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गुरुवार, 30 सितंबर 2021

आज है और वही है


 

जब भी हम 

बैठे साथ-साथ

जिंदगी आ बैठी

हमारे करीब 

और 

कितनी सहजता से

सुनती रही हमें।

तुम्हें खिलखिलाता देख

कुछ कह गई थी

कानों में मेरे।

सच कहूं

मुझे लगा जिंदगी तुम्हें

मुझसे अधिक नहीं पहचानती है।

अबकी 

जब भी दोबारा जिंदगी 

बैठगी 

हमारे साथ उस मुस्कुराने के वक्त

हम 

बताएंगे उसे

जिंदगी जी कैसे जाती है।

अक्सर देखता हूं

हमारे बीच 

थकी-मांदी सी

हांफती हुई

पसीने से लथपथ

ही जिंदगी बैठती है 

पास हमारे। 

देखा होगा तुमने भी

कभी भी मुस्कुराती नहीं

केवल

हमें देखती रहती है।

जानती हो 

क्या कहा था 

उस दिन

मेरे कान में जिंदगी ने

तुम्हें मुस्कुराता देख

कह रही थी

जिंदगी तो मैं हूं

फिर ये क्या है

जो उस चेहरे पर आ टिकी है।

मैं होले से कहता हूं

देखो

जिंदगी ही तो है

जो हमने बुनी है

जो हमने चुनी है। 

मैं 

जानता हूं जिंदगी और हमारे बीच

वह खुशियां हैं

जिन्हें

हम जीते हैं रोज

वही

आज है

और वही

सच।

इसके अलावा

कोई कल नहीं है। 

सोमवार, 27 सितंबर 2021

तुम्हारे लिए...


 

मैं जानता हूं

सफेद फूल का मौसम

तुम्हें और मुझे

दोनों को पसंद है।

हां

सफेद फूलों का मौसम

उनकी दुनिया

सब है

यहीं

कुछ तुम्हारे अंदर

कुछ मेरे

और 

बहुत सी

हम दोनों के विचारों में।

मैं तुम्हें

देना चाहता हूं

उन फूलों के साथ

कुछ श्वेत सा सच

जो तुम्हें

छूकर गुजरा है कई बार।

हवा की पीठ पर बैठकर

तुममें समाया है गहरे। 

तुम्हें याद है

सफेद फूलों के मौसम का

पहला पन्ना।

जिसमें हमने उकेरा था

श्वेत सा एक चेहरा

तुम जानती हो

श्वेत सा वह चेहरा

और फूलों का श्वेत मौसम

हमारी डायरी का हिस्सा हैं। 

जानती हो

श्वेत होना सजा है

क्योंकि 

श्वेत सुना नहीं जा सकता

इस दौर में।

श्वेत 

होकर जी रहे हैं 

हम और तुम

उस श्वेत से मौसम को बुनते हुए

जो

यकीकन

है

और आकार ले रहा है

हमारे इर्दगिर्द

इन्ही श्वेत फूलों से 

पराग चुनकर।

सच

डायरी का आखिरी पन्ना

भी 

श्वेत लिखना चाहूंगा

तुम्हें 

लिखना चाहूंगा। 

तुम कुछ पराग चुन लेना

उस डायरी के

आखिरी पन्ने पर सजाने के लिए।

ताकि महकता रहे

मौसम

फूल

और डायरी सा जीवन। 


 


शनिवार, 25 सितंबर 2021

कट जाएगी जीवन की उम्मीद


 

