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शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

वसंत पीला सा


ये पीला सा वसंत
उन उम्रदराज़ आंखों में 
कोरों की सतह पर
नमक सा चुभता है
और 
आंसू होकर 
यादों में कील सा धंस जाता है। 
धुंधली आंखें वसंत 
को जीती हैं
ताउम्र
जानते हुए भी 
नमक की चुभन।  
वसंत उम्रदराज़ साथी सा 
सुखद है
जो कांपते शरीर
जीवित रखता है 
अहसासों का रिश्ता। 
वसंत तब अधिक चुभता है
जब 
टूट जाती है साथी से 
अहसासों की डोर। 
तब
बचता है केवल पीला सा सन्नाटा
जो चीरता है
शरीर और अहसासों को 
तब
सपने सलीब पर रख
शरीर पीले होने लगते हैं।
हां 
वसंत 
उम्रदराज़ नहीं होता
केवल सुलगता है
थके शरीरों की पीठ पर।


 

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

पुरानी डायरी

डायरी के कुछ पीले पन्नों 
से आज मिला 
कुछ पुराना मैं और मुझसी यादें।
समय था जब
डायरी पर सपाट उतर जाया करती थीं भावनाएं
अब स्याही की थकन में चूर यादें 
बेहद सुस्त पीली हो चुकी हैं।
पीलेपन का भार
शब्द भी सह नहीं पाए 
और 
लकीरों के सिराहने 
टूटकर लेट गए हैं।
सहेज रहा हूं दोबारा
पन्नों की लकीरों में टूट गए शब्दों, भावों और विचारों को।
सोचता हूं
कितना सहज था मैं
जब डायरी के हर पन्नें की भूख
के बदले दे दिया करता था
अपनी यादें 
और डायरी मुस्कुरा उठती थी।
सालों बाद जब 
उम्र रेगिस्तानी अहसासों से जूझकर
जीना सीख गई है
भाव और शब्दों का जमा खर्च।
ऐसे में 
एक दिन डायरी हाथ आ गई
और 
मैं उस डायरी के पन्नों पर
दोबारा बिछाने लगा
जीवन का बिछौना। 
कुछ फटा सा मैं
और 
कुछ उधडे़ से शब्द
डायरी ही तो है
कब तक सीती रहेगी मुझे उन शब्दों में पिरोकर।
डायरी के कई पन्ने हैं
जिन्हें पलटने का साहस 
नहीं जुटा पा रहा हूं
क्योंकि 
खुले हुए पन्ने पर मैं
अपने बाबूजी के साथ उंगली थामे घूमने जा रहा हूं।
नहीं पलटना चाहता डायरी
क्योंकि 
डरता हूं अगले पन्ने की आहट सुन
बाबूजी लौट जाएंगे 
स्मृति से उस अनंत यात्रा की ओर।
जानता हूं 
बाबूजी नहीं हैं
लेकिन डायरी है, 
उस पर अब भी उनके भाव में लिपटे शब्द हैं
सीख दे जाते हैं 
उम्र के थकान वाले मौसम में।
हां डायरी पीली हो गई है
शब्द पीले हो गए हैं
हां यादें अब भी हरी हैं
जैसे कि बाबूजी की मुस्कान।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

सीलन


सर्द दिनों में 
मन भी 
ठिठुरता है
और पेड़ों से लिपट 
पूरी रात ओस में भीगता है।
सुबह सूर्य 
के आगमन पर
ओटले 
पर बैठ सुखाता है 
बीते दिनों की 
सीलन को। 
सुबह सूरज चढ़ते ही
शब्द हो जाता है
मन ही तो है
कभी कुछ नहीं कहता
केवल सुनता है
सच की शेष गाथाएं।


 

