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बुधवार, 31 मार्च 2021

चटख रंगों का समाज


 रंगों का समाज 

खुशियों 

के 

मोहल्ले 

की 

चौखट पर

उकेरा 

गया महावर है।

रंगों 

के 

समाज में

उम्र की 

हरेक सीढ़ी 

का

कद 

निर्धारित है।

रंगों 

का समाज

जीने 

की जिद 

को 

खुशी 

की 

मीठी सी

आइसक्रीम 

में भिगोता है।

रंगों 

के समाज 

में 

खरपतवार 

भी 

अंकुरित हो उठते हैं

उम्र की

चढ़ती सीढ़ी के

इर्दगिर्द।

रंगों का समाज

उम्र के 

महाग्रंथ 

को हिज्जे की तरह 

नहीं पढ़ता

वो 

उसे 

कंठस्थ करता है।

रंगों के समाज 

में 

फीकापन

उम्र 

बुढ़ापा नहीं होता।

वो चटख रंगों 

का समाज

फीके रंगों 

को 

भी 

गहरे आत्मसात करता है।

बस यही दर्शन 

है...। 

उम्रदराज़ भाषा में गहरे तक उभरता है प्रेम


कुछ 

अहसास

जो 

पथरा से गए हैं

उम्र 

की कोख में।

उम्र 

की 

बुजुर्ग 

होती 

जिद के बीच

कुछ

शब्द बचा रखे हैं

कविता के लिए

प्रेम के लिए।

कहा जाता है

प्रेम

उम्रदराज़ भाषा में

गहरे तक 

उभरता है।

इस उम्र में

भाव 

की उकेरी गई

लकीरें

बहुत 

सीधी होती हैं

आसानी से पढ़ी 

जा सकने वाली।

सच

प्रेम

इसी उम्र 

में 

अनुभव होकर

जिंदगी 

बन जाता है...।

मंगलवार, 30 मार्च 2021

ये घर बतियाता है तुम जानती हो


कोई

घर महकता है

तुम्हें पाकर।

कोई 

चौखट घंटों बतियाती है

तुमसे।

कोई दालान

तुम्हारे साथ जीना चाहता है।

कोई

दरवाजा तुम्हें महसूस कर

खिलखिला उठता है

अकेले में।

कोई धूप

कहीं किसी दरवाजे की ओट से

देखने आ जाती है

तुम्हें।

ये घर 

तुम्हारी  मौजूदगी का हस्ताक्षर है

तुम

जैसे चाहो इसे 

शब्दों में कह सकती हो।

तुम चाहो तो

इसे 

मन कह दो

चाहो तो

आत्मा

या फिर

हमारे अहसास।

घर 

तुमसे है

और 

तुम्हीं घर की श्वास हो।

घर 

तुम्हें न पाकर 

उतावला सा

आ बैठता है

मुख्य दरवाजे की चौखट पर

दूर तक देखता है

एक सदी निहारता है

और 

तुम्हें पाकर 

समा जाता है

अहसासों की चारदीवारी में।

घर

बतियाता है

हां 

ये घर बतियाता है

तुम जानती हो

शनिवार, 27 मार्च 2021

अक्सर चीखने वालों को देख मुस्कुराईये

 


