कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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बुधवार, 9 जून 2021
ओ री जिंदगी...सुन तो सही

सोमवार, 7 जून 2021
आपदा वाले शहर का डर
खिड़की से
झांकती वृद्धा
की कमजोर आंखें
टकटकी लगाए है
बादलों पर।
कानों
में गूंज रही है
आपदा से बचाव के लिए
शोर मचाती
समाचार वाचिका।
तूफान आने को है
सूखी आंखों में
चिंता की
गहरी धूल
पट चुकी थी
रेतीला तूफान तो
आ चुका...।
दरवाजे की
बंद कुंडी
पर बार-बार
थरथराता हुआ हाथ
उसे परख रहा था।
कभी बच्चों के सिर पर
हाथ फेरती
वो कहती
देखना
ये सब झूठ है
ये समाचार वाले
भगवान थोड़े ही हैं
कुछ भी कहे जा रहे हैं।
हमारा घर मजबूत है
तुम्हारे दादाजी ने
अपने हाथों
इसकी ईंट जोड़ी हैं।
फिर अगले पल
खिड़की की झीरी से
बाहर झांकती।
वो देखो
मैं
कहती थी
सभी बादल काले कहां हैं
बीच में एक सफेद भी है।
तभी टीवी पर आवाज़
तेज हो जाती है
अब तूफानी हिस्से में
हवा चलने लगी है
वृद्धा दौड़कर
खिड़की के सुराख पर
रखती है ऊंगलियां।
कहां है हवा
हां थोड़ी है तो
लेकिन
ऐसी तो रोज होती है
फिर
आवाज़ गूंजती है बस
कुछ देर में
तूफान आने वाला है
हम आपको देते रहेंगे
हर पल की खबर।
वृद्धा अबकी चीखती है
बस...बंद कर दे इसे
और
डर सहा नहीं जाता
आने दो तूफान को
वो इस
डर के बवंडर से
बड़ा नहीं होगा...।
वृद्धा बच्चों को
कलेजे से लगाए
एक जगह बैठ
कहती है
देखना
तुम्हारे दादाजी का
घर बहुत मजबूत है
कई तूफान झेले हैं
हमने भी...।
कुछ खामोशी
फिर
हवा तेज होती गई
वृद्धा की
आंखों की धूल
नमक हो कोरों
पर जम गई।
भय
आंखों की कोरों से बहकर
जमीन पर आ गिरा
अब बच्चे
उन आंसुओं को
ये कहते हुए पोंछ रहे थे
तुम सच कहती थीं
ये
मकान दादाजी ने
अपनी मेहनत से बनाया है
देखो हमें कुछ नहीं हुआ
हम
तूफान
को हराकर जीत गए।

शुक्रवार, 4 जून 2021
...क्योंकि वन्य जीव श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकते
अक्सर हम
जंगल की मानवीय भूल पर
क्रोधित हो उठते हैं
जंगल से हमारी आबादी में
जंगली जीव की आदम
को
पलक झपकते ही
करार दे देते हैं
हिंसा
और उसे हिंसक।
कभी
जंगल जाईयेगा
पूछियेगा
कटे वृक्षों से
शिकार होकर
मृत
वन्य जीवों की अस्थ्यिों के ढांचों से
हमारी आबादी की प्यास से सूख चुके
जंगल के
तालाबों, नदियों से
जंगल के धैर्य से
हमारे पैरों खूंदी गई
वहां की
लहुलहान आचार संहिता से
कि क्या कोई
शिकायत है
उन्हें मानव से...?
जवाब यही आएगा
नहीं
वो तो इंसान है
जानवर नहीं
क्योंकि जानवर तो
जंगल में रहते हैं।
आखिर
जंगल
सभ्य और हमारी बस्ती
असभ्य क्यों हो रही है।
जंगल आखिर
बहुत दिनों तक
जंगल नहीं रहने वाला
क्योंकि
जंगल की छाती पर
सरफिरे
अब शहर गोद आए हैं।
जंगल
अब शहर होगा
क्योंकि
जंगल
भयाक्रांत है
कट रहा है
सूख रहा है
अस्थियों में बिखर रहा है
और
हमारे यहां वह
साजिश में उग रहा है।
अबकी जंगली जीव को
हिंसक लिखने से पहले
सोचियेगा कि
कौन
अधिक हिंसक है
और
किसके घर में कौन दाखिल हुआ
और
किसके मन में
हिंसा का जहर है।
आखिर
हमारे यहां आते ही
उसे
मार दिया जाता है
क्योंकि वह
हिंसक है
हम जंगल में दाखिल हों
तब
उसका हमला
भी हिंसा है
क्योंकि
वह रख नहीं सकता
अपना पक्ष
वह
जारी नहीं कर सकता
कोई श्वेत पत्र
अपनी और अपनों की मौतों पर।
- अक्सर खबरों में देखता हूं कि जब भी कोई वन्य जीव शहरी आबादी में आता है तब उसे हिंसक करार दे दिया जाता है, लोग उससे भयभीत हो उठते हैं, ये सच है कि वन्य जीव की जगह शहर नहीं जंगल है...तब क्या आदमी की जगह जंगल है...क्या चाहिए उसे जंगल से, क्यों खेल रहा है वह जंगल से...ये नकाबपोश आदमी अपने जंगल से भाग रहा है क्योंकि यहां जीवन मुश्किल हो गया है...ये कविता अंदर उठी चीखों से है कि क्यों हम उन्हें उनका जंगल नहीं लौटा देते...क्यों आएगा कोई अपना घर छोडकर...। सोचियेगा...
संदीप कुमार शर्मा,
संपादक, प्रकृति दर्शन, मासिक पत्रिका