थक गया हूं

बहुत

इस दुनिया में

अब 

नहीं चाहिए

हमें भी

ये दुनिया

जो

निर्दयता से काट दे

पैर

और

सीने पर चला दे कुल्हाड़ी

कभी भी 

किसी भी बेतुके कारण से।

और सुनना भी न चाहे

मेरी चीख

कि

कैसे जीओगे मेरे बिना।

कटे शरीर के कई हिस्से

यूं ही बिखरे हैं

यहां 

वहां

चाहो तो

पैरों तले रौंदकर

निकल जाना। 

चाहो तो

अपनी आरामगाह में सजाना

लेकिन 

मैं लौटना नहीं चाहता 

इस बेसब्र दुनिया में

जहां

श्वास देने के बदले

मिलती है 

यूं मौत।

मैं 

देख रहा हूं

मेरे 

कटे शरीर पर 

लोग पैर रखकर

बतिया रहे हैं

कि

पर्यावरण बहुत बिगड गया है, गर्मी भी बहुत है।

मैं सुन पा रहा हूं

प्रकृति और धरा की चीख

मेरे कटे शरीर को देखकर

उसमें मां का दारुण दर्द है। 

मैं

देख रहा हूं

उन मासूम जीवों को 

जो

जीते थे मेरी छाल की

कंद्राओं में।

मैं

देख रहा हूं धूप में

नई छांव खोजते

परिंदों को

जो सुस्ताते थे पूरी आजादी से

मेरे पत्तों की छांव में।

सच 

यूं ही कटते रहे हमारे शरीर

तो यकीन मानना

एक दिन

कट जाएगा

पूरा जंगल

और कट जाएगी

जीवन की उम्मीद।

तब बचेगा केवल

एक तपता बिना वृक्ष वाला

ठूंठ हो चुका जंगल

जहां आबादी नहीं होगी

होगा

काल का सन्नाटा। 

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

तर्क से परे है प्रेम

 



प्रेम
तर्क से परे है
सख्त
हो जाना
प्रेम की ओर
बढ़ने की अवस्था है।
पत्थरों पर से
पानी के बहाव को
प्रेम
कहा जा सकता है।
पेड़
की जमीन से
किसी बेल का
उस सूखे तन से
लिपटना प्रेम है।
फूलों के जिस्मों की गंध
पर
मंडराते भंवरों
का नेहालाप प्रेम है।
पत्तियों की हरीतिमा
वाली उम्र में
किसी सूखे पत्ते की
दस्तक
प्रेम है।
बादलों का सूर्य के चेहरे
से लिपटना प्रेम है।
बारिश की पहली
बूंद की तृप्ति
चातक का प्रेम है।
मोर का
नृत्य और बावरापन
मौसम से
प्रेम है।
सूखी धरा पर
बारिश की बूंदों
का
स्पर्श प्रेम है।
प्रकृति का हर
जर्रा प्रेम सिखाता है
हां
प्रेम
तर्क नहीं चाहता
और
सवाल भी नहीं पूछता
बस
मौन है
और
उस प्रेम के वक्त
बहता नेहालाप...।


रविवार, 19 सितंबर 2021

बचपन की सैर पर हैं आप

 


