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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

सपनों और रंगों में एक महीन सा फर्क है


 रंगों के शहर में

नजरें

कारोबारी हो जाया करती हैं।

रंगों 

का कारोबार

बदन

पर केंचुए सा 

रेंगता है।

रंगों 

की पीढ़ी 

उम्र 

से पहले

उन्हें ओढ़कर 

सतरंगी आकाश 

पर टांकने लगती है

कोरे जज्बाती 

सपने।

सपनों 

का रंग

जरूरी नहीं

रंगों की दुनिया 

की 

तरह 

आकर्षण 

का आवरण लिए हो।

सपनों और रंगों में

एक 

महीन सा फर्क है

एक दरार 

की कोरों को 

सहलाती हुई हवा

और 

उसकी भूख

का दैहिक 

आवरण।

भटकाव 

और 

लक्ष्य 

के बीच कहीं

सपनों की दीवारों पर

अक्सर रंगों 

की उम्र

रेंगती है केंचुए की भांति।

सपनों 

में रंगों का प्रवेश

उसके आवरण पर 

दरारों की तरह

चटखन छोड़ जाता है।

सपने 

बैखौफ होते हैं

बिना रंगों के 

समाज में 

वहां 

भटकाव का 

कारोबार नहीं होता...।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

सूरज ऐसे ही नहीं कहलाता अपराजित योद्धा

 



आओ एक 
सुबह 
ले आएं पश्चिम दिशा से।
सांझ 
की गोद में 
थके सूरज को
जब भी 
उठने में देरी हो जाती है
अगली सुबह
पूरब में 
बादल छा जाया करते हैं।
सूरज 
को मिलता है 
आराम इस तरह
और 
क्यों न मिले
आखिर उसे तो 
रोज 
असंख्य योजन 
का सफर तय करना है।
जब कभी 
दिन में 
पसीने से नहाया हुआ
सूरज 
किसी सख्त बादल 
की 
पीठ पर 
बैठ जाता है 
और सांझ 
तक पहुंच नहीं पाता 
मंजिल तक
तब 
पश्चिम में 
बादल छा जाया करते हैं..।
प्रकृति 
का सिस्टम है
वो भरोसा करती है
सूरज की निष्ठा पर
दिशाओं की
प्रतिबद्धता पर
बादलों 
की सजगता पर
इस मानव की
दुनिया पर
जो 
सूरज के 
उदय के साथ 
जागती है
और 
अस्त होने के साथ 
सो जाती है...।
जब सभी को 
एक 
सिस्टम में 
जीना है
चलना है
बंधना है
तब 
किसी
विरोध शब्द 
की 
जगह 
बनती नहीं है
प्रकृति की इस 
हरी किताब में...।
सब तय है
सूरज का 
हर दिन का सफर
चंद्रमा का 
हर रात  
काले जंगल 
में 
अकेले का
विचरण।
बारिश
धूप
हवा...।
ये सब एक भरोसे के 
सिस्टम 
से बंधे हैं
बिना 
शर्त
हंसते और मुस्कान 
बिखेरते 
सच की नज़ीर लिखते...।
सूरज 
ऐसे ही अपराजित योद्धा
नहीं कहलाता...।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

जला हुआ पेड़

जब भी कोई

पेड़ 

जलता है

तो केवल

उसका शरीर नहीं झुलसता

साथ झुलसते हैं

संस्कार

जीवन

उम्मीद

और भरोसा।

जले हुए

पेड़ के जिस्म की गंध

एक 

सदी के विचारों के 

धुआं हो जाने जैसी है।

जले हुए पेड़

में

बाकी रह जाता है

झुलसा सा मानवीय चेहरा

झुलसी हुई सदी

और 

उसके बगल से झांकती

सहमी सी प्रकृति।

झुलसने और झुलसाने के बीच

कहीं बीच

खड़ा है

आदमी का आदमखोर जंगल

और 

विचारों के लिबास में

आधी झुलसी 

सभ्यता...।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

आंसुओं की भी तो भाषा होती है


 शब्द

हर बार जरुरी तो नहीं

आंसुओं

की भी तो भाषा होती है

पलकों की

सीलन 

की मात्रा

का भी तो

हिसाब लगाया जा सकता है।

ये कैसा जहां है

जो 

पूछता ही नहीं

कि 

आंखों के पनीली होकर 

बह जाने का दर्द क्या होता है

कोई सुनता ही नहीं

कि 

आंसुओं से डबडबाई आंखों में 

नमक कितना गहरे चुभता है

कितना खारा हो जाया करता है

कोई कोमल मन।

क्या हम

ऐसी कोई सदी जानते हैं

कल्पना में उसे 

दे सकते हैं आकार। 

देना होगा

क्योंकि ये 

सदी तो

दुखों से भरी हुई

एक नमक का दरिया है

जिसे

पार करना अब यूं 

आसान भी तो नहीं।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

नए वसंत में

 


