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रविवार, 27 जून 2021

मुझे पसंद है


 









तुम्हें पसंद है

मुझमें

स्वयं को खोजना

और 

मुझे पसंद है

तुम्हारे चेहरे पर नजर आना।

तुम्हें पसंद है

मेरे शब्द, भाव, गहनता

मुझे पसंद है

तुम्हारा वह

होले से आकर मुझे छू लेने वाला अहसास।

तुम्हें पसंद है

बारिश और उन बूंदों में

मेरा साथ

मुझे पसंद है

घर का दालान, बूंदें और तुम्हारे हाथों का स्पर्श।

तुम्हें पसंद है

अपने घर के दालान की मिट्टी की महक

मुझे पसंद है

तुम्हारे उस मर्म की गंध को छूते भाव।

तुम्हें पसंद है

घर के आंगन का नीम

मुझे पसंद है

तुम्हारा उस नीम को छूकर

पहली बार

मेरे मन के करीब आना।

तुम्हें पसंद है

सर्द हवा में मेरे मफलर में गर्माहट के रंग

मुझे पसंद है

तुम्हारे चेहरे का गुलाबी अपनापन।

तुम्हें पसंद है

हरीतिमा 

और मुझे पसंद हो

तुम 

क्योंकि

तुम और में 

एक ऐसे घर को गूंथ रहे हैं

जहां

प्रकृति के अंकुरण 

बहुत गहरे होंगे...।

हां 

सच हमारा घर महकता है

तुम्हारी और हमारी

इन नेह की फुहारों से।



गुरुवार, 24 जून 2021

यहां प्रेम पर


 









मैं पूछ बैठा

बस्ती में

क्या प्रेम 

बसता है

शरीर में

मन में

आत्मा में

या फिर

केवल शरीरों का एक लबाजमा है

बस्ती की काया। 

तपाक से उत्तर आया

एक थके हुए अधेड़ का

प्रेम

तंग गलियों में

आकर

शरीर हो जाया करता है।

प्रेम

टूटे छप्परों में

देह पर

केंचूएं सा रेंगता है

और

हर रात

हारकर

सीलन वाली

दीवारों पर

चस्पा हो जाता है

देह की 

थकी हुई गंध बनकर।

प्रेम

बस्ती की

घूरती आंखों में

कई बार

तार-तार हो जाया करता है

जिस्मों से झांकती मजबूरियों में।

प्रेम 

को बस्ती में

कोई नाम नहीं दिया जाता।

प्रेम

यहां बेनाम होकर

उम्र दर उम्र

बूढ़ा होता रहता है

जिस्म की गर्मी 

के 

पिघलने के साथ।

यहां के प्रेम पर

कोई 

कविता नहीं होती

यहां

प्रेम पर 

कोई शब्द नहीं होते

यहां

केवल ख्वाहिशों का जंगल है

जो 

सुबह से रात तक

थकन का एक स्याह

बादल बनकर

बरस जाता है

आत्मा को

पैरों से खूंदता हुआ। 

सच हमारे यहां तो 

प्रेम

ऐसा ही होता है। 

प्रेम यहां

एक सख्त

चट्टान है

जो हर तरह की चोट

सहकर

धीरे -धीरे टूटता है

अंदर ही अंदर

एक शरीर के

पत्थर हो जाने तक।


बुधवार, 23 जून 2021

यहां केवल फरेब है

 



