फ़ॉलोअर

बुधवार, 28 जुलाई 2021

जिंदगी जहाज होती है

जिंदगी 
जहाज होती है
पानी का जहाज।
कभी
सतह पर 
शांत
बहती
कभी
तेज हवा में 
हिचकोले लेती।
कभी
मीलों चलकर मुस्कुराती
कभी
पल भर में 
खीझ जाती।
कभी
अथाह सागर पर 
लिख देती
भरोसा
कभी
धोखे पर 
चीख उठती।
कभी
तैरते हुए किनारे लग जाती
फिर 
लौट आती
बीच समुद्र के
कभी
किनारे ही डूब जाती।
जिंदगी
जहाज है
पानी का जहाज।
कभी
शांत लहरों पर
गीत गुनगुनाती
कभी
तूफान में
भयाक्रांत हो जाती।
जहाज
और 
जिंदगी
दोनों में समानता है
कि
दोनों
उम्रदरा़ज होकर
किनारे
लग जाते हैं
और 
एक दिन
टूटकर
बिखर जाते हैं...।


मंगलवार, 27 जुलाई 2021

जिंदगी मुस्कुरा उठेगी



जब
खुशी से
सराबोर
हम दोबारा बुनेंगे
जीवन।
ये
भय की अंधियारी
बीत जाएगी।
सुबह
खुलकर
मिलेंगे
गले
और
लगाएंगे मरहम
अपनों के दर्द पर।
बेहद कठिन सफर है
आंखों में
अपनों के असमय चले जाने का
दर्द
कहीँ कोरों पर
नमक के बीच
आ ठहरा है।
आएगी सुबह
जब
थमी सी जिंदगी
मुस्कुरा उठेगी...।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

उनका जंगल...हमारा जंगल

तुम्हें जंगल चाहिए
मुझे भी।
तुम्हें
उसे रौंदकर 
बनाना है
चीत्कार करता
महत्वाकांक्षी नगर।
मुझे
केवल जंगल चाहिए
जिसमें
हमारे जंगल का प्रतिबिंब 
नजर न आए।
हमारा
जंगल तुम रख लो
जिसमें
केवल सूखा है
चीख हैं
और कुछ
अस्थियां
सूखी हुई
उन वन्य जीवों की 
जिनसे हम छीन चुके हैं
उनका जंगल...।
तुम 
जंगल 
को नहीं समझ सकते
क्योंकि
हम 
अमानवीय और हिंसक हैं।
छोड़ दीजिए
उनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

मैंने देखा है तुम्हें तब भी


 

मैंने देखा है अक्सर

तुम्हें

तब बहुत करीब से

जब 

तुम 

अक्सर थककर सुस्ताती हो 

और सोचती हो पूरे घर को

थकी हुई रात के बाद

अगली सुबह के लिए।

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी

जब उम्र के थक जाने के निशान

तुम्हारे 

चेहरे पर

तब गहरे हो जाते हैं

जब देखती हो तुम

काले बालों के बीच 

एक या दो सफेद बाल

जिन्हें तुम

आसपास देखकर

चुपचाप छिपा लेती हो 

काले बालों के नीचे। 

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी 

जब कोई नहीं उठता

तब

सबसे पहले तुम्हारी टूट जाती है नींद

अक्सर

जिम्मेदारियों को पूरी रात बुनते हुए।

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी 

जब अक्सर थकी हुई तुम

पूरे घर से आसानी से छिपा लेती हो

अपना दर्द, अपनी पिंडलियों की सूजन।

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी

जब कोई भागते हुए

ठहरकर पूछ लेता है 

तुम्हारे आंखों के नीचे 

गहरे होते काले घेरों के बारे में

और तुम मुस्कुरा देती हो। 

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी 

जब अक्सर 

देर रात तक जागती रहती हो

और

दालान पर 

नींद को रखकर 

लेटी रहती हो बिस्तर पर

आहट पाते ही

सबसे पहले पहुंचती हो

और 

बच्चे को गले से लगाकर

कहती हो

देर मत किया करो

मैं 

सो नहीं पाती।

मैंने देखा है 

तुम्हें तब भी

जब मैं अक्सर थक जाता हूं

और तुम भी

तब अक्सर होले से 

तुम मेरे 

माथे पर रखती हो हथेली

कहती हो

परेशान मत होना

सब ठीक हो जाएगा। 

यकीन मानो

तुम्हारा स्पर्श 

मैं गहरे तक महसूस करता हूं

मैं केवल मुस्कुरा देता हूं

यह कहते हुए 

कि 

रख लिया करो

तुम भी अपना ध्यान

इस भागती जिंदगी में।

मैं

इससे अधिक कहता नहीं

तुम

समझ जाती हो

कि 

अक्सर

बहुत कुछ है

जो मैं कहना चाहता हूं

लेकिन 

कहता नहीं

क्योंकि

जानता हूं

यह घर ही है

जो तुम्हें थकने नहीं देता

यह घर 

हां

जिम्मेदारियों को अक्सर

ओढ़कर सो जाना

और

सुबह

उन्हें लिहाफ के साथ लपेटकर 

अलमारी में रख देना

आसान नहीं होता।

मैं तुम्हें देखता हूं 

और

जीता हूं

क्योंकि

तुम्हारे हर दर्द की कसक

पहले मुझे 

अहसास करवाती है 

कि

हम जिम्मेदार हो गए हैं

और 

उम्रदराज़ भी।


शनिवार, 17 जुलाई 2021

आदमी के दरकने का दौर


 

