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मंगलवार, 11 मई 2021

ये हार है

 

सुबकते हुए

सुना है

नदी को।

पानी में उसके आंसू

सतह पर तैर रहे थे

उन शवों के इर्दगिर्द

जहां 

उम्मीद हार गई थी।

जहां

मानवीयता हार गई थी

जहां

जीवन हारकर घुटनों के बल आ गया था।

नदी

का रोना

सदी का रोना है

नदी 

शवों को नहीं ढो पाएगी

उसे

उसकी नजरों में मत गिराईये

नदी 

चीख नहीं सकती

नदी

मौन को पीकर

धरातल में लौट जाएगी

सदियों 

नहीं लौटेगी

वह धरा पर

क्योंकि उसका अवतरण

जीवन के लिए हुआ था

शवों को

ढोने के लिए कदाचित नहीं।

सोचियेगा

इस सदी के चेहरे पर एक दाग है

इस दौर में

एक नदी

जीवन ढोते हुए

अनचाहे ही

शवों को ढोने लगी

ओह

ये 

हार है

इसके अलावा और कुछ भी नहीं।

सोमवार, 10 मई 2021

सांझ का रात होना


 

उम्र की सुबह

में

सांझ

अक्सर

बेज़ार होती है।

धूप, बवंडर और जीवन

दोपहर

का अर्थ

समझाते हैं।

दोपहर

के सिराहने

कहीं

सांझ बंधी होती है

जैसे

तेज प्रवाह

वाली

नदी के किनारे

बंधी होती हैं

बेबस

और

कर्मठ नौकाएं।

सांझ

किनारे पर

बैठी किसी

स्त्री के समान होती है

जो

पूरे दिन को

जी जाती है

एक उम्र की तरह

इस भरोसे की

सांझ है ना

सुस्ताने के लिए

अपने लिए।

दोपहर

से सांझ का सफर

लौटने की

अनुभूति है।

सांझ समझी जा सकती है

सांझ के समय

उम्र के उस

तटबंध पर बंधी नाव

की

खुलने को आतुर

गांठ की जद्दोजहद में।

उस स्त्री में

उसके उम्र जैसे

दिन में

उस शांत होते

पक्षियों के कलरव में

जो

सुबह अगले दिन को दोबारा

पढ़ने के लिए

घोंसले में दुबक जाते हैं

सांझ और रात के

मिलन से पूर्व।

सांझ का रात होना

ही

सुबह की प्रसव पीड़ा है।

शुक्रवार, 7 मई 2021

हर आदमी कविता नहीं होता


 कोई कविता

कहीं

जड़ से 

अंकुरित होती है

जैसे

आदमी।

हां आदमी शब्दों

के बीच

भाव 

होता हुआ

मात्राओं में ढलकर

कविता हो जाता है।

कविता 

आदमी 

की तमीज़ 

है

और 

आदमी का

वैचारिक पहनावा भी।

आदमी से 

झांकते हैं 

कई

आदमी

हर आदमी 

कविता नहीं होता 

अलबत्ता 

पढ़ा जाता है। 

कविता 

स्मृति में ठहर जाती है

आदमी 

से झांकते आदमियों की 

भीड़

स्मृति

को नहीं छूती

वे 

झांकते आदमी

पूरे शब्द नहीं है

अलबत्ता हल्लंत हो सकते हैं।

आदमी,भाषा और प्रकृति

रिश्तों का

अनुबंध हैं

ठीक वैसे ही

जैसे

आदमी और उसके विचार।

आदमी से खर्च होते 

कई

आदमियों

की भीड़

के क्षरण को

अंकुरण

में 

परिभाषित 

किया जा सकता है

ठीक 

कविता के भाव की तरह।

गुरुवार, 6 मई 2021

काश वो सब देख लिया होता


 हमें 

नज़र नहीं आतीं

पेड़ों की अस्थियां 

और उन पर रेंगते 

समय की पीठ पर

हमारे कुचक्र।

हमें 

नज़र नहीं आते

सूखे 

पेड़ों के जिस्मों पर

कराहती कतरनें।

हमें

नज़र नहीं आती

उम्रदराज़ पेड़ों 

की पिंडलियों की सूजन।

हमें नज़र नहीं आती

उनके 

शरीर पर 

अंकुरण का गर्भ होती

मिट्टी भरी छाल।

हमें नज़र 

नहीं आता

वृक्ष और आदमी के बीच

अपंग होता रिश्ता।

ओह !

कितना कुछ 

नहीं देखा 

हमने अपने जीवन में..।

हमने देखे 

केवल खिलती 

कलियां

फूलों के रंग

उनकी खुशबू पर 

बहकता भंवरा

आरी

कुल्हाड़ी

मकान 

सड़क

सुविधाएं

अपने बरामदे

अपने 

दालान

अपने बच्चे

अपना जीवन।

जंगल 

को शहर बनाने 

का सपना

और

भी बहुत कुछ...।

देखना 

हमारी आवश्यकता नहीं

हमारी 

होड़ है

अपने से

प्रकृति से

जंगल से...।

हम सब भाग रहे हैं

हमारे पीछे 

शहर

फिर 

हमारे कर्म

फिर 

बेबस और बेसुध पीढ़ी...