कभी 

जब उदास होता हूं

लौट जाता हूं

बचपन की राह

यादों की उंगली थामकर।

कितने खरे थे

जब 

शब्दों में तुतलाहट थी

बेशक कहना नहीं आता था

लेकिन

छिपाना भी नहीं आता था।

कितनी खुशियां थीं

कपड़ों में रंग खोजते थे

और रंगों में जीवन।

अब 

जीवन में रंगों को खोजते हैं

बहुत धुंधला सा गया है

खुशी का रंग

अपनेपन का रंग

फीका सा है रंगों का जायका

और

अधमिटी सी है

रंगों में खुशियों को खोजने की 

इबारत।

दोस्त थे 

जो अब तक यादों में

यदाकदा ही चले आते हैं

और 

घूम आता हूं उनके साथ

पुराने बगीचे की मुंडेर तक

देर सांझ तक

खड़ा रहता हूं

उनके साथ।

सूर्यास्त देखता हूं अब भी

लेकिन

कितना कुछ अस्त हो जाता है

हर रोज

मेरे अंदर भी।

तब जेबें अक्सर

फटी रहती थीं

लेकिन न जाने

खुशियां कहां अटकी रह जाती थीं

उन फटी जेबों के 

उधड़े से धागों में।

देखता हूं

अब जेब मजबूत है, सिली हुई

लेकिन 

सीली सी है

कभी सुख नहीं दे पाई

वह बचपन वाला। 

पहले बैठते थे

परिवार में

मां के पास रसोई में

अंगीठी की आंच तापते हुए।

पिता के पास तखत पर 

सुनते थे

उन्हें कोई भजन गुनगुनाते हुए। 

सोचता हूं कैसा वक्त था

कैसे लोग थे

कैसे हम थे

कैसी खुशियां थीं

जो मुटठी भर थीं 

लेकिन

कभी खत्म नहीं हुईं।

तब साइकिल थी

अक्सर चेन उतर जाया करती थी

लेकिन

आज तक भाग रही है मन के किसी रास्ते पर।

पहले रेडियो था

जो पूरे परिवार के बीच बजता था

अब तक

उसके गीत

हमारी जुबां पर हैं

और आज

कितना शोर है

और कितनी भागमभाग।

कहां थमेंगे

कैसे और क्यों

और 

कितना भागेंगे हम।

कोई मंजिल है...?