वसंत

यादों के पीलेपन

का

चेहरा है।

वसंत 

का चेहरा

पीला है

इस खुरदुरे समाज में 

पीलापन

अब सख्त सवाल है।

गेहूंआ

होकर कसूरी गंध 

पर

शब्दों की इबारत गढ़ी जा सकती है।

पीलेपन का 

उम्रदराज होना

और 

जगह जगह से

दरकना

वसंत नहीं माना जाता।

शब्दों की

भंगिमाओं के परे

एक 

नया पीलापन आकार ले रहा है

विचारों में।

ये 

उस गहरे पीले से 

कुछ 

हटकर है

चटख पीला।

वसंत

खेतों से होकर

उम्र की फसल पर आ थमा है।

खोजो

नए वसंत में 

कुछ 

पुराना और टूटता सा।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

हर पांचवें कदम


 मैं 

रेतीला सा

सख्त इच्छाओं को

पीठ पर 

टांगें

चलता जा रहा हूँ

समुद्र किनारे

गीली मिट्टी पर।

पैरों 

के निशान

गहरे हैं

लेकिन

हर पांचवें कदम

पलटकर देखता 

हूँ

कुछ निशान

पानी

पी चुके नज़र आते हैं

कुछ

मेरे बढ़ने का 

कर रहे हैं

बेसब्री से इंतज़ार।

पीठ पर लदी 

सख्त इच्छाएं

पसीज रही हैं

मेरे

रेतीले होने पर

उसे ऐतऱाज है।

सोचता हूँ

रेतीला

होना

सख्त होने के खिलाफ 

गवाही है

या एकालाप।

इतना ही समझ पाया

रेतीला होना

इच्छाओं के विपरीत

एक 

साहसिक कदम है।

हर पल

बिखर रहा हूँ

समय की पूछ 

के 

निशानों की आहट से...।

संदीप कुमार शर्मा



(फोटोग्राफ...अतुल श्रीवास्तव जी)

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

भय बुनता है जीवन


 

सांझ

कभी ठहरकर देखो

एक 

पूरी रात

बिना सतरंगी सपनों के।

देखो तो सही

एक पूरी आबादी

बे -सपना

बदहवास सोती है 

पूरा दिन थककर।

ठहरो तो पाइपों में

झांक लेना

क्योंकि 

कहते यहां जिंदगी

अभी तक जाग नहीं पाई।

पाइप के सिराहने

सपने नहीं

भय बुनता है जीवन।

ठहरो तो 

घनी बस्ती हो आना रात

सदियों ऐसी बस्ती

सांझ 

नहीं देख पाती।

झोपड़ियों में जागते

कुछ बच्चे मिलें

तो उन्हें दे आना

उम्मीद

कि

सुबह होगी

बेशक 

वे 

झिझकेंगे

क्योंकि 

उनका जीवन

केवल अंधेरे को पढ़ता है

समझता है

जीता है

अपनाता है

सांझ

में सतरंगी सपने भी होते हैं

वे कहां जानते हैं...।

जानता हूँ 

रात 

और 

अधेरा

किसी को पसंद नहीं

लेकिन

एक आबादी

रात 

जीती है

रात

मरती है

सुबह के इंतज़ार में..।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

टूटने और जुड़ने में


बहुत अधूरा सा

कभी 

पूरा नहीं होता।

कुछ टूटा सा

कभी 

गहरे टूट जाता है।

कूछ 

टूटने में

जुड़ाव की

गुंजाइश

हमेशा रहती है।

टूटने 

और 

जुड़ने में

समय

बहुत प्रमुख 

हो जाया करता है।

 