महानगर की 
बंद गलियों के
बहुत अंदर
कहीं 
पलती है
बेबसी
किसी फूटे हुए
पाइप से
रिसते हुए 
नाले के मैले पानी के बीच
चरमराई जिंदगी
रोटी को
ही 
भूगोल कहने लगी है।
चीखती है
पूरी ताकत से
हुकुमरां के सामने। 
आवाज़
कभी भेद नहीं पाती 
गरीबी की उन संकरी गलियों 
को।  
हुकमरां 
आते रहे, जाते रहे
गलियां संकरी होकर
अपने में ही धंसती गईं
किसी वृद्धा के
पेट 
की अंतड़ियों की भांति
जिसकी भूख
खत्म हो जाती है
बचती है
केवल
धूरती हुई अस्थियां। 
मैं
उन बस्तियों पर सच सुनने वालों 
और 
खीसे निपारने वालों को
आईना दिखाना चाहता हूं
कि 
यहां 
जिंदगी
एक मैली गटर से आरंभ होती है
और 
उसी मैली गटर के 
किनारे कहीं
दम तोड़ देती है।
चीखता हूं मैं भी
उस दिन
जब 
गटर पर जीने वालों
के बीच
उम्मीद लेकर
कोई
नागैरत पहुंचता है 
तब देखता हूं
उन चेहरों को 
जो उसे वाकायदा घूर रहे होते हैं
खामोश रहते हुए।
महानगर बसता है
इन बस्तियों की संकरी
गलियों में भी
जहां
भूख
के मायने बदल रहे हैं 
जहां भूख
अक्सर
बच्चों की पैदाईश का सबब हो जाया करती है। 
सोचता हूं
ऐसी संकरी गलियों की चीख
कभी
बहरा कर पाएगी
बेज़मीर सियासतदारों को। 
खैर,
यहां
केवल रात होती है
सुबह
और 
सुबह की उम्मीद
यहां 
केवल
फरेब है।
यहां 
उम्मीदें 
अगले ही पल
पिघल जाती हैं
केवल
जिस्म बचते हैं
जो घूरते हैं
घूरते हैं 
और केवल घूरते हैं...। 





मंगलवार, 22 जून 2021

शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता











प्रेम 

सूखे पत्तों पर 

लिखा जा सकता है

लेकिन 

उस पर 

भाषा और भाव

केवल प्रकृति ही उकेर सकती है।

प्रेम

व्यक्त किया जा सकता है

केवल अहसास में

बुजुर्ग होते शरीरों के दरमियान।

प्रेम 

देखा जा सकता है

चातक की 

प्रतीक्षा के प्रतिपल

प्रबल होते विश्वास में।

प्रेम

स्पर्श किया जा सकता है

सूखी धरती के 

फटे शरीर की 

दरारों में

उगते किसी

अकेले

अंकुरण की

पीठ को सहलाकर।

प्रेम

तृप्ति दे सकता है

हजारों योजन

की यात्रा

करते

उन पक्षियों को

जिन्हें

भरोसा है 

अब भी 

हमारी आदमीयत पर

जो

कंठ तृप्त करने

अब भी 

उतर आते हैं

हमारे सूखते शहरों की 

गर्म और तपती

छतों पर 

झुलसती उम्मीदों की पीठ पर रखे

सकोरों के पानी पर। 

प्रेम

में प्रेम से ही

प्रेम का 

अंकुरण फूटता है

प्रेम 

यहां कभी भी आदमखोर नहीं होता

प्रेम

अब भी

पक्षियों के थके हुए 

परों 

में झुलसती गर्मी के बीच

छांह भर लेने 

के संकल्प का ही दूसरा नाम है। 

शरीर 

और

प्रेम

एक-दूसरे के पूरक हैं

क्योंकि 

शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता

और प्रेम

का कोई शरीर नहीं होता।

प्रेम

अलसुबह

तुम्हारे चेहरे की

उस

उनींदी मुस्कान का नाम है

जिससे

ये घर

और 

ये दालान

जिसमें

एक बूढ़ा नीम भी है

प्रेम करते हैं। 

सोमवार, 21 जून 2021

गरीब की झोपड़ी का भूगोल

 










गरीब 

की झोपड़ी का भूगोल

क्या कभी 

किसी चुनाव का 

पोस्टर होगा ?

