कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
फ़ॉलोअर
बुधवार, 28 जुलाई 2021
जिंदगी जहाज होती है

मंगलवार, 27 जुलाई 2021
जिंदगी मुस्कुरा उठेगी

शनिवार, 24 जुलाई 2021
उनका जंगल...हमारा जंगल

मंगलवार, 20 जुलाई 2021
मैंने देखा है तुम्हें तब भी
मैंने देखा है अक्सर
तुम्हें
तब बहुत करीब से
जब
तुम
अक्सर थककर सुस्ताती हो
और सोचती हो पूरे घर को
थकी हुई रात के बाद
अगली सुबह के लिए।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब उम्र के थक जाने के निशान
तुम्हारे
चेहरे पर
तब गहरे हो जाते हैं
जब देखती हो तुम
काले बालों के बीच
एक या दो सफेद बाल
जिन्हें तुम
आसपास देखकर
चुपचाप छिपा लेती हो
काले बालों के नीचे।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब कोई नहीं उठता
तब
सबसे पहले तुम्हारी टूट जाती है नींद
अक्सर
जिम्मेदारियों को पूरी रात बुनते हुए।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब अक्सर थकी हुई तुम
पूरे घर से आसानी से छिपा लेती हो
अपना दर्द, अपनी पिंडलियों की सूजन।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब कोई भागते हुए
ठहरकर पूछ लेता है
तुम्हारे आंखों के नीचे
गहरे होते काले घेरों के बारे में
और तुम मुस्कुरा देती हो।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब अक्सर
देर रात तक जागती रहती हो
और
दालान पर
नींद को रखकर
लेटी रहती हो बिस्तर पर
आहट पाते ही
सबसे पहले पहुंचती हो
और
बच्चे को गले से लगाकर
कहती हो
देर मत किया करो
मैं
सो नहीं पाती।
मैंने देखा है
तुम्हें तब भी
जब मैं अक्सर थक जाता हूं
और तुम भी
तब अक्सर होले से
तुम मेरे
माथे पर रखती हो हथेली
कहती हो
परेशान मत होना
सब ठीक हो जाएगा।
यकीन मानो
तुम्हारा स्पर्श
मैं गहरे तक महसूस करता हूं
मैं केवल मुस्कुरा देता हूं
यह कहते हुए
कि
रख लिया करो
तुम भी अपना ध्यान
इस भागती जिंदगी में।
मैं
इससे अधिक कहता नहीं
तुम
समझ जाती हो
कि
अक्सर
बहुत कुछ है
जो मैं कहना चाहता हूं
लेकिन
कहता नहीं
क्योंकि
जानता हूं
यह घर ही है
जो तुम्हें थकने नहीं देता
यह घर
हां
जिम्मेदारियों को अक्सर
ओढ़कर सो जाना
और
सुबह
उन्हें लिहाफ के साथ लपेटकर
अलमारी में रख देना
आसान नहीं होता।
मैं तुम्हें देखता हूं
और
जीता हूं
क्योंकि
तुम्हारे हर दर्द की कसक
पहले मुझे
अहसास करवाती है
कि
हम जिम्मेदार हो गए हैं
और
उम्रदराज़ भी।

शनिवार, 17 जुलाई 2021
आदमी के दरकने का दौर
मुझे थके चेहरों पर
गुस्सा
नहीं
गहन वैचारिक ठहराव
दिखता है।
विचारों का एक
गहरा शून्य
जिसमें
चीखें हैं
दर्द है
सूजी हुई आंखों का समाज है।
थके चेहरों पर
पसीने के साथ बहता है
अक्सर
उसका धैर्य।
घूरता नहीं
केवल अपने भीतर
ठहर जाता है
अक्सर।
सफेद अंगोछे में
कई छेद हैं
उसमें से
बारी बारी से झांक रही है
बेबसी
और
उन चेहरों पर ठहर चुका
गुस्सा।
जलता हुआ शरीर
तपता है
मन तपता है
विचार से खाली मन
और अधिक तपता है
सूख गया है आदमी
आदमी के अंदर
उसकी नस्ल की उम्मीद भी।
यह
दौर आदमी के दरकने पर
आदमी के मुस्कराने का भी है।
यह दौर
दरकते आदमी
का भूगोल कहा जाएगा।
मैं बचता हूं
ऐसे चेहरों को देखने से
क्योंकि वह
देखते ही चीखने लगते हैं
और
कहना चाहते हैं
अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।
चीखते चेहरों के समाज का मौन
अक्सर
बेहद खौफनाक होता है।

गुरुवार, 15 जुलाई 2021
प्रकृति हजार बार मरती है
हमें
तय करना होगा
हमें
धरा पर
हरियाली चाहिए
या
बेतुके नियमों की
कंटीली बागड़।
हरेपन की विचारधारा
को
केवल
जमीन चाहिए।
नियमों
में
लिपटी
कागजों में
सड़ांध मारती
बेतुकी
योजनाओं का
दिखावा
एक दिन
प्रकृति को
अपाहिज बना जाएगा।
हमें
जिद करनी चाहिए
हरियाली की
हमें
तय करनी होगी
जन के मन की
आचार संहिता।
हमें
खोलने होंगी
स्वार्थ की जिद्दी गांठें
जिनमें
प्रकृति
हजार बार
मरती है।
हमें
खोलने होंगे
अपने
घर
और
दिल
जहां
धूप, बारिश और हवा
बेझिझक
दाखिल हो सके।
सोचिएगा
हरियाली
चाहिए
या
सनकी सा सूखापन।
केवल खामोश रहने से
भविष्य
मौन नहीं हो जाएगा
वह चीखेगा..
हमारी पीढ़ियां
बहरी हो जाएंगी...।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021
बेबसी का समाज
देखा है कभी
मदांध बारातियों के पैर के नीचे
दबे पैसे को उठाने
कुचले गए
हाथ को सहलाते
बच्चे के
रुआंसे चेहरे को।
वह कई बार
आंखें मलता है
अंदर ही अंदर बिलखता है
अपने जीवन पर
अपनी बेबसी पर।
डबडबाई आंखों से
नमक लेकर
मल लेता है
अपने हाथ पर
आई खरोंचों के निशान से
बहते
खून पर।
हाथ में सिक्का दबाए
देखता है
उस
बाराती को
जिसकी जेब
नोटों से भरी है
और
वह नशे में धुत्त।
सोचता है
जितनी बार
जूते
उसके हाथ को मसलते हैं
उतनी बार
एक समाज
ढहता है
और
दूसरा समाज
क्रूर सा
ठहाके लगाता है।
सहमी सी बेबसी
का
समाज
अब भी
उस क्रूर ठहाके लगाते
समाज
से नजरें नहीं मिला पाता
क्योंकि
वह
बे-कद
काफी नीचे है।
सोचता हूं
बराबरी का दर्जा
यदि शब्दों की भूख ही चाहता है
तो
भूख
और
तृप्ति के बीच
यह फासला
मिटता क्यों नहीं...?
सोचियेगा
क्योंकि
भूख का जंगल
बहुत निर्दयी है
वहां
पेट से चिपटी अंतड़ियां
सवाल नहीं करतीं
केवल
वार करती हैं
अपने
आप पर...।

अभिव्यक्ति
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...
-
यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
-
नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
-
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...