फ़ॉलोअर

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

वो गंध अनछुई सी

ये कुछ 
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा 
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ। 
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक 
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये 
महकेगा
बेशक इसकी गंध 
अनछुई है
ये गंध 
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें 
मैं अपने विचारों का आवरण 
देना चाहता हूँ 
बेशक सख्त है
उभरा सा। 
तुम्हें 
मैं समय का कोई कतरा भी 
देना चाहता हूँ 
हरा सा वो 
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में। 
जहाँ 
उगता है
हमारा घर 
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से। 

संदीप कुमार शर्मा

सोमवार, 25 जुलाई 2022

सांझ होने पर


नारंगी जिद लिए 

सूरज आया 

अबकी मेरे देस...। 

अबकी 

महुआ तुम्हारे बदन से महकेगा, 

सुनहरी चादर 

सांझ होने पर 

उसे लपेट सूरज

अपने सिराहने  रख 

सो जाएगा 

सदी के किसी सूनसान गांव में 

किसी जिंदा कुएं की 

मुंडेर पर सटकर। 

सुबह 

उसी चादर को झाड़कर 

आसमान को पहना देगा, 

तुम उस सुबह का इंतज़ार करो, 

तब कुछ 

सुनहरा सा वक्त में बीनकर टांक दूंगा 

घर के दालान में 

लगे नीम पर, 

हम नीम की 

उम्मीद वाली छांव में मुस्कुराएं...

 और 

तब सूर्य भी कभी 

सुस्ताने ठहर जाएगा 

वहीं किसी झूलती शाख पर...।

मंगलवार, 28 जून 2022

ये तस्वीरें सहेज लेना


मन आहत है
हमारी दुनिया को 
बेपानी होता देख। 
मन आहत है
हम पानी के अरसा पहले 
सूख गए।
मन आहत है
कि धरती पर 
संकट दीवारों पर चस्पा हो रहा है। 
मन आहत है
हम तपती धरती पर 
तल्लीन हैं 
ओघड़ मस्ती में।
मन आहत है
बारी- बारी सूख रहे हैं परिंदे। 
समझना होगा 
सहेज लीजिए इन तस्वीरों को 
कल 
यही अहसास की सीलन
लिए 
सहारा होंगी। 
मैं सूखते समाज में
आहत परिंदों पर 
मातम नहीं चाहता 
पानी चाहता हूँ
उनके लिए
क्योंकि यकीन मानिए
मानव के अंत की शुरुआत
पक्षियों के अंत से होती है।
(फोटोग्राफ दिल्ली में मेट्रो के नीचे वाल पर बने आर्ट का है... आर्ट जिसने भी बनाया मैं उन्हें नमन करता हूँ... उन्होंने खरा सच दिखाया...चाहते तो नल से बूंदें भी गिरती दिखा सकते थे... लेकिन हकीकत यही है कि कल कोई पानी नहीं होगा...)




 

शनिवार, 25 जून 2022

आदमी अक्सर घटता है

 

उम्र का पहिया

अनुभव 

का पथ होता है। 

सिंदूरी सांझ 

और 

स्याह रात के बीच

आदमी अक्सर घटता है

बंटता है

रचता है

खोजता है

पाता है

किसी मूल से टकराता है

किसी लकीर पर

कुछ गठानें बांधता है

आदमी इसी समय

विभाजित होकर

दोबारा जुड़ जाता है।

उम्र का अनुबंध 

सुबह देता है

दोबारा आदमी एक 

पहिया होकर

नापने लगता है स्वयं से दूरी 

और सांझ होते होते 

खेत हो जाता है।

उम्र में अनेक रात

भट्टी सा तपता है

एक दिन 

सुबह

दोपहर

सांझ

और 

रात होकर 

राख हो जाता है। 

अनुभव का पथ होता है

पहिया होता है

बस आदमी 

बदलता रहता है।

एक 

उम्र के अनुभव का पथ

दीवार पर 

सच में उकेरा जा सकता है

बेशक 

किसी सांझ के चेहरे पर

कोई लकीर की तरह।

बुधवार, 11 मई 2022

तुम आयत हो


 