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

देखो पुरवाई चलने लगी है


 सुबह के 

हाथ में

उसकी हथेली पर 

सूरज होता है।

सूरज की 

हथेली में 

पूरे दिन 

की उम्मीद

वाली 

दमक होती है।

सुबह की शिराएं

मन के शब्दों 

सी 

सुवासित होती हैं।

एक 

सुबह

मैं तुम्हें

अवश्य दूंगा

मेरी सुबह

तुम्हारी होगी

उसके शब्द

अभिव्यक्ति

और 

उम्मीद का उजास

सब 

सच है 

और 

एक गहरी रात

के पीछे

दबे सवाल 

सुबह 

के गर्भ

का

परिणाम हैं।

तुम 

सुबह के लिए

जागती रहो

मेरे साथ 

कई

स्याह रात।

सुबह से पहले 

रात

अधिक गहरी 

हो जाया करती है...।

देखो 

पुरवाई चलने लगी है

सुबह का रथ 

करीब ही है

बहुत करीब...।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

कांटों के समाज में शोर नहीं है

 


कांटों 

के पेड़ 

पर 

फूल 

का उगना

एक 

समाज का उदय है।

कंटीले 

पौधों का समाज

केवल घूरता 

नज़र आता है।

फूलों 

का समाज 

कांटों

को 

स्वीकार नहीं करता।

कांटों का समाज

फूलों को

चेहरा

देता है

मुस्कान भी।

कांटों के समाज में

शोर नहीं है

केवल 

विचारों का

हल्लाबोल है।

फूलों का समाज

चेहरों

पर 

ओढ़ता है रोज 

एक 

नया झूठ।

फूलों 

का समाज 

कांटों पर

शोर 

से मिली पराजय

का प्रतिफल है...।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

आधी बांह का स्वेटर

 



प्रेम

सांझ में

अधिक सुर्ख हो जाता है।

उम्र

का पहला खंड

शाब्दिक

दूसरा

व्यवसायिक

और

तीसरा

मार्मिक

होता है।

जीवन का पहला सिरा

मां के हाथों

ऊन

से बुना गया

आधी

बांह का स्वेटर है।

दूसरा सिरा

जीवनसाथी

के

व्यवहार से

बुना हुआ घर है।

तीसरा सिरा

आपके बुने संस्कारों

का

इम्तेहान है।

जीवन में

असफल कोई नहीं होता

कुछ

हंसने के लिए जीते हैं

कुछ

हंसते हुए जीते हैं।

उम्र के तीसरे सिरे पर

कुछ

खो जाते हैं

कुछ

अपने को पा जाते हैं।

बस और क्या है जिंदगी।



रविवार, 7 फ़रवरी 2021

सुनो ना मां दुनिया अच्छी नहीं है


 

बादल की पीठ पर

कुछ 

गहरे निशान हैं

जो

फुटपाथ 

तक 

नज़र आ रहे हैं।

लैंपपोस्ट

से 

सिर टिकाए

एक 

भयभीत सा बच्चा 

उन्हें सहला रहा है।

आसमां की ओर

देख 

बुदबुदा रहा है

मां 

तुम आईं थीं क्या ?

ये 

पैरों के निशान

तुम्हारे ही तो हैं।

देख रहा हूँ

बादल

से 

जमीन तक

केवल 

मां 

ही आ सकती है

सिर पर हाथ फेरने

सुलाने...।

सुनो ना मां

दुनिया 

अच्छी नहीं है

ये 

फुटपाथ पर

सोने 

पर ठिठुरते शरीर पर

चादर भी

नहीं ओढ़ाती...।

ठंड बहुत है

मां 

आज रात

तुम्हारे 

पैरों के निशान

की गरमाहट से

सो 

जाऊंगा।

बस

तुम सुबह तक 

इन 

निशानों

को मिटने न 

देना

मैं तुम्हारे पास आना 

चाहता हूँ।

सुनो मां

रात हो गई है

वरना

अभी

निकल पड़ता

इन 

पदचिन्हों को 

बटोरकर

थैले में रख

तुम्हारी ओर।

रात में बहुत डर लगता है

मां।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

गैरत की हरियाली है

 


ये 

जमीन है

और

हम हैं।

दरक दोनों 

रहे हैं।

जमीन

की दरारों

में 

गैरत की हरियाली है।

आदमी की 

दरार में 

हरियाली नहीं

गहरा सूखा है।

सूखने में 

जमीन 

का रुदन 

गहरा है।

जमीन के 

कंठ 

का हरापन

उसका हलफनामा है।

आदमी 

का हलफनामा

पीला हो चुका है।

अब सूखे और आदमी

के बीच 

जमीन नहीं है।

आदमी

पैरों नहीं चल रहा

अब जमीन नहीं है।

पायजेब बजाती है


 

