान पथ

और 

उस पर प्रतिपल पसरता भय।

नदी है 

लेकिन यह वह सिरे वाली नदी नहीं। 

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

लौट आओ


गांव के घर

और 

महानगर के मकानों के बीच

खो गया है आदमी।

गांव को

लील गई

महानगर की चकाचौंध

और

महानगर भीड़ के वजन से

बैठ गए 

उकडूं।

हांफ रहे हैं महानगर

और 

एकांकी से सदमे में हैं गांव। 

गांवों के गोबर लिपे 

ओटलों पर 

बुजुर्ग 

चिंतित हैं

जवान बेटों के समय से पहले 

बुढ़या जाने पर। 

तनकर चलने वाला पिता

झुकी कमर वाले पुत्र को देख

अचंभित है

क्या महानगर कोई

उम्र बढ़ाने की मशीन है? 

थके बेटे को खाट पर बैठाए

पिता देते हैं

कांपते हाथों पानी

और 

खरखरी वाली आवाज़ में सीख

गांव लौट आओ

तुम बहुत थक गए हो।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

पदचिह्न मिट रहे हैं

एक दिन
गांव की शहर हो जlने की लालसा
मिटा देगी 
लौटने की राह।
खेत 
अब रौंदे जा रहे हैं
मकानों के पैरों तले।
गांव 
नगर होकर 
सिर खुजा रहे हैं। 
गांव की पीठ पर 
विकसित होने का दिवास्वप्न
उकेरा गया
गहरे नाखूनों से। 
नगर 
महानगर की चमक में 
बावले होकर 
भाग रहे हैं। 
नगर के पीछे 
शर्ट को पकड़े दौड़ रहे हैं 
गांव। 
नगर रोज 
धक्के खाता 
महानगर आता है
देर रात थका मांदा लौट जाता है
देर रात सो जाता है
सीमेंट जैसे सपने ओढ़कर। 
महानगर आ फंसा है 
अपनी जकड़ में
दम फूल रहा है
हांफ रहा है
रोज बहाने खोजकर
गांव की हरियाली 
किताबों में महसूस करता है। 
महानगर 
गांव होना चाहता है
गांव नगर
और 
नगर होना चाहते हैं महानगर। 
एक दिन खेत खत्म हो जाएंगे
तब 
गांव भी खत्म होंगे।
महानगर तब खाली होकर 
विकास की एतिहासिक भूल 
कहलाएंगे। 
तब 
नगर 
की पीठ पर फिसलते
लटकते 
खिसियाहट भरे 
गांव होंगे। 
हम बैलगाड़ी से
सीमेंट की सड़कों पर 
होंगे
लौटने को आतुर 
पुरातन युग की ओर। 
तब खबरों में 
केवल मकान होंगे
आदमी नहीं। 
पानी और हवा 
नहीं होगी
विकास होगा खौफनाक और डरावना।


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

नदी का श्वेत पत्र

हर रात 
नदियां कुरेदी जाती हैं
खरोंची जाती हैं
सुबह तक 
वे 
बाज़ार में होती हैं।
दोपहर तक 
ठिकानों पर
और 
शाम तक 
मकानों की दीवारों में चिन दी जाती हैं।
ऐसे रोज नदियां
घिस रहीं हैं
अंदर से।
उनकी देह रज से बने मकानों में
सदियों से एक सवाल 
सुलझ नहीं पाया 
कि 
आखिर नदियां खोखली क्यों हो रही हैं? 
अनुत्तरित सवाल 
अखबारों में पढ़कर 
गाड़ीवान 
अगली सुबह फिर 
नदी की छाती पर सवार हो जाता है
उसे कुरेदने...। 
हम बहुत चिंता करते हैं
कि 
वाकई भविष्य खतरे में है
नदियां नहीं बचेंगी 
तो 
कैसे बचेगा भविष्य। 
खुरची नदी 
अपने आप को सौंप देती है
उन लौह नखों के वाहक को
अंदर ही अंदर रोती है
चीखती है
और 
गहरे तक 
समा जाती है अपने ही अंतस में।

शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

वसंत पीला सा


ये पीला सा वसंत
उन उम्रदराज़ आंखों में 
कोरों की सतह पर
नमक सा चुभता है
और 
आंसू होकर 
यादों में कील सा धंस जाता है। 
धुंधली आंखें वसंत 
को जीती हैं
ताउम्र
जानते हुए भी 
नमक की चुभन।  
वसंत उम्रदराज़ साथी सा 
सुखद है
जो कांपते शरीर
जीवित रखता है 
अहसासों का रिश्ता। 
वसंत तब अधिक चुभता है
जब 
टूट जाती है साथी से 
अहसासों की डोर। 
तब
बचता है केवल पीला सा सन्नाटा
जो चीरता है
शरीर और अहसासों को 
तब
सपने सलीब पर रख
शरीर पीले होने लगते हैं।
हां 
वसंत 
उम्रदराज़ नहीं होता
केवल सुलगता है
थके शरीरों की पीठ पर।


 

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

पुरानी डायरी

डायरी के कुछ पीले पन्नों 
से आज मिला 
कुछ पुराना मैं और मुझसी यादें।
समय था जब
डायरी पर सपाट उतर जाया करती थीं भावनाएं
अब स्याही की थकन में चूर यादें 
बेहद सुस्त पीली हो चुकी हैं।
पीलेपन का भार
शब्द भी सह नहीं पाए 
और 
लकीरों के सिराहने 
टूटकर लेट गए हैं।
सहेज रहा हूं दोबारा
पन्नों की लकीरों में टूट गए शब्दों, भावों और विचारों को।
सोचता हूं
कितना सहज था मैं
जब डायरी के हर पन्नें की भूख
के बदले दे दिया करता था
अपनी यादें 
और डायरी मुस्कुरा उठती थी।
सालों बाद जब 
उम्र रेगिस्तानी अहसासों से जूझकर
जीना सीख गई है
भाव और शब्दों का जमा खर्च।
ऐसे में 
एक दिन डायरी हाथ आ गई
और 
मैं उस डायरी के पन्नों पर
दोबारा बिछाने लगा
जीवन का बिछौना। 
कुछ फटा सा मैं
और 
कुछ उधडे़ से शब्द
डायरी ही तो है
कब तक सीती रहेगी मुझे उन शब्दों में पिरोकर।
डायरी के कई पन्ने हैं
जिन्हें पलटने का साहस 
नहीं जुटा पा रहा हूं
क्योंकि 
खुले हुए पन्ने पर मैं
अपने बाबूजी के साथ उंगली थामे घूमने जा रहा हूं।
नहीं पलटना चाहता डायरी
क्योंकि 
डरता हूं अगले पन्ने की आहट सुन
बाबूजी लौट जाएंगे 
स्मृति से उस अनंत यात्रा की ओर।
जानता हूं 
बाबूजी नहीं हैं
लेकिन डायरी है, 
उस पर अब भी उनके भाव में लिपटे शब्द हैं
सीख दे जाते हैं 
उम्र के थकान वाले मौसम में।
हां डायरी पीली हो गई है
शब्द पीले हो गए हैं
हां यादें अब भी हरी हैं
जैसे कि बाबूजी की मुस्कान।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

सीलन


सर्द दिनों में 
मन भी 
ठिठुरता है
और पेड़ों से लिपट 
पूरी रात ओस में भीगता है।
सुबह सूर्य 
के आगमन पर
ओटले 
पर बैठ सुखाता है 
बीते दिनों की 
सीलन को। 
सुबह सूरज चढ़ते ही
शब्द हो जाता है
मन ही तो है
कभी कुछ नहीं कहता
केवल सुनता है
सच की शेष गाथाएं।


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...