कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022
सूख जाएं कहीं कुछ पल

मंगलवार, 18 जनवरी 2022
रंगमंच पर बहुरूपिये सा
उत्सव सा
आदमी
हर पल
समय की पीठ पर
उदय और अस्त होता है।
रंगमंच पर
बहुरूपिये सा
मुखौटे में
रोता, हंसता, चीखता
आदमी
दरक जाता है
आदमियत की दीवार सा
टूट जाता है
कई जगहों से।
रंगों को चेहरे पर मलता
स्याह आदमी
पूरा जीवन
कुछ नहीं खोजता
केवल
अपने आप को
भीड़ में टिमटिमाता
पाने की जिद में
भागता रहता है
अपने आप से
कोसों दूर
किसी अपने तरह के
आदमी की खोज में
समय की पीठ पर
गुलाबी पैरों की
छाप छोड़ता
बदहवास आदमी।
दरकता आदमी
धूल की दीवार है
जिसमें
केवल सच है
टूटन है
और
सख्त जमीन।

रविवार, 2 जनवरी 2022
ये तो रंगरसिया
परों से
उड़ती है तितली
तब जाकर
पाती है
फूलों का प्रेम
और
जीवन का रस।
धूप सहती है
नुकीले कांटे भी
रोकते हैं राह
बचती
खिलखिलाती
फूलों के मन को
छू ही लेती है
क्योंकि भरोसा अपनी पीठ पर
रोज रखती है
उड़ने से पहले तितली।
आसमान
छूना
और आसमान पर बने रहना
ऐसी कोई ख्वाहिश
नहीं रखती
ये तो
रंगरसिया है
रंगों में जीती
रंगों से जीवन को सीती
यूं ही भरती है कई
उड़ान।
कभी दूसरी तितली का नहीं करती
प्रतिकार
क्योंकि
जानती है
ये बागान
उनकी उड़ान
और
रंगों से उत्साह पाता है
जीवन पाता है।
सीख लें..
कि
शिकायत नहीं करती
परों के टूटने पर
खामोशी से तिनकों पर
सिर रख सी लेती है
परों के घाव..।।
सीख लें
मनबसिया से
खुशबू सहेजना
और उसे बांटना सभी के बीच
खिलखिलाते हुए....।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021
स्याह तस्वीर

रविवार, 19 दिसंबर 2021
उम्र और सांझ

शनिवार, 4 दिसंबर 2021
पीला समय
उम्र के कुछ पन्ने
बहुत सख्त होकर
सूखे से
दोपहर के दिनों
की गवाही हैं..।
सूखे पन्नों पर
अनुभव का सच है
जो उभरा है अब भी
उन्हीं सूखे पन्नों
के खुरदुरे शरीर पर।
पन्ने का सूख जाना
समय का पीलापन है
शब्दों का नहीं।
समय
सिखा रहा है
अपनी खुरदुरी पीठ
दिखाते हुए
खरोंच के निशान
जो
दिखाई नहीं देते
दर्द देते हैं।
उम्र का हरापन
भी जिंदा है
शब्दों
की मात्राओं के शीर्ष पर
अभी पीला नहीं हुआ है।
हरे से पीले हो जाने में
कुछ नहीं बदलता
बस
एक उम्र सख्त होना सिखा जाती है।
पीले पन्नों की किताब में
अभी कुछ श्वेत हैं
अनुभव का
खिलखिलाता हरापन
लिखना चाहता हूँ
उन पर।
देख रहा हूँ
पीले पन्नों में
अनुभव के कुछ शब्द
घूर रहे हैं
वे
अब भी सहज नहीं हैं।
(फोटोग्राफ /गजेन्द्र पाल सिंह जी...। आभार)

मंगलवार, 30 नवंबर 2021
जिस्म से नमक खरोंच कर
ये
दुनिया
एक खारी नदी है
और हम
नमक पर
नाव खे रहे हैं।
नदी का नमक हो जाना
आदमी के खारेपन
का शीर्ष है।
नदी और आदमी
जल्द
अलग हो जाएंगे
नदी
नमक का जंगल होकर
रसातल में समा जाएगी
और
आदमी नाव में
नदी के जिस्म से
नमक खरोंच कर
ठहाके लगाएगा..।
नमक
नदी
और
आदमी
आखिर में
एक हो जाएंगे।
तब
नाव होगी
पतवार पर
कोई
नया पंछी बैठेगा
जो
दूसरी दुनिया से आकर
खोजेगा
नदी
आदमी
और जीवन।
क्या हमें
नदी को
नमक होने से बचाना चाहिए
और
खरोंचे जाने चाहिए
अपने पर जमे नमक के जिद्दी टीले...।

अभिव्यक्ति
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...
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यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
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नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
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सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...