फ़ॉलोअर

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

भोर होने वाली है

दिन स्याह हैं

कड़वे हैं

कंठ भिंच रहे हैं

रात की कालिख

पूरे दिन पर सवाल

उकेर रही है

दूर

बहुत दूर

कोई खूबसूरत सुबह

रात की निराशा को

चीरकर

बढ़ रही हमारी ओर

देखो इंतजार करो

भोर होने वाली है






सोमवार, 9 अगस्त 2021

वह रोटी, वह भूगोल

झुलसे से समाज में

रोटी का आकार बेशक सभी के लिए 

गोल हो सकता है।

झुलसे से एकांकी घर में

रोटी की रंगत

अनेकानेक

स्याह सी ही होती है। 

भूखे पेट

और 

उनकी अंतड़ियों के बीच

कोई भूगोल

नहीं होता

केवल

भूख ही भाषा 

और

सर्वव्यापी परिभाषा होती है।

यहां आंखों की कोरों में नमक

अब सवाल कहा जाता है। 

भूख अक्सर

बस्तियां में नग्नावस्था में घूमती है

कच्चे घरों में

बच्चों के चेहरे

भी रोटी जैसे हो जाते हैं

गोल और बहुत स्याह।

भूखे लोग

सवाल नहीं करते

रोटी मांगते हैं

और 

रोटी को ही वह

सवाल कहते हैं।

समाज के चेहरे पर

अब

दर्दशा की झुर्रियां हैं

जिन्हें

लेकर 

वह अब

डरता है 

उन गरीब बस्तियों में जाने से

उसे भय सताता है

कहीं

बच्चे भूख और रोटी के भूगोल को

एक न कर दें

और कहीं

कोई झुलसी की जिद

लेप न दे

चेहरे पर 

सवालों का स्याह घोल। 

बस्तियों में आज भी

घर टपकते हैं

बच्चे नंगे घूमते हैं

नालियों के किनारे जलते हैं चूल्हे

अब भी बारिश का भय

खाली पाइपों में 

ले जाता है भयभीत चेहरों को

यह दिखाने की 

जिंदगी केवल रिसती नहीं है

वह

कभी कभी

पूरा का पूरा

बहा ले जाती है

अपनी जिद में

और 

दूर टापू पर खड़ा कोई समाज

हिज्जे लेकर 

हलकाला हुआ चीखता सा कहता है

बचा लो कोई उन्हें

देखो वहां भी बस्ती है

वहां भी कोई तो उम्मीद बसती है...।

डूबी बस्ती की 

सूखी पीठ पर 

बेशर्मी के आश्वासन चिपटा दिए जाते हैं

और

अगली बार उन्हीं को नोंच नोंचकर

गरीब

चूल्हे जलाकर रोटी बना लेते हैं।

भूखों 

की बस्ती में

आश्वासन की 

न जमीन होती है

न ही आसमान

हां होता है तो केवल

एक खूबसूरत फरेब। 

 

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

रोपिये ना दोबारा मुट्ठी भर सावन

सावन बरसता था

जब 

लगता था जैसे

मन

और 

घर

मनाने को उत्सुक हैं 

रक्षा का कोई पर्व।

संदेश के साथ

चिठिया में भेज दिया जाता था 

बहन 

को बचपन

बेटी

को 

दुलार। 

सावन 

की पहली फुहार से ही

पूरा घर

दरवाजे की

चौखट के सिराहने  

रख देता था

अपनी आंखें

इंतजार में अपनी दुलारी के।

चिठिया पाकर

उतावली सी

बहना

बतियाती थी सावन से

भादो तक 

जाना है घर

जिनके संग

जीया है बचपन

सीया है जीवन

पीया है दर्द

और

लिया है 

सभी को खुश रखने का संकल्प।

सावन देखता था

बहन की आंखों में सूखे इंतजार को

और

भीगी चिठिया पाकर

चहक उठती थी

पिया के घर

से 

जाने को 

बाबुल के दर।

आंगन की चौखट पर 

सजी आंखें

दूर से देख लेती थीं

बहन को

उसकी आहट को

उसके घर में कदम रखते ही

सफल हो जाता था

सावन का आना

भादो में ढल जाना।

रिश्तों  के मर्म में देखो 

अब कहां है

और कितना है

सावन

कितना है

भादो 

और कितना है 

इंतजार...।

अब 

रोपिये ना दोबारा

मुट्ठी भर सावन

इस धरा में

मुट्ठी भर

रिश्ते

अपनों के बीच

और 

मुट्ठी भर 

यादें बचपन की

जो

सावन बन जाएंगी

तब

आंखें नहीं बरसेंगी

केवल

बरसेगा सावन और भादो। 





गुरुवार, 5 अगस्त 2021

...हां क्रोध ऐसा ही तो होता है

 





















क्रोध केवल क्रोध है
अपलक धधकता हुआ समय।
विचारों की शिराओं में
सुर्ख सा एक चिलचिलाता प्रवाहवान द्रव्य।
बेनतीजतन इरादों का गुबार
एक बेतरतीब सी जिद।
हार का कुतर्कसंगत चेहरा
झुंझलाहट का बदरंग कैनवस।
सुलेख की किताब का फटा हुआ आखिर पन्ना
जीत के चेहरों के बीच तपे जिस्म सा
हां क्रोध ऐसा ही होता है।
 


