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रविवार, 30 मई 2021

मैं तुम्हें बादल नहीं दे सकता

 


मैं तुम्हें

बादल नहीं दे सकता

तुम चाहो तो

कोई एक दिन मांग लो

कोई बोनसाई दिन।

बादल में

कुछ

तुरपाई रह गई है

बादल कराह रहा है

दर्द से

उम्मीदों की चुभन

गहरी होती है।

हर आंख घूर रही है।

देखो सच

कहूँ

वो बारिश का बढ़ता

बोझ

अधिक नहीं ढो

पाएगा

फट जाएगा तार तार

हो जाएगा।

क्या अब भी चाहती हो

वो थका सा बादल।

हां

मैं जानता हूँ

तुम्हें

सपने बुनने हैं

मेरी मानो

तुम बोनसाई दिन

रख लो।

मैं बादल की

तुरपाई करता हूँ

तब तक तुम

जीवन बुन लेना।

एक दिन जब

बादलों की बेबसी

नहीं होगी

जब तुम

सपने गूंथ चुकी होगी

मैं

सुई और धागा

बादल की पीठ पर रख

सपनों के उस

बोनसाई घर में

लौट आऊंगा।

सच मैं तुम्हें बादल

नहीं दे सकता।

शनिवार, 29 मई 2021

छत पर ठहाकों की हाजिरी


 घर

कुछ

पिल्लरों पर

टेकता है

अपना भारी भरकम शरीर।

पहले

उन्हें खुशियां

कहा जाता था

अब

कर्ज में

दबे

व्यक्ति का चीत्कार।

पहले घर की

जमीन और दीवारें

हरदम साथ

महसूस होती थीं

अब

जमीन पर

कोई है कहां।

घर बड़े हो गए हैं

आदमी हो रहा

बहुत छोटा।

कच्चे

घर की दीवारों की

दरारें भी

कच्ची होती थीं

मन के लेप से

भर जाया

करतीं थीं।

अब घर और दीवारें

पक्की हैं

दरारें

नज़र नहीं आतीं

होती हैं

आसानी से

भरी नहीं जातीं।

पहले

जिसकी छत

वो

सबसे धनी

कहा जाता था

हवा और धूप

खुलकर पाता था।

अब छतें हैं

हवा

और धूप भी हैं

बस

आदमी

का रिश्ता

उस छत से

टूट गया।

पहले रोज पूरा

घर

छत पर

ठहाकों की हाजिरी

लगाता था

अब

पूरी उम्र

छत के नीचे

ही बिताता है

ठहाकों को छत पर

कहीं

छोड़ आई है

ये नई सदी...।

शुक्रवार, 28 मई 2021

हिज्जे वाले सबक के बीच



मन में
कहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
अक्सर।
तुम कहती हो
मैं
पढ़ लेता हूँ
तुम्हें
अक्सर तुमसे पहले।
ये जो
हम हैं
ये
जो
हमारी नेह गंध है
ये
कहीं
हमारे शब्दों का
एक ग्रंथ है
जो
तुम पढ़ जाती हो
एक पल में
हजारों बार
और में
जी लेता हूँ
तुम्हें
शब्दों के पार...।
आओ
छूकर देखते हैं
दीवार
जहाँ
अक्सर
हम रहते हैं
शब्दों के व्याकरण
के बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।


बुधवार, 26 मई 2021

गली के नुक्कड़ का लैटर बाक्स


 सुनो ना..