अकेले 

कभी यूं ही मुस्कुराता हूं

देखता हूं

घर में कुछ बो पाया हूं

जो महसूस कर लेता है

और कहता है

बचपन की सैर पर हैं आप

और मैं

लौट आता हूं

आज में

उस खूबसूरत कल से 

दोबारा लौटने का वादा कर।



शनिवार, 18 सितंबर 2021

हम सच देखेंगे, सच ही कहेंगे

हिंदी पर

लिखता हूं तो 

अपने आप को अपराधी पाता हूं। 

बच्चे जिन्हें 

जीने के लिए

अंग्रेजी का मुखौटा चाहिए था

मैंने दे दिया।

उन्होंने हिंदी 

समझी नहीं, जानी नहीं

और मांगी भी नहीं।

मैं

सोचता रहा 

स्कूल से लौटने पर एक उम्र बाद

समझा दूंगा उन्हें हिंदी

और

समझा दूंगा 

हिंदी के शब्दों का मर्म।

देख रहा हूं

उम्र बीत रही है

और 

मैं इंतजार कर रहा हूं 

बच्चों के लौटने का

देख रहा हूं

बच्चे अंग्रेजी में लय पा चुके हैं

और 

हिंदी में झिझक।

देखता हूं वह मुखौटा ही अब

चेहरा है। 

मैं

अपने देश में

हिंदी भावावेश के बीच

अंग्रेजी को पनपता देखता रहा 

हिंदी 

की पीठ

और खुरदुरी सी हो गई

क्योंकि

मजबूरी में ही सही

अगली पीढ़ी को हमने ही  

अंग्रेजियत की ओर धकेला है।

मैं देखता रहा

अंदर ही अंदर

भिंचता रहा

कराहता रहा

अब भी जब बच्चे 

अंग्रेजी में बोलते हैं

और हिंदी पर हो जाते है खामोश

तब एक आत्मग्लानि अवश्य होती है

कि

हमारी ऊंगली थामे

चल रही

हिंदी को

हमने ही कहीं 

झटककर अपने आप से दूर कर दिया।

अब यह आत्मालाप मेरे अलावा 

कोई सुनना नहीं चाहेगा

संभव है

हममें से हरेक

इस अलाप को रोज जी रहा हो।

मेरी कराह

बच्चे महसूस कर रहे हैं

लेकिन

यकीन मानिये मैं 

ये 

नहीं चाहता था 

वे अंग्रेजी न सीखें

लेकिन मैं 

यह कतई नहीं चाहता था

कि हिंदी को बिसरा दें।

जानता हूं

एक बाजार है जो उन्हें खींच रहा है

मुझसे

और

हमारी हिंदी से

दूर

अपनी ओर। 

सोचता हूं

आज

हिंदी

हर घर में

किसी असहाय 

वृद्धा सी

इंतजार में है

कोई तो 

उसे उंगली 

पकड़ धूप तक सैर करवा दे। 

हिंदी सूख रही है

कहीं

हमारी नस्लों में

हिंदी में कहीं सीलन है

क्योंकि

वह अकेली 

एकांकी है अपने देश में।

मैं देख रहा हूं

हमने अंग्रेजी को 

मजबूरी

और फिर

सबसे जरुरी बना दिया है

काश

श्वास ले पाती हिंदी

हमारी अगली 

पीढ़ियों तक। 

उम्मीद है

हम सच देखेंगे

और सच ही कहेंगे

क्योंकि

हिंदी 

को सहानुभूति की नहीं

मन से

स्वीकाने की जरूरत है।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

जंगल होता आदमी

 



आदमियों की भीड़ में
आदमी।
आदमी के चेहरे पर
आदमी
और आदमी के 
जम़ीर पर पैर लटकाकर बैठा आदमी।
पैरों से आदमी को गिराता आदमी
पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ाता आदमी। 
दंभी आदमी
व्यवस्था होता आदमी।
आदमी 
पर सवार आदमी
और आदमी से लड़ता आदमी।
आदमी से आदमी होने की जिद
में रोज
दरकता और सुलझता आदमी।
खुद में दौड़ता
खुद से पराजित होता
खुद से जीतने के लिए 
सीमाएं बनाता
और तोड़ता आदमी।
भीड़ में आदमी
और
अकेले में आदमी।
अकेले में भीड़ जैसा आदमी 
और भीड़ में बहुत अकेला आदमी।
चीखता आदमी
रोता आदमी
जिद्दी आदमी
घमंडी आदमी
दूसरों के दुखों पर
ठहाके लगाता आदमी।
भूखा आदमी
लालची आदमी
ढोंगी आदमी
गुस्सैल आदमी
जीता आदमी
जीने का ढोंग करता आदमी।
अपने से टकराता आदमी
आदमी की जात में
कई तरह का आदमी।
चेहरे पर आदमी
बाजू में आदमी
सिर पर आदमी
पैरों में आदमी
सत्ता में आदमी
और 
आदमी में सत्ता जैसा आदमी।
महफिल में सजा संवरा आदमी
आदमी में
उदास सी महफिलें होता आदमी।
अकेले में रोता आदमी
अकेले होने को
जीता आदमी।
घर को बनाता आदमी
घर होता आदमी
आदमी में टूटते घरों में
ईंट सा विभाजित आदमी।
टूटी खिड़की सा आदमी
झरोखों सा आदमी
जंगल से निकला आदमी
जंगल होता आदमी
सुलगता आदमी
रेतीला आदमी।
सोचता हूं
और कितने आदमी हैं
यह भीड़ हम नहीं देख पाते
हम केवल शरीर को जीते हैं। 
सोचता हूं 
आदमी 
खारा सा समुद्र हो गया है
जो
अपने खारेपन का नेह
बिखेरकर 
जमीन को पानी तो दे रहा है
लेकिन 
नमक भी 
रिस रहा है
उसके गर्भ में। 
सोचता हूं
कुछ आदमी
फूल हैं
कुछ पत्ती
कुछ अंकुरण 
और बहुत थोड़े से आदमी
उम्मीद भी हैं
लेकिन 
डरता हूं बढ़ती हुई भीड़ में
एक दिन
महत्वकांक्षा का जंगल
उन्हें खूंदकर 
बना न दे
आदमी की
कोई
सूखी और बंजर जमीन।
जहां 
नहीं होगा 
कोई आदमी
होगी केवल 
रेत
पानी
और बहुत सारा खारापन। 





