कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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बुधवार, 23 जून 2021
यहां केवल फरेब है

मंगलवार, 22 जून 2021
शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता
प्रेम
सूखे पत्तों पर
लिखा जा सकता है
लेकिन
उस पर
भाषा और भाव
केवल प्रकृति ही उकेर सकती है।
प्रेम
व्यक्त किया जा सकता है
केवल अहसास में
बुजुर्ग होते शरीरों के दरमियान।
प्रेम
देखा जा सकता है
चातक की
प्रतीक्षा के प्रतिपल
प्रबल होते विश्वास में।
प्रेम
स्पर्श किया जा सकता है
सूखी धरती के
फटे शरीर की
दरारों में
उगते किसी
अकेले
अंकुरण की
पीठ को सहलाकर।
प्रेम
तृप्ति दे सकता है
हजारों योजन
की यात्रा
करते
उन पक्षियों को
जिन्हें
भरोसा है
अब भी
हमारी आदमीयत पर
जो
कंठ तृप्त करने
अब भी
उतर आते हैं
हमारे सूखते शहरों की
गर्म और तपती
छतों पर
झुलसती उम्मीदों की पीठ पर रखे
सकोरों के पानी पर।
प्रेम
में प्रेम से ही
प्रेम का
अंकुरण फूटता है
प्रेम
यहां कभी भी आदमखोर नहीं होता
प्रेम
अब भी
पक्षियों के थके हुए
परों
में झुलसती गर्मी के बीच
छांह भर लेने
के संकल्प का ही दूसरा नाम है।
शरीर
और
प्रेम
एक-दूसरे के पूरक हैं
क्योंकि
शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता
और प्रेम
का कोई शरीर नहीं होता।
प्रेम
अलसुबह
तुम्हारे चेहरे की
उस
उनींदी मुस्कान का नाम है
जिससे
ये घर
और
ये दालान
जिसमें
एक बूढ़ा नीम भी है
प्रेम करते हैं।

सोमवार, 21 जून 2021
गरीब की झोपड़ी का भूगोल
गरीब
की झोपड़ी का भूगोल
क्या कभी
किसी चुनाव का
पोस्टर होगा ?
गरीब
किसी चुनाव में चयन का आधार होकर
विकास के दावों
की छाती पर
पैर रखकर
बना सकेंगे
कभी
अपनी भी कोई खुशहाल दुनिया।
पेट में अंतड़ियों का
विज्ञान
भूख के भूगोल में दबकर
हमेशा से
इतिहास होता रहा है।
टपकती झोपड़ियों में
सपने भी
हवा के साथ
झूलते रहते हैं
बांस की किसी कील पर
होले से लटके
किसी ख्यात फिल्मी सितारे के
पोस्टर की भांति।
पोस्टर में दरअसल
गरीब की
ख्वाहिशें झूलती हैं
आंखों में
सभ्यता के दो चमकीले बटन
और
शरीर पर
बेमेल और बेरंग से कपड़े
और
अमूमन
नंगा जिस्म।
गरीब
क्या है साहब ?
किसी
नाले के किनारे
गंदगी के बीच
जिंदगी की
जबरदस्त आपाधापी।
अर्थ में विभाजित
समाज में
उछाल दी जाने वाली
चवन्नी
या
आठ आना
जिसे
उठाने में
पैरों तले
अक्सर कुचल दिए जाते हैं
गरीबों के हाथ
इस बेरहम
जंगल में
भागते महत्वकांक्षी
मतभेद वाली
जिद के नीचे।
गरीब केवल चुनावी
बिल्ले की तरह है
जिसे चुनाव के दौरान
सफेदपोश
अपने कुर्ते पर सजाते रहे हैं
और चुनाव होते ही
कुर्ते सहित
उतार फेंकते हैं
उस गरीब बिल्ले को।
70 के दशक के
गरीब चुनावी बिल्ले
अब 21वीं
सदी तक आते आते
सठिया गए सिस्टम
की
सबसे बड़ी प्रदूषित
मानसिकता की विवशता कहलाते हैं।
अब
वे गरीब के साथ
नाउम्मीद गरीब हैं
जिन्हें केवल
रोटी
कपड़ा
और
श्रम में ही खोजना है
पसीने से चिपटी
देह वाला कोई
नमकीन सपना।
( बिल्ला का अर्थ पूर्व के वर्षां में जब चुनाव मतपत्र से हुआ करते थे तब नेताओं के पक्ष में बिल्ले बनाकर बांटे जाते थे जिन्हें कपड़ों पर लगाया जाता था )

शुक्रवार, 18 जून 2021
वो छांव कहां से लाऊं
जो मुस्कान बिखेरे
वो शब्द कहां से लाऊं।
जो तुम्हें बचपन दे दे
वो हालात कहां से लाऊं।
सख्त हो चली है मानवता की धरती
इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।

बुधवार, 16 जून 2021
सपने बुनता मजदूर अस्त हो जाता है
सुबह
सूरज के साथ
उग आते हैं
मजदूर सड़कों पर।
पूरा दिन
सिस्टम की अतड़ियों में
खोजते हैं
निवाले।
सूखते दिन में
उम्मीद कई दफा
पसीने सी टपकती है।
फटी जेब में
रुमाल से बंधे
रुपयों में
सपने बुनता मजदूर
अस्त हो जाता है
सूरज के साथ।
अगले दिन
पौं फटते ही
दोबारा उगने के लिए..।

मंगलवार, 15 जून 2021
भोंपू सा बजता सिस्टम
धधकती धरती
पर
विचारों का
कोलाहल है।
पत्तों सा
तप रहा है
आदमी।
कोलाहल का
शोर
शाब्दिक है
अर्थहीन भी।
गली के नुक्कड़
पर
भोंपू सा
बजता सिस्टम
अब
कलेजे को
चीर रहा है।
दूर कोई
आदमी फटे जूतों
से झांकते तलवे में
बिछा रहा है
आदतों की कतरन।
कोई
बैसाखी बेच रहा है
कोई
मांग रहा है
नौकरी।
कैसी भयावह तस्वीर है
जमीर की बाहरी परत की।
कतरा-कतरा
और एक दूसरे में
उलझा सा
समय और उसका
सख्त चेहरा।
दूर कहीं
प्रलोभनों की
नुमाइश लगी है
पैंतरे
खरीदते चेहरे
तिकड़म बिछा कर
सो रहे है
भूखे बैल की
परछाई की छांव में।

रविवार, 13 जून 2021
एक सख्त सजा चाहता हूँ

अभिव्यक्ति
प्रेम वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है। शरीर क...
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यूं रेत पर बैठा था अकेला कुछ विचार थे, कुछ कंकर उस रेत पर। सजाता चला गया रेत पर कंकर देखा तो बेटी तैयार हो गई उसकी छवि पूरी होते ही ...
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नदियां इन दिनों झेल रही हैं ताने और उलाहने। शहरों में नदियों का प्रवेश नागवार है मानव को क्योंकि वह नहीं चाहता अपने जीवन में अपने जीवन ...
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सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...