कुछ रंग सजाईये

कुछ रंग बनाईये

उसमें बचपन की मस्ती

और 

पचपन की समझ

को घोटिये।

कुछ खुशियां मिलाईये

कुछ परेशानियों के किरचें आ जाएं तो

उन्हें निकाल फेंकिये

कुछ मिठास घोलिये

अपने दोस्तों संग बिताए

खूबसूरत पलों की

कुछ जमाईये 

ठंडी सी आईसक्रीम गर्म रिश्तों में।

कुछ फिरकी भी लीजिए

बच्चों की

बच्चों से पूछिये अटपटे से सवाल।

कुछ बुजुर्गो को गले लगाईये

अक्सर चीखने वालों को देख

मुस्कुराईये 

दिखाईये ताकत 

मुस्कुराहट की।

सादे हैं तो कुछ रंगीन हो जाईये

रंगीन हैं तो

सादे होकर पपीते से बन जाईये।

कुछ वृक्षों की छांह तक हो आईये

बच्चों को कागज दीजिए

और 

मिलकर पानी के चित्र बनाईये।

मजाक में ही सही

जिंदगी का एक गहरा सबक

इस होली सब तक पहुंचाईये।

ये होली

यूं अकेले और उदास सी है

ये बोझिल सी

उदासी को हटाईये 

घर में मोबाइल रखिये

और

किचन में चले जाईये

जीवन साथी के काम में 

कुछ हाथ बटाईये।

टीवी रोज देखकर थक गए हैं

अब

घर के सोफे पर 

पुरानी तरह की कोई 

एक 

महफिल जमाईये। 

ठहाकों में चलने दीजिए

चाय के कई दौर

कुछ पुराने हो जाईये

कुछ नया गुनगुनाईये।

जीवन में आनंद को खोजिए

उसके हो जाईये

आनंद बरसाईये। 

नशे में डूबे लोगों को समझाईये

जिंदगी कुछ यूं जी जाती है

नशे में तो उम्र ही नहीं

पूरी जिंदगी ही सूख जाती है।

अबकी कीजिए शुरुआत कुछ नया करेंगे

अबकी

होली पर जिंदगी 

और परिवार में 

कुछ नया रंग भरेंगे।

होली की शुभकामनाएं...मस्त रहें, खुश रहें और दूसरों के बेहतर होने में मददगार साबित हों क्योंकि ईश्वर ने सृष्टि मिलकर बनाई है और मिलकर ही वो परमपिता उसे संचालित करता है, हम असंख्य हैं और खुशियां और दुखों में उलझे हैं....मस्त रहें और खुश रहें, मिलकर चलें जिंदगी को खिलखिलाते हुए जीएं...। 

(फोटोग्राफ गूगल से साभार) 

गुरुवार, 25 मार्च 2021

इस जंगल में अब कोई पेड़ नहीं है


जिंदगी

और कैसी है

कुछ

ऐसे ही जीते हैं

कुछ ऐसे

हो जाते हैं।

जीवन का 

यदि कोई

चित्र खींचा जाए

तब

वह

कुछ इसी तरह का होगा।

कुछ जो

दमक रहा है

वह

हमारी

चेतना है

लेकिन

उलझनों के बीच

वह

सतत

छोटी हो रही है।

चेतना के बीच

ये जंगल हमीं ने बुना है

हम

ऐसे ही

खुश हैं

हम

इन उलझनों वाले

धागों पर रोज सफर

तय करते हैं

कूदते हैं

टूटते हैं

और 

इन्हीं में बसे हमारे घर में

थककर सो जाते हैं।

सोचता हूँ

बुना हुआ जीवन

और चुने हुए रास्तों में

हम

कितने साथ हैं

कितने अकेले।

इस जंगल में

अब कोई पेड़ नहीं है

केवल हैं

ऐसे ही

उलझे से

जीवन के चित्र।

तुम क्यों खोजते हो प्रेम को


 

तुम खोजते हो

प्रेम का अंश बिंदु।

तुम खोजते हो

प्रेम।

तुम खोजते हो।

प्रेम का पर्याय।

तुंम खोजते हो

प्रेम में कोई चेहरा।

तुम खोजते हो

प्रेम में कोई उम्र।

तुम खोजते हो

प्रेम में एक शरीर।

तुम खोजते हो

प्रेम में एक बाजार।

तुम खोजते हो

प्रेममें एक अपंग बहाना।

तुम खोजते हो

प्रेम का शहद और मिठास।

तुम खोजते हो

प्रेम के बीच कहीं कोई रसीला रिश्ता।

तुम खोजते हो

प्रेम और प्रेम की पीठ पर

सवार

कोई उसी तरह की दूसरी जिद।

तुम कितना कुछ खोजते हो

प्रेम में

प्रेम के लिए

प्रेम तक पहुंचने के लिए

प्रेम को पाने के लिए।

तुम नहीं खोजना चाहते

प्रेम का सच

प्रेम का उम्रदराज चेहरा

प्रेम का सूखा शरीर

्प्रेम का झुर्रीदार चेहरा

प्रेम में सवाल

प्रेम का ढलना

प्रेम का मुरझा जाना

प्रेम का बुजुर्ग होना

प्रेम का थका सा चेहरा।

तुम क्यों खोजते हो

प्रेम को

प्रेम

खोजा नहीं जा सकता

वो

है तो उपजेगा

और

तुम्हें

अंकुरित भी करेगा

और यदि

प्रेम नहीं है

तब तुम सूखे जंगल

की

एक तपती शिला हो

जिस पर

रिश्ते की कोई नमी

प्रेम की तासीर 

नहीं बन पाएगी।

रिश्तों का सूख जाना

प्रेम का सूख जाना नहीं है

प्रेम का सूख जाना

रिश्तों का अंत है।

बुधवार, 24 मार्च 2021

धूप को जंगल नहीं होने देंगे


 

