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मंगलवार, 30 नवंबर 2021

जिस्म से नमक खरोंच कर


 

ये 

दुनिया 

एक खारी नदी है

और हम

नमक पर 

नाव खे रहे हैं।

नदी का नमक हो जाना

आदमी के खारेपन

का शीर्ष है। 

नदी और आदमी 

जल्द

अलग हो जाएंगे

नदी 

नमक का जंगल होकर

रसातल में समा जाएगी

और 

आदमी नाव में

नदी के जिस्म से 

नमक खरोंच कर

ठहाके लगाएगा..।

नमक 

नदी

और 

आदमी

आखिर में 

एक हो जाएंगे।

तब 

नाव होगी

पतवार पर

कोई

नया पंछी बैठेगा

जो 

दूसरी दुनिया से आकर

खोजेगा 

नदी

आदमी

और जीवन।

क्या हमें

नदी को

नमक होने से बचाना चाहिए

और 

खरोंचे जाने चाहिए

अपने पर जमे नमक के जिद्दी टीले...।

रविवार, 28 नवंबर 2021

नदी का मौन, आदमियत की मृत्यु है


आओ
नदी के किनारों तक
टहल आते हैं
अरसा हो गया
सुने हुए
नदी और किनारों के बीच
बातचीत को।
आओ पूछ आते हैं
किनारों से नदी की तासीर
और
नदी से
किनारों का रिश्ता।
आओ देख आते हैं
नदी में
बहते सख्त
पत्थरों से उभरे जख्मों को
जिन्हें नदी
कड़वाहट के नमक से बचाती रहती है
और
अक्सर छिपाती रहती है।
आओ छूकर देख आएं
नदी के पानी को
उसकी काया को
उसकी तासीर को
और
जांच लें
हम
पूरी तरह बे-अहसास तो नहीं रहे।
आओ बुन आते हैं
नदी और किनारों के बीच
गहरी होती दरारों को
जहां
टूटन से टूट सकता है
रिश्ता
और
भरोसा।
आओ नदी तक हो आएं
परख लें
नदी, कल कल कर पछियों से बात करती है
या
केवल
मौन बहती है
पत्तों और कटे वृक्षों के सूखे जिस्म लेकर
क्योंकि
बात करने और मौन हो जाने में
उसकी कसक होती है
जो चीरती है उसे गहरे तक
और मौन होती नदी
कभी भी सभ्यता को गढ़ने की क्षमता नहीं रखती
क्यांकि नदी का मौन
आदमियत की मृत्यु है..


 

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

समय उस बचपन का

 



कदम
कुछ
कदम
लौटना चाहते हैं
अपने पदचिन्हों पर।
उस मंजिल के इर्द गिर्द
जहां किसी ठौर
बचपन
छोड़ आए हैं।
रेत छोड़ आए हैं
जिसमें कोई
घरोंदा
था
जिसमें
रेत की दीवारों के बीच
किसी कील पर
उलझा सा रह गया
समय
उस बचपन का।
छोड़ आए हैं
जिस डगर
बचपन के मित्र
मस्ती
अल्हड़पन
और
समझदारी के पहले की
अधपकी जमीन।
छोड़ आए हैं
किताबें और बस्ता
फटे जुर्राब
जिन्हें
अक्सर
तुरपाई से
सी दिया करते थे।
छोड़ आए हैं
बहुत सा छूट गया है
स्कूल की दीवारें
गुरूजी की घूरती आंखें
और
एक उम्र...।
अब बचपन
चांद पर किसी कोने में बसे
घर सा है
जिसे
देख सकते हैं
अतीत में
छू नहीं सकते वर्तमान में।
पदचिन्हों पर
अब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...।


गुरुवार, 25 नवंबर 2021

पग पग जिंदगी...