मुझे थके चेहरों पर

गुस्सा 

नहीं

गहन वैचारिक ठहराव 

दिखता है।

विचारों का एक

गहरा शून्य

जिसमें

चीखें हैं

दर्द है

सूजी हुई आंखों का समाज है।

थके चेहरों पर

पसीने के साथ बहता है

अक्सर

उसका धैर्य।

घूरता नहीं

केवल अपने भीतर

ठहर जाता है

अक्सर।

सफेद अंगोछे में

कई छेद हैं

उसमें से

बारी बारी से झांक रही है

बेबसी

और

उन चेहरों पर ठहर चुका

गुस्सा।

जलता हुआ शरीर

तपता है

मन तपता है

विचार से खाली मन

और अधिक तपता है

सूख गया है आदमी

आदमी के अंदर 

उसकी नस्ल की उम्मीद भी

यह 

दौर आदमी के दरकने पर

आदमी के मुस्कराने का भी है।

यह दौर

दरकते आदमी

का भूगोल कहा जाएगा।

मैं बचता हूं

ऐसे चेहरों को देखने से

क्योंकि वह

देखते ही चीखने लगते हैं

और

कहना चाहते हैं

अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।

चीखते चेहरों के समाज का मौन

अक्सर

बेहद खौफनाक होता है।


गुरुवार, 15 जुलाई 2021

प्रकृति हजार बार मरती है

 


हमें 

तय करना होगा

हमें 

धरा पर 

हरियाली चाहिए

या

बेतुके नियमों की

कंटीली बागड़।

हरेपन की विचारधारा

को

केवल 

जमीन चाहिए।

नियमों

में 

लिपटी

कागजों में

सड़ांध मारती

बेतुकी 

योजनाओं का 

दिखावा

एक दिन 

प्रकृति को 

अपाहिज बना जाएगा।

हमें 

जिद करनी चाहिए

हरियाली की

हमें 

तय करनी होगी

जन के मन की 

आचार संहिता।

हमें 

खोलने होंगी

स्वार्थ की जिद्दी गांठें

जिनमें

प्रकृति 

हजार बार

मरती है।

हमें

खोलने होंगे

अपने

घर

और 

दिल

जहां

धूप, बारिश और हवा

बेझिझक 

दाखिल हो सके।

सोचिएगा 

हरियाली

चाहिए 

या

सनकी सा सूखापन।

केवल खामोश रहने से

भविष्य

मौन नहीं हो जाएगा

वह चीखेगा..

हमारी पीढ़ियां

बहरी हो जाएंगी...।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

बेबसी का समाज


 

देखा है कभी

मदांध बारातियों के पैर के नीचे

दबे पैसे को उठाने

कुचले गए

हाथ को सहलाते

बच्चे के

रुआंसे चेहरे को। 

वह कई बार

आंखें मलता है

अंदर ही अंदर बिलखता है

अपने जीवन पर

अपनी बेबसी पर।

डबडबाई आंखों से 

नमक लेकर

मल लेता है

अपने हाथ पर 

आई खरोंचों के निशान से

बहते

खून पर।

हाथ में सिक्का दबाए

देखता है

उस

बाराती को

जिसकी जेब

नोटों से भरी है

और

वह नशे में धुत्त।

सोचता है

जितनी बार

जूते 

उसके हाथ को मसलते हैं

उतनी बार

एक समाज 

ढहता है

और 

दूसरा समाज

क्रूर सा

ठहाके लगाता है।

सहमी सी बेबसी

का 

समाज

अब भी

उस क्रूर ठहाके लगाते

समाज 

से नजरें नहीं मिला पाता

क्योंकि 

वह

बे-कद 

काफी नीचे है।

सोचता हूं

बराबरी का दर्जा

यदि शब्दों की भूख ही चाहता है

तो 

भूख 

और

तृप्ति के बीच

यह फासला

मिटता क्यों नहीं...?

सोचियेगा 

क्योंकि

भूख का जंगल

बहुत निर्दयी है

वहां

पेट से चिपटी अंतड़ियां

सवाल नहीं करतीं

केवल

वार करती हैं

अपने 

आप पर...।


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...