धूप बाकी है

अभी 

धूल 

होती

जिंदगी की परत

पर 

एक टुकड़ा

रोशनी

अभी बाकी है।

उम्र के हरे 

पत्तों की

पीठ 

पर सूखे का मौसम

कहीं कोना

तलाश रहा है।

हरे 

पत्तों की

पीठ

के पीछे 

कोई 

सांझ है और रात भी।

पत्तों का 

निज़ाम

आदमी की आदमखोर 

होती

ख्वाहिशों 

पर एक सख्त

हस्ताक्षर है।

सच 

पत्तों ने 

अपनी 

धूप को 

अपनी मुट्ठी में छिपा 

लिया है

अगली 

पीढ़ी की मुस्कान

के लिए...।

वो धूप को

जंगल नहीं होने देंगे...।

मंगलवार, 23 मार्च 2021

सच बोनसाई पौधा है


 

चेहरे 

और 

चेहरों की 

भीड़

के बीच

सच 

आदमी 

की 

आदत

नहीं रहा अब।

सच

केवल

घर के 

आंगन 

में बोया जाने वाला

बोनसाई

पौधा है

जो 

बाहरी खूबसूरती का 

चेहरा है।

बोनसाई

हो जाना

सच की नहीं

आदमी के

सख्त मुखौटे

की मोटी सी दरार है।

सच

दरारों में 

ही पनपता है

अनचाहे पीपल की तरह...।

सोमवार, 22 मार्च 2021

सच गूंगी बांसुरी का शोर है


 आदमी 
सच 
को खोज रहा है
सत्ता रथ
के 
पहिये
के नीचे
भिंची मिट्टी में।
सच 
अब बुहार दिया जाता है
तूफान में
बिखरे 
आंगन के 
पत्तों 
की तरह।
सच 
अब झूठ की 
तपिश में
पिघलती हुई 
आईसक्रीम है
जो
पल भर में
गायब हो जाता है 
नजरों से।
सच 
गूंगी बांसुरी का शोर है।
सच 
चीखते 
चेहरों की बदहवासी है।
सच 
अब गूंगा भी है
और 
बेबस भी।
सच 
मोमबत्तियों 
की 
क्षणिक 
आवेग अवस्था है
और 
सच 
वो जो 
उम्रदराज़ होने तक
अपने आप को 
साबित करने
लड़ता रहे
अपनी महाभारत...।
सच 
क्या करेंगे खोजकर
हमें भी 
वो 
क्षणिक ही तो जानना है
किसी 
मोर्चे के अवसर 
के समान।
सच 
खुद चीत्कार कर 
रहा है
कैसे 
कह सकते हैं
हमने उसकी 
आहट नहीं सुनी।
सच 
कुछ दिनों 
में
शर्ट 
पर 
लगाया जाने वाला 
बैच होगा
लेमिनेशन
से सुरक्षित
और 
हमारे 
व्यक्तित्व को 
निखारता सा...। 
चलो 
सच में 
खोजते हैं
कोई कारोबार...।

शनिवार, 20 मार्च 2021

उबला सच उछाल दिया जाता है


 

चीत्कार

और 

रुदन में

एक अनुबंध होता है।

रुदन 

जब 

मौन हो जाए

वो 

बहने लगे 

जख्मों 

के अधपके हिस्सों से।

दर्द असहनीय हो जाए

तब 

वो 

चीत्कार 

हो जाया करता है।

इन दिनों 

चीत्कार

गूंज रहा है

कहीं 

कोई शोर है

कहीं

मन अंदर से 

सुबकना चाहता है सच।

सच पर 

बहस से पहले 

अब 

सच 

को 

क्रोध के जंगल में

बहस के 

पत्थरों के बीच

उबलना होता है

बहस का 

जंगल

कायदों

की ईंटों

को 

सिराहने 

रख 

सोता है

सच के उबलने तक।

उबला सच

उछाल दिया जाता है

बेकायदा 

शहरों की

बेतरतीब गलियों में

चीखती 

आंखों की ओर।

सच 

का उबाल

और 

उबला सच

दोनों में 

अंतर है। 

समाज 

नीतियों की प्रसव पीड़ा में

कराहते 

शरीर का 

खांसता हुआ 

हलफनामा है...।

सच

किसी

दुकान पर

पान के बीड़े में

रखी गई 

गुलेरी सा

परोसा जाता है।

लोग 

अब नीम हो रहे हैं...।

मंगलवार, 16 मार्च 2021

फूलों से बतियाना सफेद फूलों जैसा है


 