मंगलवार, 3 अगस्त 2021

हम साक्षी नहीं होना चाहते

 तुम्हारा साथ

पौधों के नेह जैसा ही है

गहरे से अंकुरण 

गहरे से अपनेपन

और 

गहरे से भरोसे की चाह

और

उस पर 

हरीतिमा बिखेरता हुआ। 

हम

और तुम

साक्षी हैं

धरा पर बीज के

बीज पर अंकुरण के

अंकुरण पर पौधा हो जाने के कठिन संघर्ष के 

पौधे के वृक्ष बनने के कठिन तप के

उस पर गिरी बूंदों के

ठंड में ठिठरुती उसकी पत्तियों की आह के

गर्मी में झुलसते 

उसके सख्त बदन के पत्थर हो जाने के

और

उस वृक्ष पर 

घौंसले बनाकर बसने वाले

चुबबुले परिंदों के

उनकी उम्मीदों के

उस छांव में 

सुस्ताने वाले 

राहगीरों के

उनके थके पैरों की बिवाई के

और

छांव पाकर आई 

गहरी नींद के।

हम साक्षी नहीं होना चाहते

उस वृक्ष के कटने के

उन घौंसलों के उजड़ने के

उन परिंदों के हमेशा के लिए लौट जाने के

छांव को धूप के निगल जाने के

फटी बिवाई से रिसते रक्त के

हम साक्षी नहीं होना चाहते

बंजर धरा के

प्यासे कंठों के 

सूखते जलाशयों के 

बारी-बारी मरते पक्षियों के

पानी पर लड़ते इंसानों के

और

हम साक्षी नहीं होना चाहते

ऐसी प्रकृति के

जिसमें

केवल 

स्वार्थ के पथरीले जंगल हों

जहां

का कोई रास्ता

जीवन की ओर न जाता हो।





रविवार, 1 अगस्त 2021

अहा ये जिंदगी

जिंदगी
हमेशा केवल तुममे 
नज़र आती है...।
जानता हूँ
जिंदगी
तुम्हारे 
सपनों पर हमेशा रखती है
तुम्हारे मुस्कुराने की शर्त।
बेटी
तुम्हें
लिखना 
और पढ़ना
मेरे लिए
कठिन है
क्योंकि शब्दों
के चयन में 
उलझ जाता हूँ
हां 
तुम्हें महसूस करता हूँ
हर पल
तुम्हारे
चेहरे को देखकर।
अच्छा पिता
हूँ या नहीं
लेकिन 
तुम्हें 
ना हारते देख सकता हूँ
ना थकते।
अभी जिंदगी
को कांधे बैठाकर घूमना है तुम्हें
सपनों 
को बाजू में दबाए..। 
दौड़ना है
सपनों के सच होने तक
और 
सपनों 
के मुस्कुराने तक...।
मैं जानता हूँ
तुम्हें पता है
तुम्हारी आह
मेरी 
श्वास 
की गति
प्रभावित करती है
तुम 
जीतोगी 
क्योंकि 
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारी ताकत है
और 
मेरी भी...।

शनिवार, 31 जुलाई 2021

एक घर सजाते हैं

 सुनो ना...

एक घर सजाते हैं

दहलीज पर

सपने बिछाते हैं

छत पर

सुखाते हैं कुछ

थके और सीले से दिन।

बाहर

बरामदे में

आरामकुर्सी पर

लेटा आते हैं

उम्मीदों को

इस उम्मीद से कि

उन्हें एक उम्र को

सजाना है खुशियों से।

घर के दीवारों पर

कीलें नहीं लगाएंगे

क्योंकि 

वहां

हम खुशियों को जीते

अपने रंग

सजाना चाहते हैं

खुशियों और रंगों में क्या कोई कील

अच्छी लगती है भला

वो भी जंक लगी

अंदर तक भेदती जिद्दी कील। 

घर की खिड़की पर 

हम

बैठाएंगे 

तुलसी का पौधा

जो 

हवा से

बात करते हुए

समझता रहेगा 

कि यह घर

तुम्हारा

सुखद अहसास चाहता है।

छत पर हम

कोई सफेद सा 

सच बांध देंगे

ताकि

हमें दिखाई देता रहे 

वह सच

कि दुनिया में

सबकुछ सफेद कहां होता है।

रसोई में 

हम मिलकर

सजाएंगे

कुछ कांच की पारदर्शी बरनी

जिससे 

झांकते रहे

तुम्हारे नेह से भीगे

अचार की 

गुदगुदी सी खटास

जो

घोलती रहे

ताउम्र मिठास।

घर के बरामदे में

लगाएंगे एक नीम

पीपल

और

आंवला

ताकि 

उम्र की थकन तक

हम सहेज लें

अपने हिस्से के वृक्ष

जो

देते रहें हमें

उनकी अपनी श्वास।

दरवाजे पर

हम 

गौरेया लिख देंगे

जानता हूं

तुम मुस्कुरा उठोगी

लेकिन

सच तो है

वह आकर्षण का नियम

और

गौरेया का लौटना।

हम छत पर

रखेंगे

कुछ 

सकोरे उम्मीद के

जहां

प्यासे पक्षी चोंच डुबोकर

नहाएंगे 

और

हमारे ही आंगन बस जाएंगे।




फोटोग्राफ- अखिल हार्डिया, इंदौर, मप्र- वरिष्ठ वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर 




अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...