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शनिवार, 12 नवंबर 2022

फूल ही तो हैं


ये जो पत्तों का बिछौना है
दरअसल
हरेक फूल को 
नसीब नहीं होता। 
सूखकर गिरना 
और 
जमीन में 
खाद हो जाना 
एक सच है
लेकिन 
रोज असंख्य फूल टूटते हैं
गिरते हैं
कहां सुनाई देती है
हमें कुछ टूटने की आवाज़
कहां सुनाई देता है हमें
घटता मौन...। 
फूल ही तो हैं
टूटकर बिखर ही जाएंगे
हां 
दर्द हमें 
तब सुनाई देता है 
जब हम टूटते हैं 
या हममे से कोई एक टूटता है। 
इस धरा पर 
न जाने कितना कुछ दरक जाता है
हमारे कारण। 
हां फूल ही तो हैं
उनका दर्द कहां सुनाई देता है। 

सोमवार, 7 नवंबर 2022

प्रदूषण बहुत है

 वह

साठ बरस का व्यक्ति

हंसते हुए कह रहा था

कि 

बाबूजी पुरवाई तो मर्दांना हवा है

उससे कोई दिक्कत नहीं

वह बीमार नहीं करेगी।

हां

पछुआ जो जनाना हवा है

उससे बचियेगा

वह बीमार कर देगी।

मैं सोचने लगा

जिसकी कोख से जन्म लिया

जिसने पूरी उम्र संवारा

जिसने 

पीढ़ी को बढ़ाया

वही जनाना

विचारों में इतनी दर्दनाक इबारत क्यों है?

सोचता हूं

हमने कैसा समाज बनाया है

हवाओं को अपने स्वार्थ और जिद के अनुसार

नामों और सनक में बांट दिया है।

तभी तो पर्यावरण अधिक खराब है

और 

सुधर नहीं रहा 

क्योंकि केवल

बात प्राकृतिक पर्यावरण की नहीं

सामाजिक पर्यावरण की भी है।

सोचता हूं 

भला कब तक नोंचते रहेंगे हम

अपनों को

सच को

और

मानवीयता को।

कब उतार फैंकेंगे हम

अपनी भोली शक्ल पर चिपटा रखे

बेशर्म विचारों को।

बदल दीजिए क्योंकि

प्रदूषण बहुत है। 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

हम बदल रहे हैं


रात भर ठंड में

कराहता रहा एक शख्स

दरवाजे पर उसके

दस्तक भी दी

और

कराह भी गूंजी।

नहीं टूटी नींद

और 

न ही खोला द्वार।

सुबह

वह शख्स मर गया

दरवाजा खुला 

उस पर चादर ओढ़ा दी गई

और 

चार लोग सहानुभूति में एकत्र किए गए

करवा दिया गया उसका अंतिम संस्कार।

लोग 

उसे बड़ा समाजसेवी कह

थपथपा रहे थे पीठ

वह विनम्र होकर भीड़ के सामने रोनी सूरत लिए

कोस रहा था उस रात की नींद को।

मुस्कुराता वही व्यक्ति 

दोबारा घर में दाखिल हुआ

और

सोफे पर पसरकर 

हाथ में गिलास लेकर 

पलटाने लगा 

मैग्जीन के नग्नता से भरे पन्ने

ठहाके लगाकर हंसने लगा

यह कहते हुए 

हां 

कल रात नींद बहुत मीठी थी

और 

आज का दिन यादगार। 


गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ठौर

 


कदंब मन में कहीं
उग आया है
उसके अहसास हमें
खींच रहे हैं अपनी ओर।
कदंब का पेड़
अब भी रीता है
इन गर्बीले फलों के साथ
इंतज़ार में
तुम्हारे कान्हा।
फिर बसा दीजिए ना
वृंदावन
फिर छेड़ दीजिए ना
बांसुरी की तान
देखिए अब भी
गोपियां वहीं आपका इंतज़ार कर रही हैं
और रोज
बुहार रही हैं
कदंब का ठौर।

सोमवार, 31 अक्टूबर 2022

सबकुछ कहां पिघलता है


यह हम हैं
हमारा वक्त
हमारी उम्र
और
जीवन का संपूर्ण दर्शन।
सब कुछ तो पिघल जाता है
तपता है
बनता है
टूटता है।
देखो पिघलते दौर में
कुछ सपने अब भी हैं उस लौ के इर्दगिर्द।
सुना है
पिघल जाता है
वक्त
और 
इतिहास।
देखो उस रौशनी के इर्दगिर्द 
कुछ सीला सा वक्त है
और सपने भी।
जो वक्त सूख रहा है
हमारे लिए। 
उससे दोबारा बुनेंगे 
हम 
अपने आप को
अपने विचारों और सपनों की दरारों को।
देखना सबकुछ कहां पिघलता है
बचे रह जाते हैं
कहीं न कहीं हम 
और हमारा भरोसा, साथ और बहुत कुछ अनकहा सा।


 

रविवार, 30 अक्टूबर 2022

प्रकृति


एक छोटी कविता...

एक सुबह
हम जागे
और 
प्रकृति 
निखर उठी।


 

शनिवार, 24 सितंबर 2022

चेहरों के आईने में


 वक्त 
हमारे
चेहरे बदलता है
वक्त
पढ़ा जा सकता है
हमारे चेहरे पर।
वक्त देखा जा सकता है
शब्दों में
उनके अर्थ और भाव में।
वक्त 
महसूस होता है
हर पल के मौसमी दंश में। 
वक्त महसूस होता है
अंदर से बढ़ते हौंसले में
कुछ अलग से सबक पढ़ने में
हर बार 
थककर खड़ा होने में।
चेहरों के आईने में
व्यवहार के खारेपन में
चुटकी भर मिठास में
और 
अपने किसी खास की 
हौंसला अफजाई में। 
वक्त 
नज़र आता है उम्र पर
और 
जीवन में।
वक्त के चेहरे नहीं होते
हमारे होते हैं।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...