कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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रविवार, 1 अगस्त 2021
अहा ये जिंदगी

शनिवार, 31 जुलाई 2021
एक घर सजाते हैं
सुनो ना...
एक घर सजाते हैं
दहलीज पर
सपने बिछाते हैं
छत पर
सुखाते हैं कुछ
थके और सीले से दिन।
बाहर
बरामदे में
आरामकुर्सी पर
लेटा आते हैं
उम्मीदों को
इस उम्मीद से कि
उन्हें एक उम्र को
सजाना है खुशियों से।
घर के दीवारों पर
कीलें नहीं लगाएंगे
क्योंकि
वहां
हम खुशियों को जीते
अपने रंग
सजाना चाहते हैं
खुशियों और रंगों में क्या कोई कील
अच्छी लगती है भला
वो भी जंक लगी
अंदर तक भेदती जिद्दी कील।
घर की खिड़की पर
हम
बैठाएंगे
तुलसी का पौधा
जो
हवा से
बात करते हुए
समझता रहेगा
कि यह घर
तुम्हारा
सुखद अहसास चाहता है।
छत पर हम
कोई सफेद सा
सच बांध देंगे
ताकि
हमें दिखाई देता रहे
वह सच
कि दुनिया में
सबकुछ सफेद कहां होता है।
रसोई में
हम मिलकर
सजाएंगे
कुछ कांच की पारदर्शी बरनी
जिससे
झांकते रहे
तुम्हारे नेह से भीगे
अचार की
गुदगुदी सी खटास
जो
घोलती रहे
ताउम्र मिठास।
घर के बरामदे में
लगाएंगे एक नीम
पीपल
और
आंवला
ताकि
उम्र की थकन तक
हम सहेज लें
अपने हिस्से के वृक्ष
जो
देते रहें हमें
उनकी अपनी श्वास।
दरवाजे पर
हम
गौरेया लिख देंगे
जानता हूं
तुम मुस्कुरा उठोगी
लेकिन
सच तो है
वह आकर्षण का नियम
और
गौरेया का लौटना।
हम छत पर
रखेंगे
कुछ
सकोरे उम्मीद के
जहां
प्यासे पक्षी चोंच डुबोकर
नहाएंगे
और
हमारे ही आंगन बस जाएंगे।

बुधवार, 28 जुलाई 2021
जिंदगी जहाज होती है

मंगलवार, 27 जुलाई 2021
जिंदगी मुस्कुरा उठेगी

शनिवार, 24 जुलाई 2021
उनका जंगल...हमारा जंगल

मंगलवार, 20 जुलाई 2021
मैंने देखा है तुम्हें तब भी
मैंने देखा है अक्सर
तुम्हें
तब बहुत करीब से
जब
तुम
अक्सर थककर सुस्ताती हो
और सोचती हो पूरे घर को
थकी हुई रात के बाद
अगली सुबह के लिए।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब उम्र के थक जाने के निशान
तुम्हारे
चेहरे पर
तब गहरे हो जाते हैं
जब देखती हो तुम
काले बालों के बीच
एक या दो सफेद बाल
जिन्हें तुम
आसपास देखकर
चुपचाप छिपा लेती हो
काले बालों के नीचे।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब कोई नहीं उठता
तब
सबसे पहले तुम्हारी टूट जाती है नींद
अक्सर
जिम्मेदारियों को पूरी रात बुनते हुए।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब अक्सर थकी हुई तुम
पूरे घर से आसानी से छिपा लेती हो
अपना दर्द, अपनी पिंडलियों की सूजन।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब कोई भागते हुए
ठहरकर पूछ लेता है
तुम्हारे आंखों के नीचे
गहरे होते काले घेरों के बारे में
और तुम मुस्कुरा देती हो।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब अक्सर
देर रात तक जागती रहती हो
और
दालान पर
नींद को रखकर
लेटी रहती हो बिस्तर पर
आहट पाते ही
सबसे पहले पहुंचती हो
और
बच्चे को गले से लगाकर
कहती हो
देर मत किया करो
मैं
सो नहीं पाती।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब मैं अक्सर थक जाता हूं
और तुम भी
तब अक्सर होले से
तुम मेरे
माथे पर रखती हो हथेली
कहती हो
परेशान मत होना
सब ठीक हो जाएगा।
यकीन मानो
तुम्हारा स्पर्श
मैं गहरे तक महसूस करता हूं
मैं केवल मुस्कुरा देता हूं
यह कहते हुए
कि
रख लिया करो
तुम भी अपना ध्यान
इस भागती जिंदगी में।
मैं
इससे अधिक कहता नहीं
तुम
समझ जाती हो
कि
अक्सर
बहुत कुछ है
जो मैं कहना चाहता हूं
लेकिन
कहता नहीं
क्योंकि
जानता हूं
यह घर ही है
जो तुम्हें थकने नहीं देता
यह घर
हां
जिम्मेदारियों को अक्सर
ओढ़कर सो जाना
और
सुबह
उन्हें लिहाफ के साथ लपेटकर
अलमारी में रख देना
आसान नहीं होता।
मैं तुम्हें देखता हूं
और
जीता हूं
क्योंकि
तुम्हारे हर दर्द की कसक
पहले मुझे
अहसास करवाती है
कि
हम जिम्मेदार हो गए हैं
और
उम्रदराज़ भी।

शनिवार, 17 जुलाई 2021
आदमी के दरकने का दौर
मुझे थके चेहरों पर
गुस्सा
नहीं
गहन वैचारिक ठहराव
दिखता है।
विचारों का एक
गहरा शून्य
जिसमें
चीखें हैं
दर्द है
सूजी हुई आंखों का समाज है।
थके चेहरों पर
पसीने के साथ बहता है
अक्सर
उसका धैर्य।
घूरता नहीं
केवल अपने भीतर
ठहर जाता है
अक्सर।
सफेद अंगोछे में
कई छेद हैं
उसमें से
बारी बारी से झांक रही है
बेबसी
और
उन चेहरों पर ठहर चुका
गुस्सा।
जलता हुआ शरीर
तपता है
मन तपता है
विचार से खाली मन
और अधिक तपता है
सूख गया है आदमी
आदमी के अंदर
उसकी नस्ल की उम्मीद भी।
यह
दौर आदमी के दरकने पर
आदमी के मुस्कराने का भी है।
यह दौर
दरकते आदमी
का भूगोल कहा जाएगा।
मैं बचता हूं
ऐसे चेहरों को देखने से
क्योंकि वह
देखते ही चीखने लगते हैं
और
कहना चाहते हैं
अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।
चीखते चेहरों के समाज का मौन
अक्सर
बेहद खौफनाक होता है।

अभिव्यक्ति
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...
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यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
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नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
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सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...