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रविवार, 15 अगस्त 2021

एक कारवां

 सुबह

दूर कुछ

थके पैरों

का एक कारवां

ठहरा है।

देख रहा हूँ

पैरों पर सूजन से

टूट गईं हैं

बच्चों की चप्पलें।

चलती हुईं

कुछ माएं

ढांक रही हैं

बच्चों के तपते

शरीर

अपने आंचल से।

पर पिता

अपनी

बिवाइयों में

रेत भर रहा है

समय की।

भूख से मचलते

बच्चे

के मुंह में

उड़ेली जा रही हैं

गर्म बूंदें

जो प्लास्टिक

की बोतल

दबा रखी है

बूढ़ी अम्मा ने

परिवार का पानी

बचाने की खातिर।

दोपहर

धूप सिर पर है

छांव फटे लत्ते सी

बिखरी है

भीड़ उसी में

समा गई है।

खमोश चेहरे

कई सुबह से

चल रहे हैं

अभी और चलना है

एक सदी

या

उससे कुछ अधिक।

सुबह

के सपने दोपहर में

देख रहे हैं।

माताएं

सुला रहीं हैं बच्चों को

कैसे कहूँ

दोपहर के बाद

सांझ और फिर

स्याह रात भी आती है..।


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आर्ट..श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी





शनिवार, 14 अगस्त 2021

उदासियों के दिनों में

 तुम्हारे

भरोसे में

शब्दों की

प्रतिबद्धता

से परे

मैं अक्सर

देखता हूँ

शब्दों को

मौन होते।

तुम

भरोसे वाली

सुबह

पूरा दिन

सहेज लेती हो

बिना

शब्दों को दोहराए।

अक्सर तुम्हारे

अनकहे शब्द

आंखों में

समा जाया करते हैं

जो

उदासियों के दिनों में

तुम्हारी कोरों का

नमक

होते हैं।

सुबह और सांझ के बीच

तुम

सबकुछ कितने

करीने से

सहेज लेना चाहती थीं

घर, यादें, हमारा जीवन

और बहुत कुछ।

सुबह से दोपहर

के कुछ बाद तक का

ये सफर

देखता हूँ

अब अधिक खामोश

हो गई हो।

मैं जानता हूँ

तुम

अब

गूंथ रही हो

हमारी सांझ

और

बच्चों की सुबह

के बीच

एक मानवीय सा

रिश्ता।

मैं जानता हूँ

कभी कभी जिंदगी

से बेहतर

बुन लिया करते हैं

हम समय को।

तुम

और

तुम्हारा

यूं रिश्तों में गहरे

उतरे रहना

हमें पसंद है।

अक्सर

जब तुम

घर की बालकनी में

सुनती हो

पक्षियों की चहचहाहट

मुझे लगता है

तुम जैसे

समय पढ़ रही हो।

तुम्हारे अंदर

मुस्कान

अब ठहरने लगी है

मैं

तुम्हें

शब्दों से परे

मौन

को पढ़ने की

इजाजत नहीं दूंगा

क्योंकि

अभी हमारी पुस्तक के

काफी पन्ने

कोरे हैं...।

शब्द

अब भी

बहुत कुछ

गढ़ना चाहते हैं हमें

सुनो

शब्दों की ही सुन लेते हैं

कोई

नई ताल...।







गुरुवार, 12 अगस्त 2021

भोर होने वाली है

दिन स्याह हैं

कड़वे हैं

कंठ भिंच रहे हैं

रात की कालिख

पूरे दिन पर सवाल

उकेर रही है

दूर

बहुत दूर

कोई खूबसूरत सुबह

रात की निराशा को

चीरकर

बढ़ रही हमारी ओर

देखो इंतजार करो

भोर होने वाली है






सोमवार, 9 अगस्त 2021

वह रोटी, वह भूगोल

झुलसे से समाज में

रोटी का आकार बेशक सभी के लिए 

गोल हो सकता है।

झुलसे से एकांकी घर में

रोटी की रंगत

अनेकानेक

स्याह सी ही होती है। 

भूखे पेट

और 

उनकी अंतड़ियों के बीच

कोई भूगोल

नहीं होता

केवल

भूख ही भाषा 

और

सर्वव्यापी परिभाषा होती है।

यहां आंखों की कोरों में नमक

अब सवाल कहा जाता है। 

भूख अक्सर

बस्तियां में नग्नावस्था में घूमती है

कच्चे घरों में

बच्चों के चेहरे

भी रोटी जैसे हो जाते हैं

गोल और बहुत स्याह।

भूखे लोग

सवाल नहीं करते

रोटी मांगते हैं

और 

रोटी को ही वह

सवाल कहते हैं।

समाज के चेहरे पर

अब

दर्दशा की झुर्रियां हैं

जिन्हें

लेकर 

वह अब

डरता है 

उन गरीब बस्तियों में जाने से

उसे भय सताता है

कहीं

बच्चे भूख और रोटी के भूगोल को

एक न कर दें

और कहीं

कोई झुलसी की जिद

लेप न दे

चेहरे पर 

सवालों का स्याह घोल। 

बस्तियों में आज भी

घर टपकते हैं

बच्चे नंगे घूमते हैं

नालियों के किनारे जलते हैं चूल्हे

अब भी बारिश का भय

खाली पाइपों में 

ले जाता है भयभीत चेहरों को

यह दिखाने की 

जिंदगी केवल रिसती नहीं है

वह

कभी कभी

पूरा का पूरा

बहा ले जाती है

अपनी जिद में

और 

दूर टापू पर खड़ा कोई समाज

हिज्जे लेकर 

हलकाला हुआ चीखता सा कहता है

बचा लो कोई उन्हें

देखो वहां भी बस्ती है

वहां भी कोई तो उम्मीद बसती है...।

डूबी बस्ती की 

सूखी पीठ पर 

बेशर्मी के आश्वासन चिपटा दिए जाते हैं

और

अगली बार उन्हीं को नोंच नोंचकर

गरीब

चूल्हे जलाकर रोटी बना लेते हैं।

भूखों 

की बस्ती में

आश्वासन की 

न जमीन होती है

न ही आसमान

हां होता है तो केवल

एक खूबसूरत फरेब। 

 

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

रोपिये ना दोबारा मुट्ठी भर सावन

सावन बरसता था

जब 

लगता था जैसे

मन

और 

घर

मनाने को उत्सुक हैं 

रक्षा का कोई पर्व।

संदेश के साथ

चिठिया में भेज दिया जाता था 

बहन 

को बचपन

बेटी

को 

दुलार। 

सावन 

की पहली फुहार से ही

पूरा घर

दरवाजे की

चौखट के सिराहने  

रख देता था

अपनी आंखें

इंतजार में अपनी दुलारी के।

चिठिया पाकर

उतावली सी

बहना

बतियाती थी सावन से

भादो तक 

जाना है घर

जिनके संग

जीया है बचपन

सीया है जीवन

पीया है दर्द

और

लिया है 

सभी को खुश रखने का संकल्प।

सावन देखता था

बहन की आंखों में सूखे इंतजार को

और

भीगी चिठिया पाकर

चहक उठती थी

पिया के घर

से 

जाने को 

बाबुल के दर।

आंगन की चौखट पर 

सजी आंखें

दूर से देख लेती थीं

बहन को

उसकी आहट को

उसके घर में कदम रखते ही

सफल हो जाता था

सावन का आना

भादो में ढल जाना।

रिश्तों  के मर्म में देखो 

अब कहां है

और कितना है

सावन

कितना है

भादो 

और कितना है 

इंतजार...।

अब 

रोपिये ना दोबारा

मुट्ठी भर सावन

इस धरा में

मुट्ठी भर

रिश्ते

अपनों के बीच

और 

मुट्ठी भर 

यादें बचपन की

जो

सावन बन जाएंगी

तब

आंखें नहीं बरसेंगी

केवल

बरसेगा सावन और भादो। 





गुरुवार, 5 अगस्त 2021

...हां क्रोध ऐसा ही तो होता है

 





















क्रोध केवल क्रोध है
अपलक धधकता हुआ समय।
विचारों की शिराओं में
सुर्ख सा एक चिलचिलाता प्रवाहवान द्रव्य।
बेनतीजतन इरादों का गुबार
एक बेतरतीब सी जिद।
हार का कुतर्कसंगत चेहरा
झुंझलाहट का बदरंग कैनवस।
सुलेख की किताब का फटा हुआ आखिर पन्ना
जीत के चेहरों के बीच तपे जिस्म सा
हां क्रोध ऐसा ही होता है।
 


मंगलवार, 3 अगस्त 2021

हम साक्षी नहीं होना चाहते

 तुम्हारा साथ

पौधों के नेह जैसा ही है

गहरे से अंकुरण 

गहरे से अपनेपन

और 

गहरे से भरोसे की चाह

और

उस पर 

हरीतिमा बिखेरता हुआ। 

हम

और तुम

साक्षी हैं

धरा पर बीज के

बीज पर अंकुरण के

अंकुरण पर पौधा हो जाने के कठिन संघर्ष के 

पौधे के वृक्ष बनने के कठिन तप के

उस पर गिरी बूंदों के

ठंड में ठिठरुती उसकी पत्तियों की आह के

गर्मी में झुलसते 

उसके सख्त बदन के पत्थर हो जाने के

और

उस वृक्ष पर 

घौंसले बनाकर बसने वाले

चुबबुले परिंदों के

उनकी उम्मीदों के

उस छांव में 

सुस्ताने वाले 

राहगीरों के

उनके थके पैरों की बिवाई के

और

छांव पाकर आई 

गहरी नींद के।

हम साक्षी नहीं होना चाहते

उस वृक्ष के कटने के

उन घौंसलों के उजड़ने के

उन परिंदों के हमेशा के लिए लौट जाने के

छांव को धूप के निगल जाने के

फटी बिवाई से रिसते रक्त के

हम साक्षी नहीं होना चाहते

बंजर धरा के

प्यासे कंठों के 

सूखते जलाशयों के 

बारी-बारी मरते पक्षियों के

पानी पर लड़ते इंसानों के

और

हम साक्षी नहीं होना चाहते

ऐसी प्रकृति के

जिसमें

केवल 

स्वार्थ के पथरीले जंगल हों

जहां

का कोई रास्ता

जीवन की ओर न जाता हो।





अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...