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मंगलवार, 1 जून 2021

इस जंगल में


 

सुबह

कब आएगी

बादलों के फटे आंचल में

कहीं

उम्मीद

जब्त है

झांक रही है।

धरती पर

किस्मों की

भीड़ है

आदमी और आदमी

के बीच

एक

रेखा है महीन

बहुत महीन

जो सुलग रही है

दहक रहे हैं

आदमी।

विचारों में

एकांकीपन का जंगल है

जंगल में

भटक रहे हैं शरीर।

पत्थरों का युग

लौट आया है

आदमी

आदमी के बीच

महत्वाकांक्षा की

रेत तप रही है

रेत के बहुत नीचे

पीढ़ी

तप रही है इस जंगल में।

पीढ़ी

के अब

कान बड़े हैं

वो फुसफुसाहट से

अंकुरित हुई है।

अब धरती के

ऊपर

और

नीचे

केवल जंगल है

शरीरों का

दूषित

वैचारिकता का स्याह जंगल।

सुबह

अब सदी के बाद

आएगी।

रविवार, 30 मई 2021

बहुत सा बाकी है अभी

 


कितना सबकुछ 

छूट जाता है ना पीछे

समय के साथ।

मां की गोद

उसका वो 

अकेले क्षणों का दुलार।

चिंता वाली 

वो सलवटें

जो माथे पर 

अगले ही पल सुस्ताने लगतीं 

खुशी से 

हमें ठीक पाकर। 

हमें पहले पहल

पैरों चलाने वाली 

वो उंगली।

वो घर का दालान

जिसे हम पहली बार

करते हैं पार।

मां 

के हाथ का अचार 

उसका स्वाद

वो

स्वाद और मां के भरोसे 

वाली बरनी। 

सच कितना सबकुछ छूट जाता है

वो पहला

बस्ता

पहली 

सिलेट

पहली कलम

पहली

कापी

जिस पर हमने उकेरी थीं

पहली बार

मनचाही लकीरें

जिन्हें

सीधा करना सिखाया था

रसोई से थककर 

अक्सर आ बैठने वाली पसीना पोंछती 

मां ने। 

वो 

रंग 

वो कपडे

जो मां ने दिलवाए थे

अपनी पसंद के

हम बड़े हो गए 

कपडे 

अब भी मां की

उम्मीद पर

खरे उतर रहे हैं

वे छोटे ही हैं

अब बचपन की यादें उन्हें

पहना करती हैं।

सच कितना सबकुछ छूट जाता है 

पीछे

गलतियों पर 

मां

का कवच हो जाना

पिता 

के सामने आकर

अक्सर बचाना

अकेले में बैठकर

रिश्तों को समझाना

गलती पर डांटना

पिता के नेह सागर मन तक

हमें पहुंचाना

दोबारा गलती न करने का

अहसास करवाना

पिता और हमारे बीच 

अक्सर सेतु बन जाना।

कितना सबकुछ पीछे छूट जाता है

रात तक मां के जागने पर

कभी कभी खुलने वाली हमारी पलकें

और 

उनमें छिपी चिंता।

सफलता के पहले ही

अलसुबह

गूंथकर बनाए गए 

बेसन के लड्डू

जो 

भरोसे पर खरे उतरते 

ही थे।

गर्व से बाजू में बैठकर

हमारी समझदारी भरी बातें

सुनकर

मन ही मन उसका मुस्कुराना।

अब

हमें लगता है हम समझदार हो गए

और

जिम्मेदारियां हमें दूर ले आईं

बहुत दूर। 

अब

मां

बूढ़ी

उम्रदराज होकर

अकेले ही सहलाती है

अपने शरीर की

सख्त झुर्रीदार त्वचा को

ये कहते हुए कि

छोटा आया नहीं बहुत समय हुआ अब तक

पूछना तो अबकी कब लौटेगा। 

वो खुश हो जाती है

केवल आवाज सुनकर

वो

जी उठती है

केवल देखकर।

वो सी लेती है

पता नहीं कैसे

अब भी इस उम्र में

उस पुराने और इस नये

वक्त के 

बदलावों से 

रिश्तों में आने वाली उधड़न को।

मां के पास अब भी है

वो 

नेह भरा जादू

जो 

पढ़ लेता है

अक्सर

हमें

हमारे जीवन 

हमारी उलझनों

हमारे

अनकहे सच को।

वैसे

मां अक्सर कहती है

बेटा

अब दिखाई कम देने लगा है

ये 

आंखें

बनवानी पड़ेंगी दोबारा

और मैं 

मुस्कुरा देता हूं

उससे लिपटकर

जब भी 

होता हूं उसके करीब।

बहुत सा 

बाकी है अभी

जो 

मां के पास ही मिलता है

मां 

से ही मिलता है

अक्सर मां

पिता हो जाती है

पिता के जाने के बाद।


मैं तुम्हें बादल नहीं दे सकता

 