गरीब

किसी चुनाव में चयन का आधार होकर

विकास के दावों 

की छाती पर 

पैर रखकर

बना सकेंगे

कभी 

अपनी भी कोई खुशहाल दुनिया।

पेट में अंतड़ियों का

विज्ञान

भूख के भूगोल में दबकर

हमेशा से 

इतिहास होता रहा है। 

टपकती झोपड़ियों में 

सपने भी

हवा के साथ 

झूलते रहते हैं

बांस की किसी कील पर 

होले से लटके 

किसी ख्यात फिल्मी सितारे के 

पोस्टर की भांति।

पोस्टर में दरअसल

गरीब की

ख्वाहिशें झूलती हैं

आंखों में 

सभ्यता के दो चमकीले बटन

और

शरीर पर 

बेमेल और बेरंग से कपड़े

और 

अमूमन 

नंगा जिस्म। 

गरीब

क्या है साहब ?

किसी 

नाले के किनारे

गंदगी के बीच

जिंदगी की

जबरदस्त आपाधापी। 

अर्थ में विभाजित

समाज में

उछाल दी जाने वाली

चवन्नी

या 

आठ आना

जिसे 

उठाने में

पैरों तले 

अक्सर कुचल दिए जाते हैं 

गरीबों के हाथ

इस बेरहम

जंगल में

भागते महत्वकांक्षी

मतभेद वाली

जिद के नीचे।

गरीब केवल चुनावी

बिल्ले की तरह है

जिसे चुनाव के दौरान

सफेदपोश 

अपने कुर्ते पर सजाते रहे हैं

और चुनाव होते ही

कुर्ते सहित

उतार फेंकते हैं

उस गरीब बिल्ले को।

70 के दशक के 

गरीब चुनावी बिल्ले 

अब 21वीं 

सदी तक आते आते

सठिया गए सिस्टम

की 

सबसे बड़ी प्रदूषित

मानसिकता की विवशता कहलाते हैं।

अब

वे गरीब के साथ

नाउम्मीद गरीब हैं

जिन्हें केवल

रोटी

कपड़ा

और 

श्रम में ही खोजना है

पसीने से चिपटी

देह वाला कोई

नमकीन सपना।  


( बिल्ला का अर्थ पूर्व के वर्षां में जब चुनाव मतपत्र से हुआ करते थे तब नेताओं के पक्ष में बिल्ले बनाकर बांटे जाते थे जिन्हें कपड़ों पर लगाया जाता था )


शुक्रवार, 18 जून 2021

वो छांव कहां से लाऊं










 जो मुस्कान बिखेरे

वो शब्द कहां से लाऊं।

जो तुम्हें बचपन दे दे

वो हालात कहां से लाऊं।

सख्त हो चली है मानवता की धरती

इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।

देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए

जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।

बुधवार, 16 जून 2021

सपने बुनता मजदूर अस्त हो जाता है












सुबह

सूरज के साथ

उग आते हैं

मजदूर सड़कों पर।

पूरा दिन

सिस्टम की अतड़ियों में

खोजते हैं

निवाले।

सूखते दिन में

उम्मीद कई दफा

पसीने सी टपकती है।

फटी जेब में

रुमाल से बंधे

रुपयों में

सपने बुनता मजदूर

अस्त हो जाता है

सूरज के साथ।

अगले दिन

पौं फटते ही

दोबारा उगने के लिए..। 

मंगलवार, 15 जून 2021

भोंपू सा बजता सिस्टम


 

