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सोमवार, 28 नवंबर 2022

जैसे कोई सुन रहा है आपके दर्द


जब कोई मकान 
घर होता है
तब वह एक सफर तय करता है।
ठीक वैसे ही
जैसे 
कोई खरा कारोबारी
ढलती उम्र में 
जीवन का सच समझता है
और 
लौटता है, समाज की फटी एड़ियों को
धोता है। 
जैसे कोई उम्रदराज़
सुस्ताता है नीम की छांव में एकांकी
ठहर जाना चाहता है
उसे घर कहता है। 
जहां अनुभूति होती है
पुरखों की
जैसे कोई सुन रहा है
आपके दर्द
बिना कहे। 
हां घर 
होकर मकान और जीवन
पूर्णता का अहसास पाते हैं।
मकान भी 
घर होने के बाद 
मकान नहीं होना चाहता। 
मकान 
उस घर में ही रहना चाहता है। 
घर का सफर
मकान के सफर से बेहद सरल है।
बस 
हर ईंट को छूकर कहिए 
आपमें हमारा जीवन है
हमारा समय 
और 
असंख्य सुखद यादें...।


 

रविवार, 27 नवंबर 2022

हम जिंदा हैं


धरा दरक रही है
दरारों में गहरे सुनाई देते हैं
सुधारों के खोखले शंखनाद।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं
टूटकर कराहते हुए
हो रहे हैं पानी-पानी
और 
हम उन्हें पिघलता देख
टूट रहे हैं अंदर तक
इस चिंता में 
कल कैसा होगा
होगा भी 
या नहीं होगा
क्योंकि आज हम केवल चिंता में ही 
पिघल रहे हैं 
काश की 
धरा के साथ दरकते
और
ग्लेशियर के साथ
अंदर से
पिघलकर टूट जाते।
हवा 
में घुल रहा है
प्रदूषण का जहर
और 
हम जिंदा हैं
क्योंकि हमारी दुनिया में
मास्क हैं, सिलेंडर हैं और हमारी सनक वाली जिद।
कैसी जिद है
कैसी सनक
हम नहीं जानते 
कल के पहले आज को हम दांव पर लगा चुके हैं
सूली पर चढ़ चुके हैं
हमारी नदियां, तालाब, बावड़ियां, कुएं 
हमें 
पत्थर का सूखा सा जहां चाहिए
वह अवश्य मिलेगा
खुश हो जाईए हम मिटने की ओर अग्रसर हैं।


 

बुधवार, 23 नवंबर 2022

सच से जूझते हुए


सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसा
ठंड में फुटपाथ पर
सोया आदमी
अपने हिस्से की रजाई
खींचकर
पूरी रात
अपने शरीर से बुदबुदाता है
सुबह तक
अपने आप को एक सच से
जूझते हुए बिता देता है
सवालों की अंगीठी
को महसूस कर
सच भूंजता है
और
हर सर्द रात
अधूरी नींद सो जाता है।
सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसे भीड़ में
फटे लत्ते से लिपटी
स्त्री
अपने को छिपाती है
और
घूरती नज़रों से
अपने को बचाती है
तब
सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे
दीवार पर
कोयले से उकेर देते हैं
जिंदगी की तस्वीर।
सच
हां सच
छप्पर पर सुखा दिया जाता है
सीले बिस्तर के बीच छिपाकर।
सच
अब मन के किसी
अंधेरे कोने में
विक्षिप्त बालक सा
सहमा बैठा रहता है
कि
कहीं कोई
उसे छू न ले
क्योंकि
वह अक्सर बिखर जाता है
बेहद कमजोर हो गया है
उसका शरीर।


 

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

शून्यता


तुम मांगो 
फिर भी मैं तुम्हें
नदी नहीं दे सकता
अलबत्ता
एक बेहद जर्जर
उम्मीद दे सकता हूँ
जिसमें गहरा सूखा है
और 
अब तक काफी भरोसा रिसकर 
सुखा चुका है 
नदी की अवधारणा। 
नदी
हमारी जरूरत नहीं
हमारी 
सनक और पागलपन
की भेंट चढ़ी है। 
हमारी शून्यता
ही
हमारा अंत है। 
नदी 
सभी की है
और 
हमेशा रहेगी या नहीं
यह पहेली अब सच है। 
नदी 
पहले विचारों में
प्रयासों में
चैतन्य कीजिए
उसकी
आचार संहिता है
समझिए
वरना शून्य तो बढ़ ही रहा है
क्रूर अट्टहास के साथ


 

