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मंगलवार, 30 अगस्त 2022

तुम्हें अधिकार है

तुम्हें अधिकार है

मेरे प्रेम तत्व के हरण का।

तुम्हें 

अधिकार है

उस रंग को बदरंग करने का

जो निखरा है तुम्हारे लिए

और तुमसे। 

तुम्हें 

अधिकार है

उन कोमल हिस्सों पर 

नुकीले दंश चुभाने का 

जिन्हें तुम चाहते तो

सहला सकते थे 

सदियों। 

तुम्हें 

अधिकार है

मेरे अंतस में छिपे पराग को 

छिन्न भिन्न करने का

तुम चाहते तो 

उनसे बसा सकते थे 

असंख्य प्रकृति। 

तुम्हें 

अधिकार है 

नेहालाप का

तुम्हें 

अधिकार है

उन सभी क्रूर बहानों को छिपाने का

जो तुम रचते रहे 

मेरे 

दैहिक हनन के समय। 

तुम्हें 

अधिकार है

मुझे शोषण के बाद 

बिखरने को छोड़ने को। 

मुझे बिखरकर भी 

बेमतलब खाद होना 

पसंद है

तुम्हें तो दूसरा फूल खोजना होगा

उसे दोबारा वायदों में 

बहकाने को..।

 

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

युग अपने पैरों लौट जाएगा

कोई उम्मीद

पत्तों पर नूर सी 

महकती है।

पत्तों पर उम्र गुजार 

समा जाती है 

सशरीर

बिना शर्त

क्योंकि

रिश्तों में अनुबंध नहीं होता। 

हरापन 

देकर 

पत्तों से जीवन का दर्शन

सीखकर

बूंद 

का आभा मंडल दमकता है। 

बूंद एक युग है

जो सूख रहा है

मानवीय शिराओं में। 

हरापन 

बूंद को सहेज 

एक उम्मीद गढ़ती है हर रोज।

सांझ 

उम्मीद की पीठ फफोले से पट जाती है

पूरा दिन

उस बूंद में आखेट करता है

और समा जाता है

उसी के गर्भ में..।।

अबकी युग अपने पैरों 

लौट जाएगा

सूखे और बिलखते आपदाग्रस्त 

विचारों से 

हारकर...। 

कोई युग कैसे ठहरेगा

इस 

बेसुरे विचारों के बीच।

 

शनिवार, 30 जुलाई 2022

हमारे प्रेम अनुबंध के दस्तावेज


कोई गंध 
तुम्हें और मुझे 
खींचती है
कोई श्वेत गंध। 
तुम्हें 
मुझसे गुजरने को 
बेताब करता 
यह 
श्वेत वक्त। 
ये जो 
पत्ते हैं 
यह तुम्हारे हमारे 
प्रेम अनुबंध के 
दस्तावेज हैं। 
यह उम्र के पैर की भांति
पदचिह्न नहीं छोड़ते
यह 
बस अंकित हैं
तुममें 
और 
मुझमें
एक इबारत बनकर। 
मैं तुम्हें 
यह पूरा श्वेत सच 
देना चाहता हूँ
ताकि 
हम सहेज सकें 
गढ़ सकें
भविष्य। 
मैं तुममें 
और 
यकीनन तुम 
मुझमें
महकते हैं 
एक सदी का सच होकर। 
देखना एक दिन
यह पत्ते 
हमारी डायरी के पन्नों में
हमारी उम्र 
हमारी खुशियों के 
हस्ताक्षर होंगे।


 

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

वो गंध अनछुई सी

ये कुछ 
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा 
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ। 
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक 
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये 
महकेगा
बेशक इसकी गंध 
अनछुई है
ये गंध 
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें 
मैं अपने विचारों का आवरण 
देना चाहता हूँ 
बेशक सख्त है
उभरा सा। 
तुम्हें 
मैं समय का कोई कतरा भी 
देना चाहता हूँ 
हरा सा वो 
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में। 
जहाँ 
उगता है
हमारा घर 
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से। 

संदीप कुमार शर्मा

सोमवार, 25 जुलाई 2022

सांझ होने पर


नारंगी जिद लिए 

सूरज आया 

अबकी मेरे देस...। 

अबकी 

महुआ तुम्हारे बदन से महकेगा, 

सुनहरी चादर 

सांझ होने पर 

उसे लपेट सूरज

अपने सिराहने  रख 

सो जाएगा 

सदी के किसी सूनसान गांव में 

किसी जिंदा कुएं की 

मुंडेर पर सटकर। 

सुबह 

उसी चादर को झाड़कर 

आसमान को पहना देगा, 

तुम उस सुबह का इंतज़ार करो, 

तब कुछ 

सुनहरा सा वक्त में बीनकर टांक दूंगा 

घर के दालान में 

लगे नीम पर, 

हम नीम की 

उम्मीद वाली छांव में मुस्कुराएं...

 और 

तब सूर्य भी कभी 

सुस्ताने ठहर जाएगा 

वहीं किसी झूलती शाख पर...।

मंगलवार, 28 जून 2022

ये तस्वीरें सहेज लेना


मन आहत है
हमारी दुनिया को 
बेपानी होता देख। 
मन आहत है
हम पानी के अरसा पहले 
सूख गए।
मन आहत है
कि धरती पर 
संकट दीवारों पर चस्पा हो रहा है। 
मन आहत है
हम तपती धरती पर 
तल्लीन हैं 
ओघड़ मस्ती में।
मन आहत है
बारी- बारी सूख रहे हैं परिंदे। 
समझना होगा 
सहेज लीजिए इन तस्वीरों को 
कल 
यही अहसास की सीलन
लिए 
सहारा होंगी। 
मैं सूखते समाज में
आहत परिंदों पर 
मातम नहीं चाहता 
पानी चाहता हूँ
उनके लिए
क्योंकि यकीन मानिए
मानव के अंत की शुरुआत
पक्षियों के अंत से होती है।
(फोटोग्राफ दिल्ली में मेट्रो के नीचे वाल पर बने आर्ट का है... आर्ट जिसने भी बनाया मैं उन्हें नमन करता हूँ... उन्होंने खरा सच दिखाया...चाहते तो नल से बूंदें भी गिरती दिखा सकते थे... लेकिन हकीकत यही है कि कल कोई पानी नहीं होगा...)




 

शनिवार, 25 जून 2022

आदमी अक्सर घटता है

 

उम्र का पहिया

अनुभव 

का पथ होता है। 

सिंदूरी सांझ 

और 

स्याह रात के बीच

आदमी अक्सर घटता है

बंटता है

रचता है

खोजता है

पाता है

किसी मूल से टकराता है

किसी लकीर पर

कुछ गठानें बांधता है

आदमी इसी समय

विभाजित होकर

दोबारा जुड़ जाता है।

उम्र का अनुबंध 

सुबह देता है

दोबारा आदमी एक 

पहिया होकर

नापने लगता है स्वयं से दूरी 

और सांझ होते होते 

खेत हो जाता है।

उम्र में अनेक रात

भट्टी सा तपता है

एक दिन 

सुबह

दोपहर

सांझ

और 

रात होकर 

राख हो जाता है। 

अनुभव का पथ होता है

पहिया होता है

बस आदमी 

बदलता रहता है।

एक 

उम्र के अनुभव का पथ

दीवार पर 

सच में उकेरा जा सकता है

बेशक 

किसी सांझ के चेहरे पर

कोई लकीर की तरह।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...