तुम्हें याद है

पहले फूल

जिन्हें हमने

साथ

छूआ था।

तुम कैसे

ठिठक गईं थीं

फूलों का सफेदीपन देखकर।

फूल और तुम

घंटों बतियाये थे

उनींदे

फूल

तुम्हें

बतियाते देख

कितने

खुश थे।

फूलों की दुनिया

में

सफेद

फूल

उम्रदराज़ कहलाते हैं

तुम और हम

उम्रदराज़ होने तक

सफेद

फूलों के साथ बिताएंगे हर दिन।

सच कहूं

फूलों से बतियाना

प्रेम

का

निवेदन

है

तुम्हारा

फूलों से बतियाना

सफेद फूलों जैसा है।

आओ

फूलों की रंगीन दुनिया में

एक

छत

सफेद फूलों की भी सजाएं...।

रविवार, 14 मार्च 2021

कटे पेड़ के शरीरों वाला जंगल


 नहीं जानता

तुम

कैसे सो पाते हो 

चैन से

उस रात

जब पेड़ का एक बाजू

काट दिया जाता है

और 

तुम तक

आवाज़ नहीं पहुंचती।

नहीं जानता

तुम

कैसे मुस्कुरा पाते हो

किसी 

कटे जंगल

में

सूखे पेड़ों के

आधे अधूरे

जिस्मों के बीच।

नहीं जानता

तुम्हें

पेड़ का कटना

सदी

पर प्रहार क्यों नहीं लगता।

नहीं जानता

पेड़ों के समाज

में

अब 

आदमी का

प्रवेश

निषिद्ध है

और हम बेपरवाह।

मैं

इतना जानता हूँ

कटे

पेड़

के शरीरों वाला जंगल

हमारे समाज की

आखिर सीमा है।

मैं 

इतना जानता हूँ

बिना

पेड़ों वाली सुबह

हो नहीं सकती।



शनिवार, 13 मार्च 2021

हमारी वैचारिक धरा पर पलाश बिखरा है


पलाश

पसंद है

हम दोनों को

पलाश

के रंग

हम दोनों से हैं

उसका मौसम

हमारे मन में

असंख्य

पलाश कर जाता है

अंकुरित।

हमारी वैचारिक धरा पर

पलाश बिखरा है। 

भाव और शब्दों

में

पलाश की रंगत है

पलाश

में 

हमारी कविता

हर 

मौसम महकती है

जैसे तुम और मैं

महक उठते हैं पलाश को पाकर।

हम 

उसके बिखराव और सृजन

दोनों का हिस्सा हैं।

बिखराव में

भी वह

हमें पलाश सा भाता है

खिलता

पलाश

हमें हंसाता है

बिखरा पलाश

जीवन समझाता है।

आओ

पलाश के बिखरे फूल

चुन लें

अगले मौसम की आमद तक।

रविवार, 7 मार्च 2021

फिरकनी के पीछे का आदमी


 

बाजार

में फिरकनी

और 

फिरकनी का बाजार। 

आदमी 

जो बेच रहा है

वो

फिरकनी में बाजार खोज रहा है

बाजार

फिरकनी के पीछे के रंग

और 

आदमी 

खोज रहा है 

फिरकनी के पीछे का आदमी।

कौन

खोया है

कौन 

खोज रहा है

मैं इतना ही जान पाया 

कि फिरकनी

उस थके आदमी के कांधे पर

झूमने के अभिनय 

की विवशता है।

इतना जान पाया 

कि

फिरकनी

तब मन से 

घूमती और झूमती थी

जब मां 

गोद में बैठाकर 

मेरे आंसु पोंछ दिया करती थी

और

थमाती थी सफेद फिरकनी

जो 

उसके प्रेम के चटख रंगों 

वाली होती थी। 

अब इस दौर में

थके

कांधे वाला आदमी

फिरकनी को 

देख 

जी रहा है

पेट भर रहा है।

थकी फिरकनी

रात थककर 

सो जाती है।

पूरा दिन घूमना और थके आदमी की

पीठ पर लदे रहने

का आत्मबोध

उसके पैर ठिठकने पर 

मजबूर कर देता है।

आदमी

फिरकनी

और 

बचपन

सबकुछ खो गए हैं

केवल बाजार है

नजर न आने वाला

जार-जार करता बाजार।

शनिवार, 6 मार्च 2021

कोई सुबह तो आएगी


 