काश

वो सब 

देख लिया होता

कुछ ठहरकर...।

बुधवार, 5 मई 2021

आईये सुबह बुनते हैं


आईये सुबह बुनते हैं

वह सुबह 

जिसका इंतजार 

सभी को है

वह

सुबह जिसमें

दादाजी बगीचे में 

हमउम्र साथियों के साथ 

ठहाके लगाकर

लौटें 

और

घर पहुंचकर खूब किस्से सुनाएं

अपने उम्र से थककर जीते 

साथियों के।

वह सुबह

जब पिता बेखोफ होकर

अखबार हाथों में लेकर

सोफे पर

बैठकर

बतियाएं

और 

बीच में

चाय के देरी पर

कई बार शोर मचाएं।

वह सुबह

जब बच्चे दोबारा 

स्कूल जाने को 

हो जाएं तैयार 

और

बस वाला

हमेशा की तरह

घर के बाहर

हार्न बजाए।

वह सुबह

जब पूजा के लिए

फूल लेने

दादी 

अलसुबह ही

बगीचे चली जाएं।

वह सुबह

जब थक चुकी मां

के चेहरे पर

परिवार को मुस्कुराता देख

झूमने लगे घर। 

वह सुबह

जब रसोई खिलखिलाए

दालान

मुस्कुराए।

अखबार वाले के चेहरे पर

दोगुनी फुर्ती 

दूध वाले के चेहरे पर

सयानी सी हंसी

प्रेस वाले के चेहरे पर

उम्मीद के सुकड़न 

के बाद

सपाट सी मुस्कुराहट नजर आए।

वह सुबह

जब सोशल मीडिया

दुख को भूल जाए

केवल 

खुशियों वाली ही सूचनाएं लाए।

वह सुबह

जब बाजू वाले शर्मा जी

बिजली के 

बिल पर 

चीखने की बजाए

मूंछों पर ताव देकर

हंसते नजर आएं।

वह सुबह 

जब

इन बोझिल दिनों की

याद न सताए।

वह सुबह

जब अपनों का कांधा हो

अपनों का साथ हो

अपनों का हाथ हो

अपनों की बात हो

अपनों से 

गले लगने की आजादी हो।

वह सुबह

जब हम भी 

अपनी धरती पर 

पहले की भांति

खूब उडें़

पंछी बनकर।

वह सुबह

जब पक्षियों का कोई झुंड

हमारी छत पर

डाले बसेरा

बतियाए 

और 

धैर्य बंधाए।

वह सुबह 

जो पानीदार हो

हवादार हो। 

वह सुबह

जिसमें 

न कोई मास्क

न कोई दवा

न कोई दूरी

न ही 

घर में दुबकने की मजबूरी।

बस धैर्य रखिये

सुबह आने को है।

ये मानिये

कि

जब 

रात अधिक स्याह हो

तब 

सुबह 

की दमक

हमारे लिए होती है।

सोमवार, 3 मई 2021

अब चंद्रमा नहीं, वे बच्चे रोटी मांग रहे हैं


अचानक क्यों 

लगा 

कि हम

जमीन पर भी

चल नहीं पा रहे 

अपने पैरों।

हमें चंद्रमा अब

नजर आने लगा है

घर की रोटी में।

चूल्हे की 

अधिक सिकी रोटी

आधी जली हुई

चंद्रमा जैसी 

होती है।

झोपड़ी के बाहर 

खाट पर लेटे बच्चे

उस रोटी से

ढांक रहे हैं

चंद्रमा को।

वे नहीं जानते

उन्होंने

एक सदी के झूठ को 

ढांक दिया है

रोटी से। 

भूखे दौर में

कोई बच्चा

अब

नहीं मांग रहा चंद्रमा

क्योंकि 

वे रोटी मांग रहे हैं।

हमें रोटी चाहिए

तब

चंद्रमा पर पहुंचने की कोई

सीढ़ी

का सपना

किसी किताब में 

अच्छा लगेगा।

पहले

अमावस हो चुके दिनों में

स्याह

होते हालातों 

और

बेगैरत रिश्तों के बीच

आप 

एक

सभ्य समाज 

की कोई 

गोल रोटी बेलियेगा। 

भूखे और परेशान लोग

रोटी को 

चंद्रमा कहेंगे। 

ये दौर

अंगीठी है

आदमी

तप रहा है 

सुर्ख है

उसे

छूने वाली

और 

खाने वाली

रोटी दे दीजिए

क्योंकि

वे

अब भूखे 

और 

अंतड़ियों से चिपटे पेटों

रोटी को

ख्वाब में 

नहीं 

पचा पाएंगे।

कीजिए कुछ

जिससे

तपती हुई

इस मानसिकता पर

और फफोले न आने पाएं

क्योंकि

ये छाले

समय के चेहरे पर हैं

और

समय के चेहरा

बेदाग ही अच्छा लगता है।

समय की किताब में

हरेक का चेहरा

स्पष्ट उभरता है

तुम्हारा भी 

उनका भी 

जो

चेहरा खो चुके हैं

उनका भी 

जो

परेशान हैं, भूखे हैं।

बेचेहरा

समाज को गढ़ना

भले ही तुम्हारी भूल है

लेकिन

ये तुम्हें सदियों परास्त करेगी। 

रविवार, 2 मई 2021

जंगल, कंटीला जंगल


 मैं सूखा कहता हूँ

तुम रिश्तों का 

जंगल दिखाते हो।

मैं दरकन कहता हूँ

तुम टांकने के 

हुनर पर 

आ बैठते हो।

मैं जमीन कहता हूँ

तुम अपना कद 

बताते हो।

मैं आंसुओं के 

नमक पर कुछ कहता हूँ

तुम मानवीयता का 

देने लगते हो हलफनामा। 

मैं प्यास कहता हूँ 

तुम

सदियों पुरानी जीभ 

फिराते हो

नागैरत होंठों पर।

मैं जंगल कहता हूँ

तुम चतुर 

इंसान हो जाते हो।

बस 

अब मैं कुछ नहीं कहूँगा

केवल देखूंगा 

तुम्हारी पीठ पर 

इच्छाओं का पनपता 

कंटीला जंगल...।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...