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रविवार, 29 अगस्त 2021

सच जानता हूं

तुम्हें सच देखना आता है

सच 

कहना क्यों नहीं आता।

तुम सच जानते हो

मानते नहीं।

तुम्हें सच की चीख का अंदाजा है

फिर भी चुप हो ही जाते हो।

जानते हो तुम 

कि

सच और सच 

के बीच

एक मजबूरी का जंगल है

उसमें

हजार बार

घुटते हो तुम 

अपने प्रेरणाशून्य जम़ीर के साथ।

जानता हूं 

सच 

अब आदमखोर जिद के सख्त जबड़ों में दबा

मेमना है

जिसे 

जंगल में घुमाया जा रहा है

अपनी सनक को साबित करने की खातिर। 

एक दिन 

जबड़े से छिटककर सच

गिरेगा किसी खोह में

जहां 

दोबारा 

गढ़ेगा 

कुछ आदिमानव

जो

सच्चे हों

खरे हों

बेशक

पढ़ें लिखे ना हों...।

 

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना

मैं कोई सिंदूरी दिन लिखूं

तुम सांझ लिख देना

मैं कोई सवेरा खिलूं

तुम उल्लास लिख देना

मैं कोई मौसम लिखूं

तुम बयार लिख देना

मैं कोई नेह लिखूं

तुम उसका रंग लिख देना

मैं कोई अहसास लिखूं

तुम उसकी प्रकृति लिख देना

मैं कोई लम्हा लिखूं

तुम उसकी सादगी सी, श्वेत कसक लिख देना

मैं पक्षियों का निर्मल प्रेम लिखूं

तुम उनकी मुस्कान लिख देना

मैं धरा की दरकती दरारों की परत से झांकते अंधेरे में कुम्लाई जिंदगी लिखूं

तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना

मैं लिखू

तुम लिखो

देखना ये जिंदगी की किताब जैसी ही तो है..

लिख लेंगे, जी लेंगे, समझ लेंगे

किसी गहरी छांव वाले दरख्त के बीच

किसी थके हुए पंछी की भांति

हमें ये भी राहत देती रहेगी, ये लेखनी, ये जिंदगी की गहरी स्याही...।




बुधवार, 18 अगस्त 2021

सपने ऐसे ही तो होते हैं

हां 
सच 
सपने ऐसे ही तो हैं
सुर्ख
और 
रसीले...। 
हां
सच यह भी है 
जिंदगी
में 
हर पल बदलता है
उम्र का चेहरा
और 
उम्र के कई पढ़ाव बाद
झुर्रियों के बीच
सूखी आंखों में
सपनों
के सूखे शरीर
टंगे होते हैं
घर की सबसे 
बेबस 
मजबूरी की डोर 
पर 
सबसे जिद्दी कील पर। 
सपनों के रंग
उम्र के आखिर पढ़ाव पर 
मटमैले भूरे हो जाते हैं
तब 
आंखों में 
यही सपने
गहरे समा चुके होते हैं
समय के
रेगिस्तान
के धुंधलके में...।



रविवार, 15 अगस्त 2021

एक कारवां

 सुबह

दूर कुछ

थके पैरों

का एक कारवां

ठहरा है।

देख रहा हूँ

पैरों पर सूजन से

टूट गईं हैं

बच्चों की चप्पलें।

चलती हुईं

कुछ माएं

ढांक रही हैं

बच्चों के तपते

शरीर

अपने आंचल से।

पर पिता

अपनी

बिवाइयों में

रेत भर रहा है

समय की।

भूख से मचलते

बच्चे

के मुंह में

उड़ेली जा रही हैं

गर्म बूंदें

जो प्लास्टिक

की बोतल

दबा रखी है

बूढ़ी अम्मा ने

परिवार का पानी

बचाने की खातिर।

दोपहर

धूप सिर पर है

छांव फटे लत्ते सी

बिखरी है

भीड़ उसी में

समा गई है।

खमोश चेहरे

कई सुबह से

चल रहे हैं

अभी और चलना है

एक सदी

या

उससे कुछ अधिक।

सुबह

के सपने दोपहर में

देख रहे हैं।

माताएं

सुला रहीं हैं बच्चों को

कैसे कहूँ

दोपहर के बाद

सांझ और फिर

स्याह रात भी आती है..।


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आर्ट..श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी





शनिवार, 14 अगस्त 2021

उदासियों के दिनों में

 तुम्हारे

भरोसे में

शब्दों की

प्रतिबद्धता

से परे

मैं अक्सर

देखता हूँ

शब्दों को

मौन होते।

तुम

भरोसे वाली

सुबह

पूरा दिन

सहेज लेती हो

बिना

शब्दों को दोहराए।

अक्सर तुम्हारे

अनकहे शब्द

आंखों में

समा जाया करते हैं

जो

उदासियों के दिनों में

तुम्हारी कोरों का

नमक

होते हैं।

सुबह और सांझ के बीच

तुम

सबकुछ कितने

करीने से

सहेज लेना चाहती थीं

घर, यादें, हमारा जीवन

और बहुत कुछ।

सुबह से दोपहर

के कुछ बाद तक का

ये सफर

देखता हूँ

अब अधिक खामोश

हो गई हो।

मैं जानता हूँ

तुम

अब

गूंथ रही हो

हमारी सांझ

और

बच्चों की सुबह

के बीच

एक मानवीय सा

रिश्ता।

मैं जानता हूँ

कभी कभी जिंदगी

से बेहतर

बुन लिया करते हैं

हम समय को।

तुम

और

तुम्हारा

यूं रिश्तों में गहरे

उतरे रहना

हमें पसंद है।

अक्सर

जब तुम

घर की बालकनी में

सुनती हो

पक्षियों की चहचहाहट

मुझे लगता है

तुम जैसे

समय पढ़ रही हो।

तुम्हारे अंदर

मुस्कान

अब ठहरने लगी है

मैं

तुम्हें

शब्दों से परे

मौन

को पढ़ने की

इजाजत नहीं दूंगा

क्योंकि

अभी हमारी पुस्तक के

काफी पन्ने

कोरे हैं...।

शब्द

अब भी

बहुत कुछ

गढ़ना चाहते हैं हमें

सुनो

शब्दों की ही सुन लेते हैं

कोई

नई ताल...।







गुरुवार, 12 अगस्त 2021

भोर होने वाली है

दिन स्याह हैं

कड़वे हैं

कंठ भिंच रहे हैं

रात की कालिख

पूरे दिन पर सवाल

उकेर रही है

दूर

बहुत दूर

कोई खूबसूरत सुबह

रात की निराशा को

चीरकर

बढ़ रही हमारी ओर

देखो इंतजार करो

भोर होने वाली है






सोमवार, 9 अगस्त 2021

वह रोटी, वह भूगोल

झुलसे से समाज में

रोटी का आकार बेशक सभी के लिए 

गोल हो सकता है।

झुलसे से एकांकी घर में

रोटी की रंगत

अनेकानेक

स्याह सी ही होती है। 

भूखे पेट

और 

उनकी अंतड़ियों के बीच

कोई भूगोल

नहीं होता

केवल

भूख ही भाषा 

और

सर्वव्यापी परिभाषा होती है।

यहां आंखों की कोरों में नमक

अब सवाल कहा जाता है। 

भूख अक्सर

बस्तियां में नग्नावस्था में घूमती है

कच्चे घरों में

बच्चों के चेहरे

भी रोटी जैसे हो जाते हैं

गोल और बहुत स्याह।

भूखे लोग

सवाल नहीं करते

रोटी मांगते हैं

और 

रोटी को ही वह

सवाल कहते हैं।

समाज के चेहरे पर

अब

दर्दशा की झुर्रियां हैं

जिन्हें

लेकर 

वह अब

डरता है 

उन गरीब बस्तियों में जाने से

उसे भय सताता है

कहीं

बच्चे भूख और रोटी के भूगोल को

एक न कर दें

और कहीं

कोई झुलसी की जिद

लेप न दे

चेहरे पर 

सवालों का स्याह घोल। 

बस्तियों में आज भी

घर टपकते हैं

बच्चे नंगे घूमते हैं

नालियों के किनारे जलते हैं चूल्हे

अब भी बारिश का भय

खाली पाइपों में 

ले जाता है भयभीत चेहरों को

यह दिखाने की 

जिंदगी केवल रिसती नहीं है

वह

कभी कभी

पूरा का पूरा

बहा ले जाती है

अपनी जिद में

और 

दूर टापू पर खड़ा कोई समाज

हिज्जे लेकर 

हलकाला हुआ चीखता सा कहता है

बचा लो कोई उन्हें

देखो वहां भी बस्ती है

वहां भी कोई तो उम्मीद बसती है...।

डूबी बस्ती की 

सूखी पीठ पर 

बेशर्मी के आश्वासन चिपटा दिए जाते हैं

और

अगली बार उन्हीं को नोंच नोंचकर

गरीब

चूल्हे जलाकर रोटी बना लेते हैं।

भूखों 

की बस्ती में

आश्वासन की 

न जमीन होती है

न ही आसमान

हां होता है तो केवल

एक खूबसूरत फरेब। 

 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...