खुशियां भेद नहीं करतीं
क्योंकि
वे चेहरे खूब मुस्कुराते हैं
जिनके सिर
छत नहीं होती। 
ये संसार हमने बुना है
इसमें कुछ
स्वार्थ के तार 
जो 
गाहे बगाहे
हम ही पिरो देते हैं
फिर 
एक उम्र के बाद
हमीं 
उनकी चुभन पर क्रोधित होते हैं।
जीवन को बुनते हुए
हम एक जाल बुन जाते हैं
जिसमें हमारी 
खुशियां उलझकर 
अक्सर दम तोड़ देती हैं।
एक दूसरी दुनिया
जाल में उलझी सी
जीवन बुनती है
फुटपाथ पर
किसी पिल्लर 
पर 
खिलखिलाते।
जिंदगी
दोनों चेहरों में जीती है
एक जगह
कसक में मुस्कुराती है
और दूसरी ओर
अर्थ के मकड़जाल में
उलझी
कसमसाती है।
कोई कविता
जिंदगी जैसी
ऐसे ही लिखी जाती है
जहां शब्दों की खरोंच 
मन को लहुलुहान करती हैं
और 
कविता शब्दों का कोई फलसफा 
हो जाती है...।
मैं 
उन मुस्कुराते बच्चों से
नहीं पूछा
भूख 
बड़ी है
या खुशी...।
मैं जानता हूँ
सवाल पर 
वह फिर मुस्कुरा उठता
और 
मैं शब्दों के बीच
हो जाता
लहुलुहान
क्योंकि 
जिंदगी केवल किताब नहीं है
अलबत्ता
शब्द है
जो कई
दफा
गहरे उभर आते हैं
मन पर...।


 

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

भयभीत चेहरों का समाज

ये चेहरे
रोक देते हैं 
हमारी दौड़। 
भागते से हम 
ठिठक जाते हैं
इन्हें सामने पाकर। 
सच 
क्या ये आईना हैं
हमारे खुरदुरे समाज 
जिसमें हमेशा ही
बिगड़ी तस्वीर ही 
नज़र आती है...।
भागती जिंदगी की पीठ पर
कुछ
उदास और थके चेहरों का समाज
चीख रहा है
रोटी के लिए।
भूख यहां 
भूगोल और विज्ञान नहीं
गणित है।
चेहरों के बीच 
दरकती मानवीयता कहीं ठौर पाने
भटक रही है।
इनकी चीख
हमारे जम़ीर पर 
एक पल की दस्तक है
ग्रीन 
सिग्नल होते ही
विचारों और ऐसे समाज को रौंद
हम बढ़ जाते हैं
अपनी 
दुनिया में 
जहां
पीठ पर होते हैं
जोड़ घटाने
और 
पैरों तले कुचलने की साजिश।
समृद्ध समाज मदहोश है
और 
भाग रहा है 
अपने आप से
बहुत दूर
क्योंकि
ये सच्चे चेहरे
उन्हें डराते हैं...।


 

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

फटे लिबास में तुम्हारी हंसी


 काश मैं 

इस बाज़ार से

कुछ 

बचपन बचा पाता...।

काश 

मुस्कान का भी 

कोई 

कारोबार खोज पाता।

काश 

तुम्हारे लिए

सजा पाता कोई

रंगों भरा आसमान।

जानता हूँ

कि 

फटे लिबास में

तुम्हारी हंसी

मुझे 

चेताती है हर बार

दिखाती है

हमारे समाज को आईना।

तुम्हारी मुस्कान निश्छल है

लेकिन 

तुम्हारी भूख 

हमारे समाज के चेहरे पर तमाचा। 

मैं जानता हूँ

तुम सशक्त हो

क्योंकि तुम

भूख की पीठ पर बैठ

मुस्कुरा रहे हो...। 

हमारी दुनिया में 

बचपन 

अब 

तुम्हारी तरह कहाँ जीया जा सकता है।

मैं जानता हूँ

तुम्हारी दुनिया में 

प्यार एक गुब्बारे की तरह है

और 

हमारे यहाँ बचपन 

उम्र के गुब्बारे की तरह 

होकर 

गुबार सा हो जाता है।

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

एक सदी का सूखापन

 


तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ

जानता हूँ

अगली सदी

बिना फूलों की होगी।

इन्हें रख लेना

डायरी के 

पन्नों के बीच

उम्र के पीलेपन

के साथ 

संभव है

इन्हें भी 

जीना पड़े 

एक सदी का सूखापन।

सहेज लेना इन्हें

कम से कम 

पीढ़ियां 

देख तो सकेंगी 

इन्हें छूकर

और 

शायद इसी तरह बच सके

इनकी खुशबू

हमारा 

फूलों से प्रेम 

और 

फूलों 

के शरीर...।

जानता हूँ

किसी को फर्क नहीं पड़ता 

कि 

क्या कुछ खो चुके हैं हम।

फर्क पड़ेगा

जब हम

एक सूखे संसार में

रेतीले जिस्म

और 

सूखी आत्मा के बीच

हम 

नहीं खोज पाएंगे

कोई पक्षी

कोई फूल

कोई जीवन

और 

कोई उम्मीद...।


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...