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गुरुवार, 10 जून 2021

मेरी बच्ची ये सब संजो लेना











तुम्हारे

बचपन ने देख लिए हैं

जंगल, नदी, पेड़

और

उनमें समाई खुशियां।

तुमने

देख ली है

प्रकृति की दुशाला

कितनी कोमल होती है।

तुमने देखा है

नदियां बहती हैं

कल कल।

तुमने देखा है

पक्षी

छेड़ते हैं

मौसम की तान।

तुमने देखा है

बारिश और अमृत बूंदों का

वो पनीला संसार।

तुमने महसूस की है

हवा की पावनता।

तुमने

देखा है उम्रदराज

पेड़ों पर

तितली और चीटियों

का मुस्कुराता जीवन।

तुमने

सुना है हवा से

पेड़ कैसे बतियाते हैं।

मेरी बच्ची

तुम ये सब

संजो लेना अपनी

यादों में।

कल बचपन नहीं होगा

तुम्हारा

लेकिन

जीवन की दोपहर

आएगी

और साथ आएगा

सूखापन लिए

दांत कटकटाता भविष्य।

तब तुम

यादों की किताब

के पन्ने

करीने से पलटना

क्योंकि तब तक

संभव है

यादों में भी आ जाए

उम्र का पीलापन।

बस ध्यान रखना

यादें पीली होकर

जीवित रहती हैं

बस सूखने पर

खत्म हो जाया करती हैं...। 

बुधवार, 9 जून 2021

ओ री जिंदगी...सुन तो सही











जिंदगी का फलसफा भी
अजीब है
जो मुस्कुराते हैं
वह अंदर से
दुखी
माने जाते हैं
जो
मौन रहते हैं
उन्हें
विचारों का प्रवाह
प्रखर
बना देता है
जो
कहना जानते हैं
उनकी बात
बेमानी है
जो
मन में दबाते हैं
उनकी
सब सुनना चाहते हैं
मेवे
वे बेचते हैं
जिन्हें
सब्जी भी
मिल नहीं पाती।
सोचता हूँ
कैसी
दुनिया है
हंसने बगीचे जाती है
घर को
उलझनों
की भेंट चढ़ाती है।
पढ़े लोग
श्रोता होते हैं
अनपढ़
और
उलझे लोग
जीवन दर्शन पर
बहस का हिस्सा हैं।
सोते शरीर हैं
जागता केवल
दिमाग है
भूखे
सूखी रोटी खाकर
नंगे
पाईपों में
ठहाके लगाते हैं
समृद्ध
विचारों की संकरी
पाईप
में
बदहवास से
उम्र बिता देते हैं।
किसी मोटे पेट वाले ने
अधनंगे बच्चे को देखकर
उसे घूरकर देखा
और
गहरी खाई में
धकेलना चाहा
वो अधनंगा
लड़का
ठहाके लगाकर
नाचने लगा।
सोचिए
जिंदगी हार रही है
या
हम
जिंदगी हार रहे हैं।
बचपन के बाद
कभी नहीं हंसते
अब
हर पल
हम
अपने जंजाल में
खुद फंसते हैं
और
फंसते जाते हैं।
जिंदगी
की भोर
से
सांझ तक का सफर
बिना
जीये ही बिता लिया
जब
लाठी वाली
रात
दांत कटकटाती है
तब जिंदगी का भूगोल
इतिहास में
तब्दील हो जाता है...।

सोमवार, 7 जून 2021

आपदा वाले शहर का डर

 