सोमवार, 28 नवंबर 2022

जैसे कोई सुन रहा है आपके दर्द


जब कोई मकान 
घर होता है
तब वह एक सफर तय करता है।
ठीक वैसे ही
जैसे 
कोई खरा कारोबारी
ढलती उम्र में 
जीवन का सच समझता है
और 
लौटता है, समाज की फटी एड़ियों को
धोता है। 
जैसे कोई उम्रदराज़
सुस्ताता है नीम की छांव में एकांकी
ठहर जाना चाहता है
उसे घर कहता है। 
जहां अनुभूति होती है
पुरखों की
जैसे कोई सुन रहा है
आपके दर्द
बिना कहे। 
हां घर 
होकर मकान और जीवन
पूर्णता का अहसास पाते हैं।
मकान भी 
घर होने के बाद 
मकान नहीं होना चाहता। 
मकान 
उस घर में ही रहना चाहता है। 
घर का सफर
मकान के सफर से बेहद सरल है।
बस 
हर ईंट को छूकर कहिए 
आपमें हमारा जीवन है
हमारा समय 
और 
असंख्य सुखद यादें...।


 

रविवार, 27 नवंबर 2022

हम जिंदा हैं


धरा दरक रही है
दरारों में गहरे सुनाई देते हैं
सुधारों के खोखले शंखनाद।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं
टूटकर कराहते हुए
हो रहे हैं पानी-पानी
और 
हम उन्हें पिघलता देख
टूट रहे हैं अंदर तक
इस चिंता में 
कल कैसा होगा
होगा भी 
या नहीं होगा
क्योंकि आज हम केवल चिंता में ही 
पिघल रहे हैं 
काश की 
धरा के साथ दरकते
और
ग्लेशियर के साथ
अंदर से
पिघलकर टूट जाते।
हवा 
में घुल रहा है
प्रदूषण का जहर
और 
हम जिंदा हैं
क्योंकि हमारी दुनिया में
मास्क हैं, सिलेंडर हैं और हमारी सनक वाली जिद।
कैसी जिद है
कैसी सनक
हम नहीं जानते 
कल के पहले आज को हम दांव पर लगा चुके हैं
सूली पर चढ़ चुके हैं
हमारी नदियां, तालाब, बावड़ियां, कुएं 
हमें 
पत्थर का सूखा सा जहां चाहिए
वह अवश्य मिलेगा
खुश हो जाईए हम मिटने की ओर अग्रसर हैं।


 

बुधवार, 23 नवंबर 2022

सच से जूझते हुए


सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसा
ठंड में फुटपाथ पर
सोया आदमी
अपने हिस्से की रजाई
खींचकर
पूरी रात
अपने शरीर से बुदबुदाता है
सुबह तक
अपने आप को एक सच से
जूझते हुए बिता देता है
सवालों की अंगीठी
को महसूस कर
सच भूंजता है
और
हर सर्द रात
अधूरी नींद सो जाता है।
सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसे भीड़ में
फटे लत्ते से लिपटी
स्त्री
अपने को छिपाती है
और
घूरती नज़रों से
अपने को बचाती है
तब
सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे
दीवार पर
कोयले से उकेर देते हैं
जिंदगी की तस्वीर।
सच
हां सच
छप्पर पर सुखा दिया जाता है
सीले बिस्तर के बीच छिपाकर।
सच
अब मन के किसी
अंधेरे कोने में
विक्षिप्त बालक सा
सहमा बैठा रहता है
कि
कहीं कोई
उसे छू न ले
क्योंकि
वह अक्सर बिखर जाता है
बेहद कमजोर हो गया है
उसका शरीर।


 

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

शून्यता


तुम मांगो 
फिर भी मैं तुम्हें
नदी नहीं दे सकता
अलबत्ता
एक बेहद जर्जर
उम्मीद दे सकता हूँ
जिसमें गहरा सूखा है
और 
अब तक काफी भरोसा रिसकर 
सुखा चुका है 
नदी की अवधारणा। 
नदी
हमारी जरूरत नहीं
हमारी 
सनक और पागलपन
की भेंट चढ़ी है। 
हमारी शून्यता
ही
हमारा अंत है। 
नदी 
सभी की है
और 
हमेशा रहेगी या नहीं
यह पहेली अब सच है। 
नदी 
पहले विचारों में
प्रयासों में
चैतन्य कीजिए
उसकी
आचार संहिता है
समझिए
वरना शून्य तो बढ़ ही रहा है
क्रूर अट्टहास के साथ


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...