फ़ॉलोअर

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

साइकिल से साइकिल तक

 

ये कैसा चक्र है

हम साइकिल से 

विकास के शीर्ष पर पहुंचे

आकाश नापा

समुद्र के तल को छू लिया

चंद्रमा की सतह पर पैर रखे

और 

लौटकर 

दोबारा साइकिल पर ही आ गए

अब यह कहते हैं

स्वस्थ्य रहना है तो

साइकिल बेहतर है

सोचता हूं 

विकास के उस फेरे का क्या 

जो हमें 

साइकिल से लौटाकर 

साइकिल पर ही ले आया। 

अब हम बेडोल शरीर से 

चढ़ा रहे हैं

पुरानी साइकिल की चेन

पसीना पौंछते हुए 

मुस्कुरा रहे हैं।



(फोटोग्राफ गूगल से साभार )



सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

पहिया सभ्यता

आदमी ने सभ्यता को

पहिये पर रख

पहुंचा दिया है

दोबारा उसके पुरातन काल में

अब पहिया 

दोबारा लौटेगा 

बिना सभ्यता के

वह 

गढना नहीं चाहता 

दोबारा पहिया सभ्यता

पहिये पर बहुत भार है

सभ्यता के खून के धब्बे भी हैं

वह युग की पीठ पर

बंधा है

पुरातन की युगों की सजा भोग रहा है

सोमवार, 27 नवंबर 2023

कागज की नाव


कागज की नाव

इस बार

रखी ही रह गई

किताब के पन्नों के भीतर

अबकी

बारिश की जगह बादल आए

और

आ गई अंजाने ही आंधी।

बच्चे ने नाव

सहेजकर रख दी

उस पर अगले वर्ष की तिथि लिखकर

जो उसे

पिता ने बताई

यह कहते हुए

काश कि 

अगली बारिश जरुर हो। 

शनिवार, 7 अक्टूबर 2023

आदमी की पीठ पर

 खरापन इस दौर में

एकांकी हो जाने का फार्मूला है

सच 

और

सच के समान कुछ भी

यहां हमेशा 

नंगा ही नजर आएगा। 

फटेहाल सच

और

भयभीत आदमी

एक सा नजर आता है।

आदमी की पीठ पर

आदमीयत है

और पर

हजार सवाल। 

भयभीत आदमी हर पल 

हो रहा है नंगा।

नग्नता 

इस दौर में 

खुलेपन का तर्क है। 

तर्क और अर्थ के बीच

आम आदमी

खोज रहा है 

अपने आप को

उस नग्नता भरे माहौल में। 

एक दिन

पन्नों पर केवल 

नग्नता होगी

तर्कों की पीठ पर 

बैठ 

भयभीत और भ्रमित सी। 

तब

आम आदमी

नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे 

छिपी नपुंसकता को

छलनी-छलनी हो जाने तक। 

आम आदमी

कई जगहों से फटा हुआ है

उधड़ा सा

अकेला 

और 

गुस्सैल। 


शनिवार, 23 सितंबर 2023

नदी से रिश्ता

 


नदी किनारे नरम रेत पर

अब भी चस्पा है

बचपन

और

मेरी अबोध उम्र के निशान।

नदी भी तब

अबोध हो जाया करती थी

बार-बार

मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार

लहरों में खिलखिलाती थी।

किनारा कच्चा था

लेकिन 

नदी से उसका रिश्ता 

मजबूत था

कभी भी नदी ने 

उस किनारे को पीछे नहीं धकेला

हर बार

उसे छूती हुई 

गुजर जाती।

उस किनारे कहीं 

नदी की रेत में 

एक घरोंदा बनाया था

जो आज तक 

है

मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।

मेरे पदचिन्ह 

नदी के मुहाने तक चस्पा हैं

उसके बाद नदी है

नदी है

और 

मेरी आचार संहिता।


गुरुवार, 14 सितंबर 2023

नमक होती जा रही है नदी

 तपिश के बाद

नदी की पीठ पर

फफोले हैं

और 

खरोंच के निशान

हर रात

खरोंची जाती है

देह 

की रेत 

रोज हटाकर 

खंगाला जाता है

गहरे तक.

हर रात 

ऩोंची गई नदी

सुबह दोबारा शांत बहने लगती है

अपने जख्मों में दोबारा

रेत भरती है.

नदी की आत्मा 

तक 

गहरे निशान हैं

छूकर देखिएगा

नदी रिश्तों में नमक होती जा रही है.

एक दिन 

खरोंची नदी 

पीठ के बल सो जाएगी 

हमेशा के लिए

तब तक हम 

सीमेंट से जम चुके होंगे

अपने भीतर पैर लटकाए.

रविवार, 10 सितंबर 2023

ताकि बारिश होती रहे



रिसता रहा 
कच्चा घर 
टपकती रही
छत 
वह बचाती रही 
सोते हुए बच्चों को
ढांकती रही 
घर का जरूरी सामान
भीग चुकी चादर मोड़कर 
लगाती रही पोंछा
चूल्हे के ऊपर बांध दी तिरपाल
बचाती रही 
घर की दीवार पर टंकी
यादों को
बच्चों की किताबों को
घर में रखे मुट्ठी भर राशन को
घर की ओर झुकती दीवार पर 
देती रही भारी सामान का टेका
कवेलूओं को लाठी से खिसकाकर
रोकती रही 
घर का खतरा
जद्दोजहद के बाद
घर के दरवाजे
खोल 
थकी सी बाहर निकली
झुककर किया 
बारिश को प्रणाम
कहा 
खूब बरसो 
ताकि फल फूल सके धरती,जीव और इंसान...

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...