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रविवार, 10 अक्टूबर 2021

एक सदी का सूखापन

 


तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ

जानता हूँ

अगली सदी

बिना फूलों की होगी।

इन्हें रख लेना

डायरी के 

पन्नों के बीच

उम्र के पीलेपन

के साथ 

संभव है

इन्हें भी 

जीना पड़े 

एक सदी का सूखापन।

सहेज लेना इन्हें

कम से कम 

पीढ़ियां 

देख तो सकेंगी 

इन्हें छूकर

और 

शायद इसी तरह बच सके

इनकी खुशबू

हमारा 

फूलों से प्रेम 

और 

फूलों 

के शरीर...।

जानता हूँ

किसी को फर्क नहीं पड़ता 

कि 

क्या कुछ खो चुके हैं हम।

फर्क पड़ेगा

जब हम

एक सूखे संसार में

रेतीले जिस्म

और 

सूखी आत्मा के बीच

हम 

नहीं खोज पाएंगे

कोई पक्षी

कोई फूल

कोई जीवन

और 

कोई उम्मीद...।


शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

सच सहमा सा आ बैठता है

 


सच 

उस 

भयभीत बालक की तरह है

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच

यह जानते हुए भी कि

वह लौटेगा नहीं।

सच

उस गुबार का नाम है

जिसे

आम आदमी कंठ में 

रखता है 

विष की तरह

और घूंट-घूंट पीता है 

अपनी जीत को हार में 

बदलता देख।

सच 

उस बेबसी का नाम है

जो भूखे बच्चे के 

भयभीत चेहरे से 

टपकता है लार बनकर।

सच 

उस चीख के समान है

जिसके बाद 

ठहर जाती है जिंदगी

किसी 

अधबीच चौराहे पर

लपलपाती नजरों के बीच। 

सच 

उस किताब की तरह है

जिसके पन्ने पीले हो गए हैं

इस इंतजार में 

कि उसके शरीर से 

धूल हटे और खोला जाए सच।

सच

उस ग्रंथालय की तरह भी है 

जो धधकता रहे 

किताबों के सच के बीच

झूठे समाज में।

सच 

उस जीत की तरह है

जिसे पाकर

अक्सर 

फटेहाल हो जाता है

एक शरीर

फिर भी मुस्कुराता है

अपने अधनंगे शरीर को देखकर।

सच 

उस हार की तरह है

जिसमें सूखे शरीर की भयाक्रांत चीख होती है।

सच

सहमा सा आ बैठता है

किसी मासूम के चेहरे की रुंआसी में।

सच 

किसी

वृद्ध की आंखों में

लंबी लड़ाई जीतने के बाद

उतना ही धुंधला जाता है 

जितनी उसकी उम्र। 

सच 

कैसे कहूं

बहुत दुखता मन

और

सच कैसे सहूं

अपने ही बोझ से

भिंची जा रही है

जिव्हा मेरी। 

कान में बहरापन ओढ़कर

जी रहे समाज का

हिस्सा होकर

मैं 

अब धीरे-धीरे

भीड़ ही हो हूं।

सच

केवल 

मन के शोर का 

एक चेहरा है

जो

फटे हुए

मन के जिस्म के जर्जर हो जाने तक 

उसे

ढांकता रहता है

भयभीत बालक की तरह

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच। 



PHOTOGRAPH@SANDEEPKUMARSHARMA

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

प्रेम ऐसा ही होता है


 

प्रेम

ऐसा ही होता है

अंदर से

बेहद शांत।

जैसे कोई

रंगों के महोत्सव

के 

बीच

किसी अधखिले फूल की

प्रार्थना।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

घर नमक नहीं हो सकता

मुझे याद है

आज भी

तुम्हारी आंखों में

उम्र के सूखेपन के बीच

कोई स्वप्न पल रहा है

कोई

श्वेत स्वप्न। 

तुम जानती हो

कोरों में नमक के बीच

कोई स्वप्न

कभी भी 

खारा नहीं होता।

अक्सर

तुम स्वप्न को घर कहती हो

और 

मैं

घर को स्वप्न।

कितना मुश्किल है

घर को स्वप्न कहना

और

कितना सहज है

स्वप्न को घर मानना।

मैं जानता हूं

तुम्हारी आंखों की कोरों के बीच 

जो नमक है

वही

घर है

नींव है

जीवन है

और गहरा सच।

तुम अक्सर कहती हो

घर नमक नहीं हो सकता

हां

सच है

लेकिन

आंखें नमक हो सकती हैं

जीवन भी नमक हो सकता है

और 

गहरा मौन भी। 

एक उम्र के बाद

जब जीवन का सारा खारापन

सिमटकर

कोरों पर हो जाता है जमा

तब

जिंदगी 

बहुत साफ दिखाई देती है

एकदम

तुम्हारे स्वप्न की तरह

जिसमें 

तुम हो

मैं हूं

एक घर है

और 

नमक झेल चुकी 

तुम्हारी ये

पनीली हो चुकी आंखें।




गुरुवार, 30 सितंबर 2021

आज है और वही है


 