इंसानों का ये अथाह महासागर

धरती
सीमित है
जल भी सीमित है
जंगल भी सीमित है
ताजी हवा भी अब सीमित है
बारिश भी सीमित है
फसल भी सीमित है
रोजगार भी सीमित है
उम्मीदें भी सीमित हैं
उम्र भी सीमित है
प्रकृति संरक्षण में हमारी भागीदारी भी सीमित है
फिर
हम क्यों असीमित हो रहे हैं
क्यों फैला रहे हैं
अपनी
काया
माया
और
ये बेसब्र सा जंगल।
आखिर जब कुछ नहीं होगा
तब
हम होंगे या नहीं होंगे
कोई फर्क नहीं होगा।
सोचिए कि
धरा पर केवल रहना ही नहीं है
हमें
खाना और पानी भी चाहिए।
सोचिएगा
हम
इंसानों का ये अथाह महासागर
निगलने को आतुर है
धरा के उस एक इंच हिस्से को भी
जहां उम्मीद जिंदा रहती है।

शनिवार, 12 नवंबर 2022

फूल ही तो हैं


ये जो पत्तों का बिछौना है
दरअसल
हरेक फूल को 
नसीब नहीं होता। 
सूखकर गिरना 
और 
जमीन में 
खाद हो जाना 
एक सच है
लेकिन 
रोज असंख्य फूल टूटते हैं
गिरते हैं
कहां सुनाई देती है
हमें कुछ टूटने की आवाज़
कहां सुनाई देता है हमें
घटता मौन...। 
फूल ही तो हैं
टूटकर बिखर ही जाएंगे
हां 
दर्द हमें 
तब सुनाई देता है 
जब हम टूटते हैं 
या हममे से कोई एक टूटता है। 
इस धरा पर 
न जाने कितना कुछ दरक जाता है
हमारे कारण। 
हां फूल ही तो हैं
उनका दर्द कहां सुनाई देता है। 

सोमवार, 7 नवंबर 2022

प्रदूषण बहुत है

 वह

साठ बरस का व्यक्ति

हंसते हुए कह रहा था

कि 

बाबूजी पुरवाई तो मर्दांना हवा है

उससे कोई दिक्कत नहीं

वह बीमार नहीं करेगी।

हां

पछुआ जो जनाना हवा है

उससे बचियेगा

वह बीमार कर देगी।

मैं सोचने लगा

जिसकी कोख से जन्म लिया

जिसने पूरी उम्र संवारा

जिसने 

पीढ़ी को बढ़ाया

वही जनाना

विचारों में इतनी दर्दनाक इबारत क्यों है?

सोचता हूं

हमने कैसा समाज बनाया है

हवाओं को अपने स्वार्थ और जिद के अनुसार

नामों और सनक में बांट दिया है।

तभी तो पर्यावरण अधिक खराब है

और 

सुधर नहीं रहा 

क्योंकि केवल

बात प्राकृतिक पर्यावरण की नहीं

सामाजिक पर्यावरण की भी है।

सोचता हूं 

भला कब तक नोंचते रहेंगे हम

अपनों को

सच को

और

मानवीयता को।

कब उतार फैंकेंगे हम

अपनी भोली शक्ल पर चिपटा रखे

बेशर्म विचारों को।

बदल दीजिए क्योंकि

प्रदूषण बहुत है। 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

हम बदल रहे हैं


रात भर ठंड में

कराहता रहा एक शख्स

दरवाजे पर उसके

दस्तक भी दी

और

कराह भी गूंजी।

नहीं टूटी नींद

और 

न ही खोला द्वार।

सुबह

वह शख्स मर गया

दरवाजा खुला 

उस पर चादर ओढ़ा दी गई

और 

चार लोग सहानुभूति में एकत्र किए गए

करवा दिया गया उसका अंतिम संस्कार।

लोग 

उसे बड़ा समाजसेवी कह

थपथपा रहे थे पीठ

वह विनम्र होकर भीड़ के सामने रोनी सूरत लिए

कोस रहा था उस रात की नींद को।

मुस्कुराता वही व्यक्ति 

दोबारा घर में दाखिल हुआ

और

सोफे पर पसरकर 

हाथ में गिलास लेकर 

पलटाने लगा 

मैग्जीन के नग्नता से भरे पन्ने

ठहाके लगाकर हंसने लगा

यह कहते हुए 

हां 

कल रात नींद बहुत मीठी थी

और 

आज का दिन यादगार। 


गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ठौर

 


कदंब मन में कहीं
उग आया है
उसके अहसास हमें
खींच रहे हैं अपनी ओर।
कदंब का पेड़
अब भी रीता है
इन गर्बीले फलों के साथ
इंतज़ार में
तुम्हारे कान्हा।
फिर बसा दीजिए ना
वृंदावन
फिर छेड़ दीजिए ना
बांसुरी की तान
देखिए अब भी
गोपियां वहीं आपका इंतज़ार कर रही हैं
और रोज
बुहार रही हैं
कदंब का ठौर।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...