नदी सवाल करती है
नदी
कह रही है
प्राण हैं
उसमें
जो तुम्हारे
प्राण की भांति ही
जरूरी हैं।
नदी
सवाल करती है
क्यों
मानवीयता का
चेहरा
दरक रहा है।
नदी के शरीर की
ऊपरी सतह
की दरकन
अमानवीय
आदमियत है।
गहरी
दरकन
भरोसे और रिश्ते
की चटख
का
परिणाम है।
नदी किनारे
अब
अक्सर सूखा
बैठा मिलता है
नदी
उसे भी
साथ लेकर
चलती है
समझाती है
मानवीय भरोसे
के
पुराने सबक।
नदी चाहती है
उसके
प्राण
की वेदना
पर
बात होनी चाहिए
पानीदार आंखों
की
सूखती
पंचायतों के बीच...।

बुधवार, 2 जून 2021
प्रारब्ध
रात
तुम और ये कायनात
सच
एक अजीब सा
रिश्ता है
कोई
कुछ नहीं कहता।
सबकुछ
कह जाने की
व्याकुलता
गूंजती है
फिर भी
हमारे बीच।
बहुत ऐसा है
जो
बांध रहा है
हमें
कहीं किसी नजर
का कोई प्रश्नकाल।
कोई है
जो जाग रहा है
हम तीनों में
होले से
झांकता हुआ
मन
की अधखुली खिड़की
से आती
मीठी वायु में
उसके एक
पल्ले पर सिर
टिकाए।
हां
हम सभी चिंतित हैं
रिश्तों से रिसते
भरोसे पर
सूखते हरेपन पर
मौन की
चीख पर
दांत कटकटाते
अकेलेपन पर।
हां
हम
खुश हैं
सबकुछ समाप्त होने के बीच
तिनके जैसे शेष
उस सूखे पेड़ पर झूलते
भरोसे पर।
हां
हम उदास हैं
निराश नहीं हैं
क्योंकि
हम, तुम और ये कायनात
ही सच है
एक प्रारब्ध है।
फोटोग्राफ-विशाल गिन्नारे

मंगलवार, 1 जून 2021
इस जंगल में
सुबह
कब आएगी
बादलों के फटे आंचल में
कहीं
उम्मीद
जब्त है
झांक रही है।
धरती पर
किस्मों की
भीड़ है
आदमी और आदमी
के बीच
एक
रेखा है महीन
बहुत महीन
जो सुलग रही है
दहक रहे हैं
आदमी।
विचारों में
एकांकीपन का जंगल है
जंगल में
भटक रहे हैं शरीर।
पत्थरों का युग
लौट आया है
आदमी
आदमी के बीच
महत्वाकांक्षा की
रेत तप रही है
रेत के बहुत नीचे
पीढ़ी
तप रही है इस जंगल में।
पीढ़ी
के अब
कान बड़े हैं
वो फुसफुसाहट से
अंकुरित हुई है।
अब धरती के
ऊपर
और
नीचे
केवल जंगल है
शरीरों का
दूषित
वैचारिकता का स्याह जंगल।
सुबह
अब सदी के बाद
आएगी।