खिड़की से

झांकती वृद्धा

की कमजोर आंखें

टकटकी लगाए है

बादलों पर।

कानों

में गूंज रही है

आपदा से बचाव के लिए

शोर मचाती

समाचार वाचिका।

तूफान आने को है

सूखी आंखों में

चिंता की

गहरी धूल

पट चुकी थी

रेतीला तूफान तो

आ चुका...।

दरवाजे की

बंद कुंडी

पर बार-बार

थरथराता हुआ हाथ

उसे परख रहा था।

कभी बच्चों के सिर पर

हाथ फेरती

वो कहती

देखना

ये सब झूठ है

ये समाचार वाले

भगवान थोड़े ही हैं

कुछ भी कहे जा रहे हैं।

हमारा घर मजबूत है

तुम्हारे दादाजी ने

अपने हाथों

इसकी ईंट जोड़ी हैं।

फिर अगले पल

खिड़की की झीरी से

बाहर झांकती।

वो देखो

मैं

कहती थी

सभी बादल काले कहां हैं

बीच में एक सफेद भी है।

तभी टीवी पर आवाज़

तेज हो जाती है

अब तूफानी हिस्से में

हवा चलने लगी है

वृद्धा दौड़कर

खिड़की के सुराख पर

रखती है ऊंगलियां।

कहां है हवा

हां थोड़ी है तो

लेकिन

ऐसी तो रोज होती है

फिर

आवाज़ गूंजती है बस

कुछ देर में

तूफान आने वाला है

हम आपको देते रहेंगे

हर पल की खबर।

वृद्धा अबकी चीखती है

बस...बंद कर दे इसे

और

डर सहा नहीं जाता

आने दो तूफान को

वो इस

डर के बवंडर से

बड़ा नहीं होगा...।

वृद्धा बच्चों को

कलेजे से लगाए

एक जगह बैठ

कहती है

देखना

तुम्हारे दादाजी का

घर बहुत मजबूत है

कई तूफान झेले हैं

हमने भी...।

कुछ खामोशी

फिर

हवा तेज होती गई

वृद्धा की

आंखों की धूल

नमक हो कोरों

पर जम गई। 

भय 

आंखों की कोरों से बहकर

जमीन पर आ गिरा

अब बच्चे 

उन आंसुओं को 

ये कहते हुए पोंछ रहे थे 

तुम सच कहती थीं

ये 

मकान दादाजी ने 

अपनी मेहनत से बनाया है

देखो हमें कुछ नहीं हुआ

हम 

तूफान 

को हराकर जीत गए।

 


शुक्रवार, 4 जून 2021

...क्योंकि वन्य जीव श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकते



 (विश्व पर्यावरण दिवस पर खास कविता...)

अक्सर हम

जंगल की मानवीय भूल पर

क्रोधित हो उठते हैं

जंगल से हमारी आबादी में

जंगली जीव की आदम

को 

पलक झपकते ही 

करार दे देते हैं

हिंसा

और उसे हिंसक।

कभी

जंगल जाईयेगा

पूछियेगा

कटे वृक्षों से

शिकार होकर

मृत 

वन्य जीवों की अस्थ्यिों के ढांचों से

हमारी आबादी की प्यास से सूख चुके

जंगल के

तालाबों, नदियों से

जंगल के धैर्य से

हमारे पैरों खूंदी गई

वहां की

लहुलहान आचार संहिता से

कि क्या कोई 

शिकायत है

उन्हें मानव से...?