बुधवार, 15 सितंबर 2021

किताब के पन्नों का जंगल


 

दूर

कहीं कोई

जीवन

अकेला खड़ा है।

जंगल

अब विचारों में

समाकर

किताब के पन्नों

पर

गहरे चटख रंगों

में

नज़र आता है।

अब

जंगल और

किताब के पन्नों

के बीच

आदमियों की भीड़ है।

भीड़ किताबों

को सिर पर उठाए

विरासत की ओर

कूच

कर रही है।

किताब के पन्नों का

जंगल

तप रहा है

उसके रंग

पसीजकर

आदमी के चेहरे पर

उकेर रहे हैं

कटी और गूंगी सभ्यता।

जंगल और किताबी जंगल

के बीच

कहीं कोई आदमी

है

जिसका चेहरा कुल्हाड़ी

की जिद्दी मूठ

हो गया है।

कुल्हाड़ी

जंगल

और

आदमी के बीच

अब कहीं कोई

भरोसा

सूखकर किताब के

पन्नों वाले जंगल के

आखिरी पृष्ठ

की निचली

पंक्तियों की बस्ती में

सूखे की अंतहीन

बाढ़ में समा गया है।

अब जंगल

घूमने की नहीं

पढ़ने और पन्नों में

देखने

की एक वस्तु है...।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

शाखों पर उगते हैं


उम्र के

पेड़

की शाखों पर

उगती

खिलखिलाहट

सयानापन

लाचारी

और बहुत कुछ।

शाखों पर

उगते हैं

कुछ

बेबस बच्चे

उनकी रुंधी हंसी।

बच्चों की पीठ पर

बचपन में

उग आती हैं

बेबसी

भूख

और तार-तार जिंदगी।

उम्र के पेड़ पर

अब उगने लगे हैं

लालच

और

लोलुपता।

कहीं-कहीं

उग रही है

कोपलें उम्मीद की।

पेड़ की शाखों से

झांक रही हैं

कुछ सूखी

और काली आंखें..।





शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

रेत, रेत और रेत


 







बारुदों की गंध में

जब

रेत पर 

खींचे जा रहे हैं

शव

और

चीरे जा रहे हैं

मानवीयता के 

अनुबंध। 

जब 

सिसकियां 

कैद हो जाएं 

कंद्राओं में

और

बाहर शोर हो

बहशीयत का।

उधड़े हुए चेहरों पर

तलाशा जा रहा हो

हवस का सौंदर्य।

जब चीखें 

पार न कर पाएं

सीमाएं।

जब दर्द के कोलाहल में

आंखों में 

भर दी जाए रेत।

जब 

आंधी के बीच

रेत के पदचिन्ह

की तरह ही हो

जीवन की उम्मीद।

जब आंखों में 

सपनों की जगह

भर दी गई हो

नाउम्मीदगी की तपती रेत।

जब चीत्कार के बीच

केवल 

लिखा जा सकता हो दर्द।

मैं

फूलों पर कविता 

नहीं लिख सकता।

रेत में सना सच

और

एक मृत शरीर

एक जैसा ही होता है

दोनों में

जीवन की उम्मीद

सूख जाती है

गहरे तक

किसी 

अगले 

आदि मानव की तलाश के पहले तक।


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(अफगानिस्तान में मौजूदा हालात और वहां की बेटियों पर यह कविता...। )


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

हम और तुम


 











मैं 

तुम्हें 

इसी तरह देखता हूँ

मैं

तुम्हें 

प्रकृति में पानी की 

उम्मीद की तरह देखता हूँ।

हम और तुम 

क्या हैं

कुछ भी तो नहीं

केवल

उम्मीद की

बूंदों पर 

उम्र रखकर

जी जाते हैं

अपने आप को।


फोटोग्राफ भी मेरा ही है... फोटोग्राफ देख यह कविता सृजित हो गई...।





अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...