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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

शाखों पर उगते हैं


उम्र के

पेड़

की शाखों पर

उगती

खिलखिलाहट

सयानापन

लाचारी

और बहुत कुछ।

शाखों पर

उगते हैं

कुछ

बेबस बच्चे

उनकी रुंधी हंसी।

बच्चों की पीठ पर

बचपन में

उग आती हैं

बेबसी

भूख

और तार-तार जिंदगी।

उम्र के पेड़ पर

अब उगने लगे हैं

लालच

और

लोलुपता।

कहीं-कहीं

उग रही है

कोपलें उम्मीद की।

पेड़ की शाखों से

झांक रही हैं

कुछ सूखी

और काली आंखें..।





शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

रेत, रेत और रेत


 







बारुदों की गंध में

जब

रेत पर 

खींचे जा रहे हैं

शव

और

चीरे जा रहे हैं

मानवीयता के 

अनुबंध। 

जब 

सिसकियां 

कैद हो जाएं 

कंद्राओं में

और

बाहर शोर हो

बहशीयत का।

उधड़े हुए चेहरों पर

तलाशा जा रहा हो

हवस का सौंदर्य।

जब चीखें 

पार न कर पाएं

सीमाएं।

जब दर्द के कोलाहल में

आंखों में 

भर दी जाए रेत।

जब 

आंधी के बीच

रेत के पदचिन्ह

की तरह ही हो

जीवन की उम्मीद।

जब आंखों में 

सपनों की जगह

भर दी गई हो

नाउम्मीदगी की तपती रेत।

जब चीत्कार के बीच

केवल 

लिखा जा सकता हो दर्द।

मैं

फूलों पर कविता 

नहीं लिख सकता।

रेत में सना सच

और

एक मृत शरीर

एक जैसा ही होता है

दोनों में

जीवन की उम्मीद

सूख जाती है

गहरे तक

किसी 

अगले 

आदि मानव की तलाश के पहले तक।


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(अफगानिस्तान में मौजूदा हालात और वहां की बेटियों पर यह कविता...। )


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

हम और तुम


 











मैं 

तुम्हें 

इसी तरह देखता हूँ

मैं

तुम्हें 

प्रकृति में पानी की 

उम्मीद की तरह देखता हूँ।

हम और तुम 

क्या हैं

कुछ भी तो नहीं

केवल

उम्मीद की

बूंदों पर 

उम्र रखकर

जी जाते हैं

अपने आप को।


फोटोग्राफ भी मेरा ही है... फोटोग्राफ देख यह कविता सृजित हो गई...।





रविवार, 29 अगस्त 2021

सच जानता हूं

तुम्हें सच देखना आता है

सच 

कहना क्यों नहीं आता।

तुम सच जानते हो

मानते नहीं।

तुम्हें सच की चीख का अंदाजा है

फिर भी चुप हो ही जाते हो।

जानते हो तुम 

कि

सच और सच 

के बीच

एक मजबूरी का जंगल है

उसमें

हजार बार

घुटते हो तुम 

अपने प्रेरणाशून्य जम़ीर के साथ।

जानता हूं 

सच 

अब आदमखोर जिद के सख्त जबड़ों में दबा

मेमना है

जिसे 

जंगल में घुमाया जा रहा है

अपनी सनक को साबित करने की खातिर। 

एक दिन 

जबड़े से छिटककर सच

गिरेगा किसी खोह में

जहां 

दोबारा 

गढ़ेगा 

कुछ आदिमानव

जो

सच्चे हों

खरे हों

बेशक

पढ़ें लिखे ना हों...।

 

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना

मैं कोई सिंदूरी दिन लिखूं

तुम सांझ लिख देना

मैं कोई सवेरा खिलूं

तुम उल्लास लिख देना

मैं कोई मौसम लिखूं

तुम बयार लिख देना

मैं कोई नेह लिखूं

तुम उसका रंग लिख देना

मैं कोई अहसास लिखूं

तुम उसकी प्रकृति लिख देना

मैं कोई लम्हा लिखूं

तुम उसकी सादगी सी, श्वेत कसक लिख देना

मैं पक्षियों का निर्मल प्रेम लिखूं

तुम उनकी मुस्कान लिख देना

मैं धरा की दरकती दरारों की परत से झांकते अंधेरे में कुम्लाई जिंदगी लिखूं

तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना

मैं लिखू

तुम लिखो

देखना ये जिंदगी की किताब जैसी ही तो है..

लिख लेंगे, जी लेंगे, समझ लेंगे

किसी गहरी छांव वाले दरख्त के बीच

किसी थके हुए पंछी की भांति

हमें ये भी राहत देती रहेगी, ये लेखनी, ये जिंदगी की गहरी स्याही...।




बुधवार, 18 अगस्त 2021

सपने ऐसे ही तो होते हैं

हां 
सच 
सपने ऐसे ही तो हैं
सुर्ख
और 
रसीले...। 
हां
सच यह भी है 
जिंदगी
में 
हर पल बदलता है
उम्र का चेहरा
और 
उम्र के कई पढ़ाव बाद
झुर्रियों के बीच
सूखी आंखों में
सपनों
के सूखे शरीर
टंगे होते हैं
घर की सबसे 
बेबस 
मजबूरी की डोर 
पर 
सबसे जिद्दी कील पर। 
सपनों के रंग
उम्र के आखिर पढ़ाव पर 
मटमैले भूरे हो जाते हैं
तब 
आंखों में 
यही सपने
गहरे समा चुके होते हैं
समय के
रेगिस्तान
के धुंधलके में...।



रविवार, 15 अगस्त 2021

एक कारवां

 सुबह

दूर कुछ

थके पैरों

का एक कारवां

ठहरा है।

देख रहा हूँ

पैरों पर सूजन से

टूट गईं हैं

बच्चों की चप्पलें।

चलती हुईं

कुछ माएं

ढांक रही हैं

बच्चों के तपते

शरीर

अपने आंचल से।

पर पिता

अपनी

बिवाइयों में

रेत भर रहा है

समय की।

भूख से मचलते

बच्चे

के मुंह में

उड़ेली जा रही हैं

गर्म बूंदें

जो प्लास्टिक

की बोतल

दबा रखी है

बूढ़ी अम्मा ने

परिवार का पानी

बचाने की खातिर।

दोपहर

धूप सिर पर है

छांव फटे लत्ते सी

बिखरी है

भीड़ उसी में

समा गई है।

खमोश चेहरे

कई सुबह से

चल रहे हैं

अभी और चलना है

एक सदी

या

उससे कुछ अधिक।

सुबह

के सपने दोपहर में

देख रहे हैं।

माताएं

सुला रहीं हैं बच्चों को

कैसे कहूँ

दोपहर के बाद

सांझ और फिर

स्याह रात भी आती है..।


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आर्ट..श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी





अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...