धधकती धरती

पर

विचारों का

कोलाहल है।

पत्तों सा

तप रहा है

आदमी।

कोलाहल का

शोर

शाब्दिक है

अर्थहीन भी।

गली के नुक्कड़

पर

भोंपू सा

बजता सिस्टम

अब

कलेजे को

चीर रहा है।

दूर कोई

आदमी फटे जूतों

से झांकते तलवे में

बिछा रहा है

आदतों की कतरन।

कोई

बैसाखी बेच रहा है

कोई

मांग रहा है

नौकरी।

कैसी भयावह तस्वीर है

जमीर की बाहरी परत की।

कतरा-कतरा

और एक दूसरे में

उलझा सा

समय और उसका

सख्त चेहरा।

दूर कहीं

प्रलोभनों की

नुमाइश लगी है

पैंतरे

खरीदते चेहरे

तिकड़म बिछा कर

सो रहे है

भूखे बैल की

परछाई की छांव में।

रविवार, 13 जून 2021

एक सख्त सजा चाहता हूँ






काश कि
बहता रक्त
तुम्हारे भी शरीर से।
काश की 
टीस में कराहते तुम भी।
काश कि
तुम्हारे उखड़ने
और 
उजड़ने पर
तुम भी
उठा सकते आवाज़।
काश कि 
तुम भी दे सकते 
कोई तहरीर।
काश कि
होती सुनवाई तुम्हारी भी।
काश कि
तुम भी 
दिलवा पाते सजा
तुम पर 
हुए
कातिलाना हमले के
आरोपियों को।
काश कि
तुम भी बदले में 
मांग सकते
मुआवजा
दस वृक्षों को 
लगाने का।
काश कि 
रोक देते तुम भी 
अपनी सेवाएं
अपनों की हत्याओं के विरोध में।
काश कि 
तुम सब
हवा
पानी
धूप
आग 
एक होकर 
कर सकते आवाज़ बुलंद।
काश कि 
हम 
मानव समझ सकते 
तुम्हारे दर्द को
और 
तुम्हें काटने से पहले
कुल्हाड़ी 
कर देते
जमींदोज...।
काश कि 
हम तुम्हारे साथ 
गढ़ते 
अपना समाज...।
मैं 
तुम्हारे कटे 
शरीर पर 
मौन नहीं
एक 
सख्त सजा चाहता हूँ
तुम मांगो या ना मांगो...।




 

शुक्रवार, 11 जून 2021

उन अधनंगे बच्चों के बीच


सोचता हूं 

बचपन की वह 

कागज की नाव 

कितनी भरोसेमंद थी

आज तक तैर रही है

मन में कहीं किसी कोने में।

बाहर बारिश थी

बहुत तेज

जैसे कोई बुजुर्ग 

झुंझला रहा हो

खीझ रहा हो

अपनों की बेरुखी के बाद। 

मैं 

खिड़की पर पहुंचा

देख रहा था

घर के सामने वाली बस्ती में

कुछ अधनंगे बच्चे

झूम रहे थे 

उस तेज बारिश में

परवाह को 

ठेंगा दिखाते हुए। 

मैं उन्हें देखता रहा 

और

भीगता रहा 

उनके साथ घंटों

उस खिडकी के इस पार।

नजदीक ही 

एक चीख ने मेरा

बारिश और बचपन की स्मृति से

वार्तालाप तोड़ दिया।

आवाज कर्कश थी

जानते हो

बारिश है भीग जाओगे

बीमार हो जाओगे

और मैं मुस्कुराया 

और दोबारा

बचपन और बारिश से 

वार्तालाप करने 

अपने आप को ऊंगली पकड़

ले आया उसी खुले मैदान की 

बस्ती के 

उन अधनंगे बच्चों के बीच।

अबकी 

मैं कल्पना में

एक कागज की नाव लेकर 

जाना चाहता था

उन अधनंगे बच्चों के बीच

बहुत सारी 

नावों को भरकर

ये कहने कि

छोड़ दो ना तुम भी

ये नाव

देखना

तुम्हें ये तब भी 

बारिश से भिगोएगी जब 

अक्सर तुम सूख चुके होगे

इस 

दुनिया की रस्मों में

जीते जीते।

मैं 

कोट 

को उतार

कागज की नाव दोबारा बनाने लगा

नाव

वैसी ही बनी

जैसी बचपन में थी

सोचता हूं 

इस बारिश

इस नाव जैसी ढेर सारी नाव

उसमें

उम्मीदें

खुशियां

जिंदगी रखकर दे ही दूं 

उन बच्चों को। 

मैं 

नाव देख खुश हो रहा था

और वे

भीगते हुए नाचकर।

सोचने लगा

क्या फर्क है

इस नाव 

और 

उस बचपन में

और 

वह नाव डायरी में रख ली।

अब 

जबकि 

उम्र 

शरीर और विचारों को 

वजनदार बना चुकी है

अब अक्सर देख लेता हूं

उस नाव को

छूकर

जो डायरी में रखी है

कुछ पीली सी

यादों को संजोती

जो 

विचारों में अब भी तैर रही है

बेखौफ

उन अधनंगे बच्चों की तरह।


 