मैं तुम्हें

बादल नहीं दे सकता

तुम चाहो तो

कोई एक दिन मांग लो

कोई बोनसाई दिन।

बादल में

कुछ

तुरपाई रह गई है

बादल कराह रहा है

दर्द से

उम्मीदों की चुभन

गहरी होती है।

हर आंख घूर रही है।

देखो सच

कहूँ

वो बारिश का बढ़ता

बोझ

अधिक नहीं ढो

पाएगा

फट जाएगा तार तार

हो जाएगा।

क्या अब भी चाहती हो

वो थका सा बादल।

हां

मैं जानता हूँ

तुम्हें

सपने बुनने हैं

मेरी मानो

तुम बोनसाई दिन

रख लो।

मैं बादल की

तुरपाई करता हूँ

तब तक तुम

जीवन बुन लेना।

एक दिन जब

बादलों की बेबसी

नहीं होगी

जब तुम

सपने गूंथ चुकी होगी

मैं

सुई और धागा

बादल की पीठ पर रख

सपनों के उस

बोनसाई घर में

लौट आऊंगा।

सच मैं तुम्हें बादल

नहीं दे सकता।

शनिवार, 29 मई 2021

छत पर ठहाकों की हाजिरी


 घर

कुछ

पिल्लरों पर

टेकता है

अपना भारी भरकम शरीर।

पहले

उन्हें खुशियां

कहा जाता था

अब

कर्ज में

दबे

व्यक्ति का चीत्कार।

पहले घर की

जमीन और दीवारें

हरदम साथ

महसूस होती थीं

अब

जमीन पर

कोई है कहां।

घर बड़े हो गए हैं

आदमी हो रहा

बहुत छोटा।

कच्चे

घर की दीवारों की

दरारें भी

कच्ची होती थीं

मन के लेप से

भर जाया

करतीं थीं।

अब घर और दीवारें

पक्की हैं

दरारें

नज़र नहीं आतीं

होती हैं

आसानी से

भरी नहीं जातीं।

पहले

जिसकी छत

वो

सबसे धनी

कहा जाता था

हवा और धूप

खुलकर पाता था।

अब छतें हैं

हवा

और धूप भी हैं

बस

आदमी

का रिश्ता

उस छत से

टूट गया।

पहले रोज पूरा

घर

छत पर

ठहाकों की हाजिरी

लगाता था

अब

पूरी उम्र

छत के नीचे

ही बिताता है

ठहाकों को छत पर

कहीं

छोड़ आई है

ये नई सदी...।

शुक्रवार, 28 मई 2021

हिज्जे वाले सबक के बीच



मन में
कहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
अक्सर।
तुम कहती हो
मैं
पढ़ लेता हूँ
तुम्हें
अक्सर तुमसे पहले।
ये जो
हम हैं
ये
जो
हमारी नेह गंध है
ये
कहीं
हमारे शब्दों का
एक ग्रंथ है
जो
तुम पढ़ जाती हो
एक पल में
हजारों बार
और में
जी लेता हूँ
तुम्हें
शब्दों के पार...।
आओ
छूकर देखते हैं
दीवार
जहाँ
अक्सर
हम रहते हैं
शब्दों के व्याकरण
के बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।


बुधवार, 26 मई 2021

गली के नुक्कड़ का लैटर बाक्स


 सुनो ना..

वो

गली के नुक्कड़ का

लैटर

बाक्स

कितना बूढ़ा हो गया है।

कल

ठहरा था कुछ पल

उसके करीब।

उम्र

का भारीपन

शरीर पर हावी हो गया है

हां

लेकिन वो कुटिल

मुस्कान नहीं गई

अब तक।

मैं नेटवर्क नहीं मिलने से

उस पर हाथ टेककर

खड़ा था

वो ठहाके लगाने लगा

वो पूछ रहा था

बातों में और रिश्तों में

गरमाहट

बाकी है अभी।

मैं चुप हो गया

वो देखता रहा

मैं नज़र चुराने लगा

तभी उसने

तीन पुरानी और पीली

चिट्ठियां मेरी ओर

बढ़ा दीं।

मैं अपलक देखता रहा

उनके छूते ही

कुछ अजीब सा हुआ

तुम

और

तुम्हारा वो

शब्द हो जाना

याद आ गया।

चिट्ठी की पीठ पर

लिखे पते

धुंधले हो चुके थे।

खोलकर देखा

लैटर बाक्स ने पूछा

क्या हुआ

किसका है ये

बिसराया हुआ खत।

मैं

डबडबाई आंखों को पोंछते

हुए बोला

पिता का मेरे लिए।

अब पिता नहीं हैं

केवल खत है

उनकी लेखनी

और छूकर

देखी जा सकें

वो भावनाएं..।

दूसरा खत

पड़ोस के मिस्त्री का था

जो

अपने बेटे को

बताना चाहता था

मरने से पहले

कि

वह उसे

बहुत चाहता है।

तीसरे खत पर

पानी ने

मिटा दी थी

पहचान

बस

अंदर लिखा था

कभी तो

एक चिट्ठी लिख दिया कर

बेटा

हममें प्राण आ जाते हैं...।

दो खत

लैटर बाक्स को लौटाकर

लौट आया

घर

पिता की चिट्ठी लिए...।

भीड़ के पैरों में गहरे छाले हैं



खोज

के परे एक और

संसार है।

चेहरे हर बार

बिकते नहीं

चेहरों

का

अपना लोकतंत्र है।

थकी हुई

भीड़

बदहवास विचारों से

दूर भाग रही है।

भीड़

के पैरों में

युग से

गहरे छाले हैं।

छाले

शोर मचा रहे हैं

गर्म रेत पर

दूर कहीं

कोई

पानी बेच रहा है

रेत के चमकीले मटकों में।

आवाज़

के पैर हैं

वो

घुटने के बल

रेंग रही है

दरिया में

अगली सुबह तक...।


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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...