तुममें और मुझमें

कुछ

है

जो केवल

तुमसे होकर

मुझ तक आता है।

तुम आयत

हो

मुझ पर

गहरे उकेरी गई।

तुम्हारे चेहरे पर

अक्सर

कुछ सुर्ख सा महकता है

और मैं

तुम्हें एक सदी की भांति

सहेज लेता हूँ।

तुम्हारे ख्वाब

जो

टांक रखे हैं

तुमने

हमारे भरोसे की शाख पर।

बारी -बारी उतार

तुम्हारा

उन्हें धूप दिखाना

हमें करीब लाता है

सपनों के।

तुम्हारी खींची गई

उस

कच्ची दीवार पर लकीर

जिसे

मैंने जिंदगी कहा था

आज भी

हम अक्सर टहल आते हैं

दूर तक

निशब्द से

हमारी राह

अपनी राह

कोई और राह हमने

खींची ही नहीं।


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

तुम चाहो तो तुम्हें मैं दे सकता हूँ


तुम चाहो तो तुम्हें मैं 

दे सकता हूँ
इस गर्म मौसम में 
सख्त धूप।
तुम्हें दे सकता हूँ
चटकती दोपहर
और 
परेशान चेहरों वाला समाज।
तुम्हें दे सकता हूँ
झंझावतों में उलझी जिंदगी
और 
चंद कुछ न कहती 
हाथ की लकीरें। 
तुम्हें मैं दे सकता हूँ
कोई सड़क तपकर पिघलती हुई
और 
पैरों के चीखते छाले।
तुम्हें मैं दे सकता हूँ 
जिंदगी का कुछ पुराना सा दर्शन
और 
एक खुराक खुशी। 
तुम्हें मैं दे सकता हूँ मुट्ठी में कैद उम्मीद
और 
बेतरतीब उखड़ती सांसें।
तुम्हें मैं दे सकता हूँ 
सूखे पेड़ों से झरती 
धूप पाकर खिलखिलाते पत्ते
दरारों की जमीन में 
शेष सुरक्षित जम़ीर। 
तुम्हें फरेब की हरियाली नहीं दे सकता
क्योंकि मैं जानता हूँ
बेपानी चेहरों वाला समाज
अंदर से सूख चुका है
बारी-बारी दृरख्त गिर रहे हैं
धरा के सीने पर। 
कोई झूठी हरियाली नहीं दे सकता तुम्हें।
सच देखो क्योंकि जो हरा है
वह भी अंदर से  
झेल रहा है भय का सूखा। 
हम बनाएंगे 
कोई राह इसी धरा पर 
जो जाएगी 
किसी पुराने हरे वृक्ष तक। 
आओ साथ चलें 
सच जीते हुए, पढ़ते हुए
क्योंकि सच उस अबोध बच्चे सा है
जिसे झूठ सबसे अधिक 
झुला रहा है अपनी गोद में...।


 

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

एक दिन गिर जाएंगे सूखे पत्तों से


सूखती धरा 
पलायनवादी विचारधारा
आग में झुलसती प्रकृति
धरा के सीने से
पानी खींचते लोग
पानी पर चढ़कर 
अट्टहास करता बाजार।
नदियों के सीने पर 
उम्मीद की नमी तलाशते खेत
सिर पर बर्तन रख
घंटों का सफर 
तय करते लहुलूहान पैरों वाले बच्चे
भविष्य कहे जाते हैं
खोखले वर्तमान में थकती माताएं
छोड़ चुकी हैं 
पानी के लिए बच्चों का बचपन।
गोद और बचपन
अब सख्त सा सच है 
गोद में बचपन अब पत्थर हो गया है।
पानी ढोते बच्चों की आंखें 
लटक रही हैं पेट पर। 
धरती दहक रही है
बचपन सूखकर दरक रहा है
भावनाएं केवल 
कागज पर दर्द को 
समाज का दर्शन बता कर 
सतही प्रयास कर रहा है।
सूरज की गेंद 
लुढ़कती बढ़ रही है मानव की ओर
ताप का साम्राज्य
सबकुछ जलाने पर आमादा है
और हम
घरों में दुबके 
सतही स्वार्थी दृश्यों पर बहस में उलझे हैं।
प्रकृति का कारोबार 
हमें 
झुलसा देगा
पीढ़ियों तक दरकन होगी
और होगी सूखी धरा। 
सोचिए 
हम कहां जा रहे हैं
आंखों पर कारोबारी पट्टी बांधकर।
उंगली पकड़े बच्चे 
चल नहीं पा रहे हैं 
तपती धरा पर
एक दिन 
गिर जाएंगे सूखे पत्तों से।


 

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...