जवाब यही आएगा

नहीं

वो तो इंसान है

जानवर नहीं

क्योंकि जानवर तो

जंगल में रहते हैं। 

आखिर

जंगल

सभ्य और हमारी बस्ती

असभ्य क्यों हो रही है।

जंगल आखिर 

बहुत दिनों तक

जंगल नहीं रहने वाला

क्योंकि

जंगल की छाती पर

सरफिरे 

अब शहर गोद आए हैं। 

जंगल

अब शहर होगा

क्योंकि

जंगल

भयाक्रांत है

कट रहा है

सूख रहा है

अस्थियों में बिखर रहा है

और 

हमारे यहां वह 

साजिश में उग रहा है। 

अबकी जंगली जीव को

हिंसक लिखने से पहले

सोचियेगा कि

कौन

अधिक हिंसक है

और 

किसके घर में कौन दाखिल हुआ

और

किसके मन में

हिंसा का जहर है।

आखिर

हमारे यहां आते ही 

उसे 

मार दिया जाता है

क्योंकि वह

हिंसक है

हम जंगल में दाखिल हों

तब 

उसका हमला

भी हिंसा है

क्योंकि

वह रख नहीं सकता

अपना पक्ष

वह 

जारी नहीं कर सकता

कोई श्वेत पत्र

अपनी और अपनों की मौतों पर। 

- अक्सर खबरों में देखता हूं कि जब भी कोई वन्य जीव शहरी आबादी में आता है तब उसे हिंसक करार दे दिया जाता है, लोग उससे भयभीत हो उठते हैं, ये सच है कि वन्य जीव की जगह शहर नहीं जंगल है...तब क्या आदमी की जगह जंगल है...क्या चाहिए उसे जंगल से, क्यों खेल रहा है वह जंगल से...ये नकाबपोश आदमी अपने जंगल से भाग रहा है क्योंकि यहां जीवन मुश्किल हो गया है...ये कविता अंदर उठी चीखों से है कि क्यों हम उन्हें उनका जंगल नहीं लौटा देते...क्यों आएगा कोई अपना घर छोडकर...। सोचियेगा...

संदीप कुमार शर्मा, 

संपादक, प्रकृति दर्शन, मासिक पत्रिका

नदी सवाल करती है











नदी

कह रही है

प्राण हैं

उसमें

जो तुम्हारे

प्राण की भांति ही

जरूरी हैं।

नदी

सवाल करती है

क्यों

मानवीयता का

चेहरा

दरक रहा है।

नदी के शरीर की

ऊपरी सतह

की दरकन

अमानवीय

आदमियत है।

गहरी

दरकन

भरोसे और रिश्ते

की चटख

का

परिणाम है।

नदी किनारे

अब

अक्सर सूखा

बैठा मिलता है

नदी

उसे भी

साथ लेकर

चलती है

समझाती है

मानवीय भरोसे

के

पुराने सबक।

नदी चाहती है

उसके

प्राण

की वेदना

पर

बात होनी चाहिए

पानीदार आंखों

की

सूखती

पंचायतों के बीच...। 

बुधवार, 2 जून 2021

प्रारब्ध


 

रात

तुम और ये कायनात

सच

एक अजीब सा

रिश्ता है

कोई

कुछ नहीं कहता।

सबकुछ

कह जाने की

व्याकुलता

गूंजती है

फिर भी

हमारे बीच।

बहुत ऐसा है

जो

बांध रहा है

हमें

कहीं किसी नजर

का कोई प्रश्नकाल।

कोई है

जो जाग रहा है

हम तीनों में

होले से

झांकता हुआ

मन

की अधखुली खिड़की

से आती

मीठी वायु में

उसके एक

पल्ले पर सिर

टिकाए।

हां

हम सभी चिंतित हैं

रिश्तों से रिसते

भरोसे पर

सूखते हरेपन पर

मौन की

चीख पर

दांत कटकटाते

अकेलेपन पर।

हां

हम

खुश हैं

सबकुछ समाप्त होने के बीच

तिनके जैसे शेष

उस सूखे पेड़ पर झूलते

भरोसे पर।

हां

हम उदास हैं

निराश नहीं हैं

क्योंकि

हम, तुम और ये कायनात

ही सच है

एक प्रारब्ध है।

 

फोटोग्राफ-विशाल गिन्नारे


मंगलवार, 1 जून 2021

इस जंगल में


 

सुबह

कब आएगी

बादलों के फटे आंचल में

कहीं

उम्मीद

जब्त है

झांक रही है।

धरती पर

किस्मों की

भीड़ है

आदमी और आदमी

के बीच

एक

रेखा है महीन

बहुत महीन

जो सुलग रही है

दहक रहे हैं

आदमी।

विचारों में

एकांकीपन का जंगल है

जंगल में

भटक रहे हैं शरीर।

पत्थरों का युग

लौट आया है

आदमी

आदमी के बीच

महत्वाकांक्षा की

रेत तप रही है

रेत के बहुत नीचे

पीढ़ी

तप रही है इस जंगल में।

पीढ़ी

के अब

कान बड़े हैं

वो फुसफुसाहट से

अंकुरित हुई है।

अब धरती के

ऊपर

और

नीचे

केवल जंगल है

शरीरों का

दूषित

वैचारिकता का स्याह जंगल।

सुबह

अब सदी के बाद

आएगी।

समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...