गुरुवार, 10 जून 2021

मेरी बच्ची ये सब संजो लेना











तुम्हारे

बचपन ने देख लिए हैं

जंगल, नदी, पेड़

और

उनमें समाई खुशियां।

तुमने

देख ली है

प्रकृति की दुशाला

कितनी कोमल होती है।

तुमने देखा है

नदियां बहती हैं

कल कल।

तुमने देखा है

पक्षी

छेड़ते हैं

मौसम की तान।

तुमने देखा है

बारिश और अमृत बूंदों का

वो पनीला संसार।

तुमने महसूस की है

हवा की पावनता।

तुमने

देखा है उम्रदराज

पेड़ों पर

तितली और चीटियों

का मुस्कुराता जीवन।

तुमने

सुना है हवा से

पेड़ कैसे बतियाते हैं।

मेरी बच्ची

तुम ये सब

संजो लेना अपनी

यादों में।

कल बचपन नहीं होगा

तुम्हारा

लेकिन

जीवन की दोपहर

आएगी

और साथ आएगा

सूखापन लिए

दांत कटकटाता भविष्य।

तब तुम

यादों की किताब

के पन्ने

करीने से पलटना

क्योंकि तब तक

संभव है

यादों में भी आ जाए

उम्र का पीलापन।

बस ध्यान रखना

यादें पीली होकर

जीवित रहती हैं

बस सूखने पर

खत्म हो जाया करती हैं...। 

बुधवार, 9 जून 2021

ओ री जिंदगी...सुन तो सही











जिंदगी का फलसफा भी
अजीब है
जो मुस्कुराते हैं
वह अंदर से
दुखी
माने जाते हैं
जो
मौन रहते हैं
उन्हें
विचारों का प्रवाह
प्रखर
बना देता है
जो
कहना जानते हैं
उनकी बात
बेमानी है
जो
मन में दबाते हैं
उनकी
सब सुनना चाहते हैं
मेवे
वे बेचते हैं
जिन्हें
सब्जी भी
मिल नहीं पाती।
सोचता हूँ
कैसी
दुनिया है
हंसने बगीचे जाती है
घर को
उलझनों
की भेंट चढ़ाती है।
पढ़े लोग
श्रोता होते हैं
अनपढ़
और
उलझे लोग
जीवन दर्शन पर
बहस का हिस्सा हैं।
सोते शरीर हैं
जागता केवल
दिमाग है
भूखे
सूखी रोटी खाकर
नंगे
पाईपों में
ठहाके लगाते हैं
समृद्ध
विचारों की संकरी
पाईप
में
बदहवास से
उम्र बिता देते हैं।
किसी मोटे पेट वाले ने
अधनंगे बच्चे को देखकर
उसे घूरकर देखा
और
गहरी खाई में
धकेलना चाहा
वो अधनंगा
लड़का
ठहाके लगाकर
नाचने लगा।
सोचिए
जिंदगी हार रही है
या
हम
जिंदगी हार रहे हैं।
बचपन के बाद
कभी नहीं हंसते
अब
हर पल
हम
अपने जंजाल में
खुद फंसते हैं
और
फंसते जाते हैं।
जिंदगी
की भोर
से
सांझ तक का सफर
बिना
जीये ही बिता लिया
जब
लाठी वाली
रात
दांत कटकटाती है
तब जिंदगी का भूगोल
इतिहास में
तब्दील हो जाता है...।

