तुम अबकी बारिश
आ जाना
बीती कई बारिश
केवल
तुम्हारे खत आ रहे हैं
उन्हें सीलन से बचाते हुए
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूं
उन खतों के आसपास।
उन खतों में आखर
अब पीले होने लगे है।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
तुम अबकी बारिश
आ जाना
बीती कई बारिश
केवल
तुम्हारे खत आ रहे हैं
उन्हें सीलन से बचाते हुए
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूं
उन खतों के आसपास।
उन खतों में आखर
अब पीले होने लगे है।
नदियां इन दिनों
झेल रही हैं
ताने
और
उलाहने।
शहरों में नदियों का प्रवेश
नागवार है
मानव को
क्योंकि वह
नहीं चाहता अपने जीवन में
अपने जीवन की
परिधि में कोई भी खलल।
सोचता हूं
कौन अधिक दुखी है
कौन किसके दायरे में हुआ है दाखिल।
नदियों की सीमाएं नहीं होती
नदियां अपनी राह प्रवाहित होती हैं
सदियां तक।
सीमाओं में हमें बंधना चाहिए
इसके विपरीत
हम बांध रहे हैं नदियों को
अपनी मनमाफिक
और
सनक की सीमाओं में।
नदियों पर हमारा क्रोध
कहां तक ठीक है
जबकि
हम जानते हैं
उसके हिस्सों पर बंगले बनाकर
हम
अक्सर नदियों के सूख जाने पर
कितनी नौटंकी करते हैं।
बंद कीजिए
नदियों को उलाहना
और
ध्यान दीजिए दायरों पर
और
ध्यान दीजिए
मानव और नदियों के बीच रिश्तों में
आ रही दरारों पर।
नदियां कभी क्रूर नहीं होतीं
यदि वह
अपनी राह बहती रहें....।
नदी का पहला सिरा
यकीनन कभी
उगते सूर्य के सबसे निचले
पहाड़ के गर्भ में कहीं
बर्फ के नुकीले छोर से बंधा रहा होगा।
नदी का दूसरा सिरा
नहीं होता।
नदी
उत्पत्ति से विघटन
की परिभाषा है।
सतह पर जो है
नदी नहीं
क्योंकि
पहले सिरे का वह बर्फ वाला
नुकीला छोर
टूटकर नदी के साथ बह गया।
अब उस नदी का
पहला सिरा भी नहीं है
केवल
हांफती हुई जिद का कुछ
सतही आवेग है
जो
उस पहले सिरे सा
किसी दिन बह जाएगा
और
रह जाएगी
केवल नदी की दास्तां
पथ
निशान
और उसकी राह में
शहरों की आदमखोर भीड़।
नदी
उस पुत्री की तरह है
जो जानती है
मायके के हमेशा के लिए छूट जाने का दर्द
और
दूसरे सिरे की अंतहीन यात्रा का अनजान पथ
और
उस पर प्रतिपल पसरता भय।
नदी है
लेकिन यह वह सिरे वाली नदी नहीं।
गांव के घर
और
महानगर के मकानों के बीच
खो गया है आदमी।
गांव को
लील गई
महानगर की चकाचौंध
और
महानगर भीड़ के वजन से
बैठ गए
उकडूं।
हांफ रहे हैं महानगर
और
एकांकी से सदमे में हैं गांव।
गांवों के गोबर लिपे
ओटलों पर
बुजुर्ग
चिंतित हैं
जवान बेटों के समय से पहले
बुढ़या जाने पर।
तनकर चलने वाला पिता
झुकी कमर वाले पुत्र को देख
अचंभित है
क्या महानगर कोई
उम्र बढ़ाने की मशीन है?
थके बेटे को खाट पर बैठाए
पिता देते हैं
कांपते हाथों पानी
और
खरखरी वाली आवाज़ में सीख
गांव लौट आओ
तुम बहुत थक गए हो।
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...