सांझ 

फूलों 

के 

रंगों

की पीठ पर

रात के 

कुछ पहले तक

बैठ

पायजेब बजाती है।

पगली सी

बावरी हो आसमान में

खो जाती है।

पैरों में

फूलों 

के नेह का 

महावर 

सजाती है।

आंखों में

लाज की सुर्खी 

से 

पूरी रात सजाती है।

फूलों की देह गंध

से 

जीवन 

महकाती है।

फूलों के

मन में

अपने दुलार 

का 

एक शोख

संसार बसाती है।

गुनगुनाती सांझ

पीली सी 

जिद 

में 

अक्सर सिंदूरी हो जाती है।

बचपन का कारोबारी


 

सुना है

बचपन का कारोबारी आया है

उसके पास

नये

और 

पुराने 

सभी तरह के बचपन हैं।

सुना है

वो चतुर 

कारोबारी

बचपन के बदले

पूरी उम्र 

खुश रहने का कोई

एग्रीमेंट भी भरवा रहा है।

सोचता हूँ

गजब का प्रबंधन है उसका

इतने बचपन 

कैसे संभालता है

और 

वो खुशियों के एग्रीमेंट

कहां रखता होगा।

उसके झोले में

बचपन

को सुरक्षित रखने का 

हर 

जरूरी सामान है

वो 

मिट्टी रखता है

गीली

और उसकी महक।

वो 

खेल 

रखता है

बचपन वाले।

वो 

खुशियां रखता है

बचपन से चिपटा कर।

वो 

उसमें 

आना (दाम) नहीं रखता

वो

बुजुर्गों को 

बचपन पहले देता है

फिर 

बच्चों को

फिर 

आखिर में

युवाओं को...।

मैं 

उससे मिलना चाहता हूँ

पूछना है

उसे

मुफ्त के कारोबार

में आखिर मिलता क्या है।

आखिर 

क्यों 

वो 

इस दरिया में 

बहाना चाहता है

खुशियां।

पूछना है मुझे

वो 

कब तक ठहरा है

मेरे कस्बे

और 

मेरी दुनिया में...।

सूखना मत क्योंकि



 सूखा 

मैं रख लेता हूँ

तुम हरियाली 

रख लेना।

मैं 

जिंदगी के 

पीले से

दिनों को

सहेज लूंगा

तुम 

हरे 

दिनों में रहकर

सिंचित करना

घर 

और 

हमारी खुशियों को।

मैं 

सूखे की कुछ तह

पलटना चाहता हूँ

जानता हूँ

उसमें 

कहीं 

कोई हरापन

अवश्य मिलेगा।

तुम हरेपन 

में

सूखना मत

क्योंकि

हमें 

बुनना है 

जीवन का दूसरा खंड।

मैं 

और 

तुम 

एक उम्र के बाद

सूखा 

रख लेंगे

और 

जिंदगी का हरापन

सजा लेंगे 

घर की सबसे

खूबसूरत दीवार पर।

उम्र के 

हर कालखंड में 

हरापन 

साथ नहीं चलता।

कोई 

कालखंड

सूखा 

भी अच्छा लगता है।

उम्र का 

दर्शन है

वो 

सूखा और हरापन 

दोनों 

दिखाती है। 

यकीन मानो

किसी को 

हरापन पहले मिलता है

कोई 

सूखा आत्मसात कर

हरे तक पहुंचता है

लेकिन

तब

हरापन

सूखे का पथप्रदर्शक होता है।


पत्ते का ये पानी


 

पत्ते की

सूखी 

पसलियों में

देखिये

कितना पानी है।

जमीन

के सूखने

का 

दर्द

कुछ कम हो जाया करता है

पत्तों के 

ऐसे 

कर्मठ जिस्म पाकर।

पत्ते का 

हौंसला देखिये

सूखे 

जिस्म भी

सहेज

सकते हैं

धरती के लिए

पानी।

पानी

यदि जीवन है

तो 

पत्ते

प्रकृति की उस

कक्षा

के 

सबसे

गुणी

छात्र हैं।

प्रकृति ने 

पत्तों की शिराओं में

सूखने पर

हौंसले का जादू

समाहित किया है

देखिये

पत्ते का ये पानी

एक दिन

धरती बचाएगा...।

आदमी जंगल को चाहने लगा है

 