सोमवार, 7 जून 2021

आपदा वाले शहर का डर

 















खिड़की से

झांकती वृद्धा

की कमजोर आंखें

टकटकी लगाए है

बादलों पर।

कानों

में गूंज रही है

आपदा से बचाव के लिए

शोर मचाती

समाचार वाचिका।

तूफान आने को है

सूखी आंखों में

चिंता की

गहरी धूल

पट चुकी थी

रेतीला तूफान तो

आ चुका...।

दरवाजे की

बंद कुंडी

पर बार-बार

थरथराता हुआ हाथ

उसे परख रहा था।

कभी बच्चों के सिर पर

हाथ फेरती

वो कहती

देखना

ये सब झूठ है

ये समाचार वाले

भगवान थोड़े ही हैं

कुछ भी कहे जा रहे हैं।

हमारा घर मजबूत है

तुम्हारे दादाजी ने

अपने हाथों

इसकी ईंट जोड़ी हैं।

फिर अगले पल

खिड़की की झीरी से

बाहर झांकती।

वो देखो

मैं

कहती थी

सभी बादल काले कहां हैं

बीच में एक सफेद भी है।

तभी टीवी पर आवाज़

तेज हो जाती है

अब तूफानी हिस्से में

हवा चलने लगी है

वृद्धा दौड़कर

खिड़की के सुराख पर

रखती है ऊंगलियां।

कहां है हवा

हां थोड़ी है तो

लेकिन

ऐसी तो रोज होती है

फिर

आवाज़ गूंजती है बस

कुछ देर में

तूफान आने वाला है

हम आपको देते रहेंगे

हर पल की खबर।

वृद्धा अबकी चीखती है

बस...बंद कर दे इसे

और

डर सहा नहीं जाता

आने दो तूफान को

वो इस

डर के बवंडर से

बड़ा नहीं होगा...।

वृद्धा बच्चों को

कलेजे से लगाए

एक जगह बैठ

कहती है

देखना

तुम्हारे दादाजी का

घर बहुत मजबूत है

कई तूफान झेले हैं

हमने भी...।

कुछ खामोशी

फिर

हवा तेज होती गई

वृद्धा की

आंखों की धूल

नमक हो कोरों

पर जम गई। 

भय 

आंखों की कोरों से बहकर

जमीन पर आ गिरा

अब बच्चे 

उन आंसुओं को 

ये कहते हुए पोंछ रहे थे 

तुम सच कहती थीं

ये 

मकान दादाजी ने 

अपनी मेहनत से बनाया है

देखो हमें कुछ नहीं हुआ

हम 

तूफान 

को हराकर जीत गए।

 


शुक्रवार, 4 जून 2021

...क्योंकि वन्य जीव श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकते



 (विश्व पर्यावरण दिवस पर खास कविता...)

अक्सर हम

जंगल की मानवीय भूल पर

क्रोधित हो उठते हैं

जंगल से हमारी आबादी में

जंगली जीव की आदम

को 

पलक झपकते ही 

करार दे देते हैं

हिंसा

और उसे हिंसक।

कभी

जंगल जाईयेगा

पूछियेगा

कटे वृक्षों से

शिकार होकर

मृत 

वन्य जीवों की अस्थ्यिों के ढांचों से

हमारी आबादी की प्यास से सूख चुके

जंगल के

तालाबों, नदियों से

जंगल के धैर्य से

हमारे पैरों खूंदी गई

वहां की

लहुलहान आचार संहिता से

कि क्या कोई 

शिकायत है

उन्हें मानव से...?