रविवार, 30 मई 2021
बहुत सा बाकी है अभी
कितना सबकुछ
छूट जाता है ना पीछे
समय के साथ।
मां की गोद
उसका वो
अकेले क्षणों का दुलार।
चिंता वाली
वो सलवटें
जो माथे पर
अगले ही पल सुस्ताने लगतीं
खुशी से
हमें ठीक पाकर।
हमें पहले पहल
पैरों चलाने वाली
वो उंगली।
वो घर का दालान
जिसे हम पहली बार
करते हैं पार।
मां
के हाथ का अचार
उसका स्वाद
वो
स्वाद और मां के भरोसे
वाली बरनी।
सच कितना सबकुछ छूट जाता है
वो पहला
बस्ता
पहली
सिलेट
पहली कलम
पहली
कापी
जिस पर हमने उकेरी थीं
पहली बार
मनचाही लकीरें
जिन्हें
सीधा करना सिखाया था
रसोई से थककर
अक्सर आ बैठने वाली पसीना पोंछती
मां ने।
वो
रंग
वो कपडे
जो मां ने दिलवाए थे
अपनी पसंद के
हम बड़े हो गए
कपडे
अब भी मां की
उम्मीद पर
खरे उतर रहे हैं
वे छोटे ही हैं
अब बचपन की यादें उन्हें
पहना करती हैं।
सच कितना सबकुछ छूट जाता है
पीछे
गलतियों पर
मां
का कवच हो जाना
पिता
के सामने आकर
अक्सर बचाना
अकेले में बैठकर
रिश्तों को समझाना
गलती पर डांटना
पिता के नेह सागर मन तक
हमें पहुंचाना
दोबारा गलती न करने का
अहसास करवाना
पिता और हमारे बीच
अक्सर सेतु बन जाना।
कितना सबकुछ पीछे छूट जाता है
रात तक मां के जागने पर
कभी कभी खुलने वाली हमारी पलकें
और
उनमें छिपी चिंता।
सफलता के पहले ही
अलसुबह
गूंथकर बनाए गए
बेसन के लड्डू
जो
भरोसे पर खरे उतरते
ही थे।
गर्व से बाजू में बैठकर
हमारी समझदारी भरी बातें
सुनकर
मन ही मन उसका मुस्कुराना।
अब
हमें लगता है हम समझदार हो गए
और
जिम्मेदारियां हमें दूर ले आईं
बहुत दूर।
अब
मां
बूढ़ी
उम्रदराज होकर
अकेले ही सहलाती है
अपने शरीर की
सख्त झुर्रीदार त्वचा को
ये कहते हुए कि
छोटा आया नहीं बहुत समय हुआ अब तक
पूछना तो अबकी कब लौटेगा।
वो खुश हो जाती है
केवल आवाज सुनकर
वो
जी उठती है
केवल देखकर।
वो सी लेती है
पता नहीं कैसे
अब भी इस उम्र में
उस पुराने और इस नये
वक्त के
बदलावों से
रिश्तों में आने वाली उधड़न को।
मां के पास अब भी है
वो
नेह भरा जादू
जो
पढ़ लेता है
अक्सर
हमें
हमारे जीवन
हमारी उलझनों
हमारे
अनकहे सच को।
वैसे
मां अक्सर कहती है
बेटा
अब दिखाई कम देने लगा है
ये
आंखें
बनवानी पड़ेंगी दोबारा
और मैं
मुस्कुरा देता हूं
उससे लिपटकर
जब भी
होता हूं उसके करीब।
बहुत सा
बाकी है अभी
जो
मां के पास ही मिलता है
मां
से ही मिलता है
अक्सर मां
पिता हो जाती है
पिता के जाने के बाद।

समय की पीठ
कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में चुप्पी में है। अधनंग भागते समय की पीठ पर सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...
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नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
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यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
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सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...