पहाड़ तुम्हें

ठंड

लिखनी चाहिए

सबक 

के अध्याय

के तौर पर 

गर्म 

दिनों के लिए।

गर्म दिनों

के 

सबक 

याद रखने होते हैं

ठंड में।

तुम पहाड़ हो

तुम पर

मौसम 

लिखा जा सकता है

और 

लिखी जा सकती हैं

उसकी इबारत।

बारिश की बूंदें

तुममे

गहरे उतरती हैं

बर्फ

तुम्हें गहरे ढांकती है

गर्म मौसम

तुम्हारे

अंतस की नमी

सुखाता है।

तुम 

याद रखना

हवा की तासीर

क्योंकि

तुम्हें

समझना होगा

कि 

तुम्हारे पैरों लिपटे

जंगल

अब कोयला हो रहे हैं

कोयले के 

जंगल में

तुम्हें रहने का 

तरीका नहीं मालूम है।

तुम 

देख लिया करो

कभी अपने पैरों के जंगल को

तुम 

टूटोगे नहीं

तुम मोर नहीं हो।

तुम 

याद रखना सबक

क्योंकि

आदमी

जंगल को चाहने लगा है।

चितचोर

 




मैंने

सांझ का आंचल

सूरज को

ओढ़ाकर

उसकी

हथेली पर

चितचोर लिख दिया...।

सांझ 

बावरी सी

शरमाई सी

सूरज से लिपट गई।

उसकी हथेली पर

बुनने लगी 

एक और सदी।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

हरी हो उठती है कविता

 


कोई कविता 

तब 

हरी हो उठती है

जब

पत्तियों के 

शरीर पर

बूंदों का 

स्पर्श होता है।

कोई कविता

तब 

हरी हो उठती है

जब 

सूखे

नैन

बावरी के नम हो जाते हैं

परदेस 

से 

मिली पिया की

चिट्ठी पाकर।

जिसे वो छाती से लगाए

उल्हड़ सी भागती है

जंगल की ओर

अपना

आंचल बचाते हुए।

कोई कविता

तब 

हरी हो उठती है

जब 

चातक

बूंद पाकर

आकाश की ओर देख

मुस्कुराता है।


आदमी

 



कुतरे से आदमी

की कोई

जात नहीं होती।

फटे पायजामें की साबुत जेब

में

रखे सपनों को

अब कोई धूप नहीं दिखाता।

सपनों की पीठ पर

अब

सवालों का कूबड़ निकल आया है

जो सभी देख रहे हैं।

खीझता हुआ आदमी

फटे सपनों से 

बतियाने से डरता है

वो

नहीं कर पाता

संवाद

नहीं दे पाता 

पायजामें की जेब में रखे

अपने

सपने पर कोई तर्क। 

सुबह से रात तक

तर्क वालों के बीच

आदमी

एक उलझा सा सवाल है

जिसे 

कोई हल नहीं करना चाहता।


दरारों में दर्ज आदमी

 


दरारों में दर्ज आदमी
भीड़ का चेहरा है।
भीड़ में 
एक तंत्र है
तंत्र
में 
भीड़ नहीं है।
चेहरों पर
भीड़ 
का 
नक्शा 
अब गहरे उकेरा जा रहा है।
दरारों में 
एक दीवार पर
वर्तमान
उकेरा जा रहा है
उसकी पीठ पर 
भविष्य।
उबकी भीड़ लिखी नहीं जा सकती
केवल 
महसूस की जा सकती है।
दरारों में
केवल चेहरे नहीं
शब्दों का अर्थ
उम्मीद
भाव
और 
सच भी 
बारीक कील पर 
टंगे हैं...।
दरारों में
बस रहा. है
कोई समाज...।




भीड़ बहुत है

 






कोई सुबह तुम्हारे पैरों के तलवे में दबकर मुस्कुराहट बिखेरती है। तुम्हारे चलने और रंग बिखेरने के बीच कहीं कोई उम्मीद हर बार आकार लेती है। तुमसे उम्मीद का एक गहरा रिश्ता है पंखों पर बिखरे रंगों की तरह। तुम किसी और दुनिया की परी लगती हो हमारे जहां में...। आओ उड़ना सिखाओ हमें भी कि धरा पर



भीड़ बहुत है...।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...