जवाब यही आएगा

नहीं

वो तो इंसान है

जानवर नहीं

क्योंकि जानवर तो

जंगल में रहते हैं। 

आखिर

जंगल

सभ्य और हमारी बस्ती

असभ्य क्यों हो रही है।

जंगल आखिर 

बहुत दिनों तक

जंगल नहीं रहने वाला

क्योंकि

जंगल की छाती पर

सरफिरे 

अब शहर गोद आए हैं। 

जंगल

अब शहर होगा

क्योंकि

जंगल

भयाक्रांत है

कट रहा है

सूख रहा है

अस्थियों में बिखर रहा है

और 

हमारे यहां वह 

साजिश में उग रहा है। 

अबकी जंगली जीव को

हिंसक लिखने से पहले

सोचियेगा कि

कौन

अधिक हिंसक है

और 

किसके घर में कौन दाखिल हुआ

और

किसके मन में

हिंसा का जहर है।

आखिर

हमारे यहां आते ही 

उसे 

मार दिया जाता है

क्योंकि वह

हिंसक है

हम जंगल में दाखिल हों

तब 

उसका हमला

भी हिंसा है

क्योंकि

वह रख नहीं सकता

अपना पक्ष

वह 

जारी नहीं कर सकता

कोई श्वेत पत्र

अपनी और अपनों की मौतों पर। 

- अक्सर खबरों में देखता हूं कि जब भी कोई वन्य जीव शहरी आबादी में आता है तब उसे हिंसक करार दे दिया जाता है, लोग उससे भयभीत हो उठते हैं, ये सच है कि वन्य जीव की जगह शहर नहीं जंगल है...तब क्या आदमी की जगह जंगल है...क्या चाहिए उसे जंगल से, क्यों खेल रहा है वह जंगल से...ये नकाबपोश आदमी अपने जंगल से भाग रहा है क्योंकि यहां जीवन मुश्किल हो गया है...ये कविता अंदर उठी चीखों से है कि क्यों हम उन्हें उनका जंगल नहीं लौटा देते...क्यों आएगा कोई अपना घर छोडकर...। सोचियेगा...

संदीप कुमार शर्मा, 

संपादक, प्रकृति दर्शन, मासिक पत्रिका

नदी सवाल करती है











नदी

कह रही है

प्राण हैं

उसमें

जो तुम्हारे

प्राण की भांति ही

जरूरी हैं।

नदी

सवाल करती है

क्यों

मानवीयता का

चेहरा

दरक रहा है।

नदी के शरीर की

ऊपरी सतह

की दरकन

अमानवीय

आदमियत है।

गहरी

दरकन

भरोसे और रिश्ते

की चटख

का

परिणाम है।

नदी किनारे

अब

अक्सर सूखा

बैठा मिलता है

नदी

उसे भी

साथ लेकर

चलती है

समझाती है

मानवीय भरोसे

के

पुराने सबक।

नदी चाहती है

उसके

प्राण

की वेदना

पर

बात होनी चाहिए

पानीदार आंखों

की

सूखती

पंचायतों के बीच...। 

बुधवार, 2 जून 2021

प्रारब्ध


 

रात

तुम और ये कायनात

सच

एक अजीब सा

रिश्ता है

कोई

कुछ नहीं कहता।

सबकुछ

कह जाने की

व्याकुलता

गूंजती है

फिर भी

हमारे बीच।

बहुत ऐसा है

जो

बांध रहा है

हमें

कहीं किसी नजर

का कोई प्रश्नकाल।

कोई है

जो जाग रहा है

हम तीनों में

होले से

झांकता हुआ

मन

की अधखुली खिड़की

से आती

मीठी वायु में

उसके एक

पल्ले पर सिर

टिकाए।

हां

हम सभी चिंतित हैं

रिश्तों से रिसते

भरोसे पर

सूखते हरेपन पर

मौन की

चीख पर

दांत कटकटाते

अकेलेपन पर।

हां

हम

खुश हैं

सबकुछ समाप्त होने के बीच

तिनके जैसे शेष

उस सूखे पेड़ पर झूलते

भरोसे पर।

हां

हम उदास हैं

निराश नहीं हैं

क्योंकि

हम, तुम और ये कायनात

ही सच है

एक प्रारब्ध है।

 

फोटोग्राफ-विशाल गिन्नारे


अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...