जब भी हम 

बैठे साथ-साथ

जिंदगी आ बैठी

हमारे करीब 

और 

कितनी सहजता से

सुनती रही हमें।

तुम्हें खिलखिलाता देख

कुछ कह गई थी

कानों में मेरे।

सच कहूं

मुझे लगा जिंदगी तुम्हें

मुझसे अधिक नहीं पहचानती है।

अबकी 

जब भी दोबारा जिंदगी 

बैठगी 

हमारे साथ उस मुस्कुराने के वक्त

हम 

बताएंगे उसे

जिंदगी जी कैसे जाती है।

अक्सर देखता हूं

हमारे बीच 

थकी-मांदी सी

हांफती हुई

पसीने से लथपथ

ही जिंदगी बैठती है 

पास हमारे। 

देखा होगा तुमने भी

कभी भी मुस्कुराती नहीं

केवल

हमें देखती रहती है।

जानती हो 

क्या कहा था 

उस दिन

मेरे कान में जिंदगी ने

तुम्हें मुस्कुराता देख

कह रही थी

जिंदगी तो मैं हूं

फिर ये क्या है

जो उस चेहरे पर आ टिकी है।

मैं होले से कहता हूं

देखो

जिंदगी ही तो है

जो हमने बुनी है

जो हमने चुनी है। 

मैं 

जानता हूं जिंदगी और हमारे बीच

वह खुशियां हैं

जिन्हें

हम जीते हैं रोज

वही

आज है

और वही

सच।

इसके अलावा

कोई कल नहीं है। 

सोमवार, 27 सितंबर 2021

तुम्हारे लिए...


 

मैं जानता हूं

सफेद फूल का मौसम

तुम्हें और मुझे

दोनों को पसंद है।

हां

सफेद फूलों का मौसम

उनकी दुनिया

सब है

यहीं

कुछ तुम्हारे अंदर

कुछ मेरे

और 

बहुत सी

हम दोनों के विचारों में।

मैं तुम्हें

देना चाहता हूं

उन फूलों के साथ

कुछ श्वेत सा सच

जो तुम्हें

छूकर गुजरा है कई बार।

हवा की पीठ पर बैठकर

तुममें समाया है गहरे। 

तुम्हें याद है

सफेद फूलों के मौसम का

पहला पन्ना।

जिसमें हमने उकेरा था

श्वेत सा एक चेहरा

तुम जानती हो

श्वेत सा वह चेहरा

और फूलों का श्वेत मौसम

हमारी डायरी का हिस्सा हैं। 

जानती हो

श्वेत होना सजा है

क्योंकि 

श्वेत सुना नहीं जा सकता

इस दौर में।

श्वेत 

होकर जी रहे हैं 

हम और तुम

उस श्वेत से मौसम को बुनते हुए

जो

यकीकन

है

और आकार ले रहा है

हमारे इर्दगिर्द

इन्ही श्वेत फूलों से 

पराग चुनकर।

सच

डायरी का आखिरी पन्ना

भी 

श्वेत लिखना चाहूंगा

तुम्हें 

लिखना चाहूंगा। 

तुम कुछ पराग चुन लेना

उस डायरी के

आखिरी पन्ने पर सजाने के लिए।

ताकि महकता रहे

मौसम

फूल

और डायरी सा जीवन। 


 


शनिवार, 25 सितंबर 2021

कट जाएगी जीवन की उम्मीद


 

थक गया हूं

बहुत

इस दुनिया में

अब 

नहीं चाहिए

हमें भी

ये दुनिया

जो

निर्दयता से काट दे

पैर

और

सीने पर चला दे कुल्हाड़ी

कभी भी 

किसी भी बेतुके कारण से।

और सुनना भी न चाहे

मेरी चीख

कि

कैसे जीओगे मेरे बिना।

कटे शरीर के कई हिस्से

यूं ही बिखरे हैं

यहां 

वहां

चाहो तो

पैरों तले रौंदकर

निकल जाना। 

चाहो तो

अपनी आरामगाह में सजाना

लेकिन 

मैं लौटना नहीं चाहता 

इस बेसब्र दुनिया में

जहां

श्वास देने के बदले

मिलती है 

यूं मौत।

मैं 

देख रहा हूं

मेरे 

कटे शरीर पर 

लोग पैर रखकर

बतिया रहे हैं

कि

पर्यावरण बहुत बिगड गया है, गर्मी भी बहुत है।

मैं सुन पा रहा हूं

प्रकृति और धरा की चीख

मेरे कटे शरीर को देखकर

उसमें मां का दारुण दर्द है। 

मैं

देख रहा हूं

उन मासूम जीवों को 

जो

जीते थे मेरी छाल की

कंद्राओं में।

मैं

देख रहा हूं धूप में

नई छांव खोजते

परिंदों को

जो सुस्ताते थे पूरी आजादी से

मेरे पत्तों की छांव में।

सच 

यूं ही कटते रहे हमारे शरीर

तो यकीन मानना

एक दिन

कट जाएगा

पूरा जंगल

और कट जाएगी

जीवन की उम्मीद।

तब बचेगा केवल

एक तपता बिना वृक्ष वाला

ठूंठ हो चुका जंगल

जहां आबादी नहीं होगी

होगा

काल का सन्नाटा। 

समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...