कोई सुबह तो आएगी

जब

फूल पर

गिरी ओस की बूंद

प्रकृति का आशीष समझी जाएगी

उसकी तुलना

हीरे की दमक से

नहीं की जाएगी।

फूलों के रंग पर

नहीं

भंवरे फूलों की तासीर पर

फिदा होंगे

फूल

भंवरों की भूख नहीं

उनके नेह का

उभार होंगे।

कांटों का पहरा जब

फूलों से

हटा लिया जाएगा

गुलाब जब

फूलों के राजा

की पदवी

त्याग

नेतृत्व का

नया सवेरा लाएगा।

कोई सुबह तो आएगी

जब सूरज

फूलों के

जिस्मों को गर्मी से

कतई नहीं झुलसाएगा

बारिश उन्हें

अपने क्रोध में

नहीं बहाएगी

कोई सुबह तो आएगी।

मनुष्य की नजरें

गुलाब में

प्रेम

के रंग की सुर्खी

की जगह

देखेंगी

उसके गहरे से सौंदर्य मौन को

कोई सुबह तो आएगी।


शुक्रवार, 5 मार्च 2021

आसमान की श्वेत काया


आसमान की 

सतरंगी काया

श्वेत बादलों के उत्सव

का हिस्सा है।

बादलों पर

उत्सव में

सबकुछ साफ नज़र नहीं आता।

बादलों में

बिना

दीवारों के घर हैं।

घरों में

खिड़कियां भी

और उनसे

झांकते

हमारे अपने जो

आसमान की श्वेत काया हो गए।

वे देखते हैं हमें

हमारी नेकी पर 

खुश होते 

और

बुरे बर्ताव पर खिन्न।

नज़र नहीं आते

वे

बादलों के उत्सव का 

हिस्सा होते हैं।

वो जो आसमान पर

रंग देख रहे हो न

वो 

उन शांत और बेकाया 

लोगों 

को 

अपनों से मिलवाने का 

तरीका है।

खैर

बादलों की कालोनी

के 

घर

अब भी महकते है

अपनेपन की खुशबू से...।


गुरुवार, 4 मार्च 2021

उम्रदराज़ बचपन

 



मैंने

एक पेड़ को

उम्रदराज़ मौसम में

खिलखिलाते देखा।

अपने

पुराने

बदनण्पर

नई

पत्तियों वाली पोशाक में

बचपन

सा 

झूम रहा था।

गिरे हुए पत्तों के बीच

पेड़

सहमा सा नीचे भी देखता

और 

पत्तियों के गिरने पर

रुआंसा हो जाता।

नई कोपलें

टकटकी लगाए 

देख रही थीं

पेड़ को

कभी

सूखे पत्तों के

करारे और जर्जर

जिस्मों को।

पेड़ के चेहरे पर

दो सदी

के 

भाव हैं

उम्रदराज़ बचपन

और 

सदाबहार सच।

दोनों के 

एक

मायने हैं

जैसे

उम्र की

कोरों पर

फटी

कोई पोशाक होती है।

मंगलवार, 2 मार्च 2021

सांझ के दरवाजे पर


 

तुम्हें

सांझ से बतियाना पसंद है

मैं जानता हूं

तुम सांझ में खोजती हो

अपने आप को

मुझे 

और 

हमारे अपने दिनों की आभा को।

मैं 

जानता हूं 

तुम्हें सिंदूरी सांझ 

इसलिए भी पसंद है

क्योंकि वह

तुम्हें अंदर से

सिंदूरी रखती है।

यकीन मानो

हमारा सांझ के साथ

ये सिंदूरी रिश्ता

उम्र 

का सच्चा कोष है।

मैं

तुम्हें 

और 

तुम मुझे

खोज सकते हैं

सांझ के दरवाजे पर।

अलहदा कुछ नहीं है

सांझ

तुममें और मुझमें

साथ साथ

उतरती है

रोज

हर पल

हर दिन।

सोमवार, 1 मार्च 2021

पलाश


तुम्हें 
पलाश पसंद है
हां पलाश
जिसके 
नीचे हमने भरे थे 
सपनों में रंग।
पलाश
हमारे जीवन की 
किताब का
आवरण है।
पलाश पर
तुमने
पहली कविता लिखी थी
उसके रंग की
स्याही में भिगोकर
शब्द 
अब भी उभरे हैं
तुम्हारे मन
और 
मेरे विचारों पर।
पलाश
पर अब भी तुम 
लिखना चाहती हो जीवन
और
हमारे रिश्ते को।
पलाश
सच 
कितना सच है
ये 
तुममे और मुझमें 
समान महकता है।
पलाश 
उम्र के दस्तावेज पर
अंकित है 
और महकता रहेगा।

समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...