वो

गली के नुक्कड़ का

लैटर

बाक्स

कितना बूढ़ा हो गया है।

कल

ठहरा था कुछ पल

उसके करीब।

उम्र

का भारीपन

शरीर पर हावी हो गया है

हां

लेकिन वो कुटिल

मुस्कान नहीं गई

अब तक।

मैं नेटवर्क नहीं मिलने से

उस पर हाथ टेककर

खड़ा था

वो ठहाके लगाने लगा

वो पूछ रहा था

बातों में और रिश्तों में

गरमाहट

बाकी है अभी।

मैं चुप हो गया

वो देखता रहा

मैं नज़र चुराने लगा

तभी उसने

तीन पुरानी और पीली

चिट्ठियां मेरी ओर

बढ़ा दीं।

मैं अपलक देखता रहा

उनके छूते ही

कुछ अजीब सा हुआ

तुम

और

तुम्हारा वो

शब्द हो जाना

याद आ गया।

चिट्ठी की पीठ पर

लिखे पते

धुंधले हो चुके थे।

खोलकर देखा

लैटर बाक्स ने पूछा

क्या हुआ

किसका है ये

बिसराया हुआ खत।

मैं

डबडबाई आंखों को पोंछते

हुए बोला

पिता का मेरे लिए।

अब पिता नहीं हैं

केवल खत है

उनकी लेखनी

और छूकर

देखी जा सकें

वो भावनाएं..।

दूसरा खत

पड़ोस के मिस्त्री का था

जो

अपने बेटे को

बताना चाहता था

मरने से पहले

कि

वह उसे

बहुत चाहता है।

तीसरे खत पर

पानी ने

मिटा दी थी

पहचान

बस

अंदर लिखा था

कभी तो

एक चिट्ठी लिख दिया कर

बेटा

हममें प्राण आ जाते हैं...।

दो खत

लैटर बाक्स को लौटाकर

लौट आया

घर

पिता की चिट्ठी लिए...।

भीड़ के पैरों में गहरे छाले हैं



खोज

के परे एक और

संसार है।

चेहरे हर बार

बिकते नहीं

चेहरों

का

अपना लोकतंत्र है।

थकी हुई

भीड़

बदहवास विचारों से

दूर भाग रही है।

भीड़

के पैरों में

युग से

गहरे छाले हैं।

छाले

शोर मचा रहे हैं

गर्म रेत पर

दूर कहीं

कोई

पानी बेच रहा है

रेत के चमकीले मटकों में।

आवाज़

के पैर हैं

वो

घुटने के बल

रेंग रही है

दरिया में

अगली सुबह तक...।


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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र 

सोमवार, 24 मई 2021

धूप दिखाना चाहता हूँ सपनों को


सीले से

सपने

रंग खोते हैं

कुछ पीले

से

फीके रंग के

सपने।

कुछ जो

बचपन में

दबाये थे

मिट्टी के घरों में

महक रहे हैं

अब भी।

सपनों के पैर होते हैं

चेतना भी

तभी

हमारी अचेतन अवस्था में

खटखटाया करते हैं

मन के कपाट।

वो

जागते हैं

पूरी रात।

हां, बस सपनों की

उम्र

तय होती है

हमारी चेतना के

कोलाहल पर।

वे रंगहीन

हो जाते हैं

जब

रख दिए जाते हैं

मन के किसी

बंद से रौशनदान के करीब

जहां नहीं मिलती

सपनों को प्राण वायु।

हां पीले से सपने

जीवित रहते हैं

सदियों तक...।

अबकी सपनों को

स्याह अंधेरे से निकाल

धूप दिखाना चाहता हूँ

पकती उम्र

के पथराये रास्तों पर।

...........


आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ, वशिष्ठ जी...। खंडवा, मप्र। आदरणीय बैजनाथ जी देश के उन ख्यात आर्टिस्ट में से हैं जिन्होंने अपनी पूरी उम्र कला को समर्पित की है, उनका पसंदीदा विषय (गहराई) है

वृक्ष की मौत एक सदी की मौत है

 


एक दिन

केवल थके हुए शरीर होंगे

झुलस चुके

मन

विचार और मानवीयता लेकर। 

बिलखते बच्चों को छांह 

नहीं दे पाएंगे

चाहकर भी।

परछाईयों 

की तुरपाई कर

नहीं

बना पाएंगे

हम

कोई वृक्ष।

हांफते शरीर 

झुलसते बच्चों के सिर 

ओढ़ा देंगे

परछाई की 

आदमकद सच्चाई। 

सूखी जमीन 

तब नहीं पिघलेगी

हमारे आंसुओं से भी

क्योंकि

हमारे आंसू

में केवल दर्द का 

नमक होगा

और 

इतिहास गवाह है

नमक पाकर जमीन

बंजर हो जाया करती है।

वृक्षों को

देख लेने दीजिए

बच्चों को

कि 

कोई कल

ऐसा भी आएगा

जब 

जंगल 

ठूंठों के रेगिस्तान होंगे

कुओं में

पानी की जगह

सूखी अस्थियां होंगी

बेजान परिंदों की।

हवा से उम्मीद भी

सूख जाएगी

क्योंकि 

रेगिस्तान में 

हवा 

का कोई शरीर नहीं होता

मन नहीं होता 

और आत्मा तो 

कतई नहीं होती।

हमारी सभ्यता में 

सब

यूं ही

छूटता जा रहा है पीछे

एक दिन

आदमी 

और

जिंदगी की हरेक उम्मीद

छूट जाएगी बहुत पीछे

तब केवल

चीखता हुआ अतीत होगा

जो 

मानव सभ्यता के मिट जाने पर

चीखेगा

और कहेगा

काश जाग जाते 

समय पर

बच्चों के लिए

अपने लिए...। 

एक वृक्ष की मौत

एक सदी की मौत है

ये 

सबक समझ लीजिए

क्योंकि 

बिना जीवन

सदी 

बहुत खौफनाक लगेगी। 


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...