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बुधवार, 28 अप्रैल 2021

बिटिया हम लज्जित हैं...।

 


मेरी बेटी पूछ रही है

ये सब 

कब तक 

पापा...?

मैं 

निशब्द सा उसे देखता रहा

और 

वो मुझे।

बस 

अगले ही पल

मेरी आंख से

आंसू

ढल गया

उसने कहा

ना पापा

ये रोने का नहीं

खामोशी तोड़ने का समय है।

वह बोली

बदलना चाहिए सबकुछ

हमारी पीढ़ी

की

गलती क्या है पापा ?

न हवा है

न पानी

न ही पढ़ाई

वह बोली

पता है पापा 

आंखें

दर्द करने लगी हैं

मोबाइल पर 

पढ़कर।

मैं आपसे कहती नहीं

क्योंकि आप

इस हालात से

पहले ही परेशान हो...।

वह बोली 

सब लिखते क्यों नही

शिकायत क्यों नहीं करते

क्या कोई नहीं सुनेगा?

मैं बोला

सुनी जाती

तो 

ये चीखें

क्यों 

नहीं सुनी जा रहीं।

मेरी बच्ची

तुम्हें और तुम्हारी पीढ़ी को

गढ़ना होगा

एक 

नया आकाश

नया

समाज

और

नया नेतृत्व...।

हम तो 

ऐसा कुछ अच्छा दे न सके

तुम्हें...। 

माफ करना बिटिया

हम लज्जित हैं...।


तुम्हारे होने से मन घर बन जाया करता है


सुबह 

मन 

की खिड़की को 

बहुत दिन 

बाद 

खोला

देखा

कमरे में 

सीलन 

तह कर रखे गए

विचारों की

ऊपरी परत पर 

जम चुकी थी।

मन के 

एक कोने में

कुछ यादें रखी 

थीं

सहेजकर

उन पर भी

धूल की मोटी परत थी।

एक और 

कोने में

हमारी उम्र की सुखद

बारिश 

का गवाह 

छाता रखा था

नमी 

नहीं थी

अब सूख चुका था

उन यादों 

और 

उस 

बारिश के निशान

छाते की पीठ पर

अधमिटी हालत में थे।

छूकर देखना चाहा

हाथ 

बढ़ाया

लेकिन वे निशान धरोहर हैं

स्वीकार कर

हाथ खींच लिया।

दीवार पर

कहीं 

एक खूंटी पर

तुम्हारा नेह

और 

मेरे 

ठहाके वाली 

एक थैली भी वैसी ही

टंगी थी।

रौशनी के बाद

कमरा

मन

और 

यादें

दोबारा अपनी जगह से

उठकर 

जीना चाहते हैं

वही हमारे 

उम्र के 

अच्छे दिन।

खिड़की के बाद

दरवाज़े पर आहट से

सब 

मौन हो गया दोबारा

तुम्हें सामने पाकर

वो 

एक बंद कमरा

बेज़ार कमरा

मन 

बन 

खोलने लगा

यादों की गठरी।

तुम्हारे उस 

अकेली खिड़की 

पर 

सिर 

टिकाकर मुस्कुराना

और  फिर

वो 

कमरे 

का घर 

हो 

जाना

सोचता हूँ

तुम 

रौशनी हो

जीवन हो

हवा हो

तभी तो 

वो मन

एक घर बन जाया करता है

तुम्हारे होने से...।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

चीखती है खामोशी भी


हर बार

खामोशी

केवल चुभती है

या

इतना गहरा भेद जाती है

जिसमें

सदियों रिसते हैं

समय,

दर्द

सच

चीख

और दरक चुका भरोसा।

उम्रदराज खामोशी

इतिहास लिखती है

वह

चीखती नही

वह

चुभती है। 

इसके विपरीत

वहशियाना शोर 

तात्कालिक समय के कानों को भेद सकता है

इतिहास में

सच में

भरोसे की जमीन पर

जगह नहीं पा सकता।

खामोशी भी चीखती है

लेकिन

उसकी चीख

को पकने में समय लगता है

वो अंदर ही अंदर 

दहकती है।

बेढंगा शोर 

बहशी होकर

अधपका जख्म हो जाता है

और 

रिसता है अपने ही अंदर

नकारेपन की मवाद बनकर।

शोर के पीछे

भी तंत्र है

और 

खामोशी के पीछे भी तंत्र है

शोर और खामोशी

दोनों के बीच

एक आदमी है

जो

पिस रहा है

महीन हो चुका है

टूट रहा है

दला जा रहा है

अपनी 

भिंची खामोशी के बीच।

देखना

एक दिन खामोशी की चीख

शोर 

को बहरा कर 

बसाएगी

अपना कोई नया समाज।

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

पिता बोले- ...मां की तरह बनूंगा, मां नहीं बन सकता


 

(कोरोना काल पर कविताएं- 6)

-----------

आज सुबह से

उदास है 

मन और विचार।

मोहल्ले में

घर से आंठवा घर ढह गया

क्यांकि वहां से 

एक मां चली गई

अब 

केवल झोपड़ी है

और

बिलखते बच्चे।

मां का चला जाना

घर का 

परिवार का

उम्मीदों का

भरोसे का

अस्तित्व का

इतिहास का 

ढह जाना ही तो है। 

पिता

हैं

लेकिन 

वे

उसी खंबे की तरह है

जिसके नीचे की मिटटी

तेज तूफान का बोझ 

नहीं सह पाई

अब पिता 

ही हैं

घर है

बच्चे हैं

यादें हैं

चूल्हा भी है

लेकिन खाली है

अब वहां

से कोई शोर नहीं है

एक गहरी खामोशी है।

चूल्हे के आसपास 

बैठे बच्चे

मां 

को महसूस रहे हैं

झुलसे हुए समय में।

आंखों में 

केवल 

नमक है

सवाल हैं

चीख है

और 

स्याह होता 

सफेद भविष्य।

पिता ने कांपता हाथ 

बच्चों के सिर पर रखा

वे इतना ही बोले

बनूंगा मां की तरह

मां नहीं 

क्योंकि मैं तो पिता हूं।

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

तुम्हारे लिए


 कुछ 

पत्ते

धूप लगे

सहेजे हैं

तुम्हारे लिए...।

कुछ 

पत्तों पर

धूप सहेजी है

तुम्हारे लिए।

कुछ छांव भी है

पत्तों के 

कोरों पर

नमक में 

लिपटी हुई

तुम्हारे लिए।

ये मौसम ही

दे पाया हूँ

जिंदगी में

तुम्हें

अब तक...। 

धूप सरीखे दिन

की 

अधिकता 

में ये पत्ते हमारा 

हौंसला हैं

और 

कोरो की छांव

हमारी उम्मीद...।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

मुखौटे


 चेहरों 

का 

अपना कोई 

समाज नहीं होता।

चेहरे 

समाज होकर

गढ़ते हैं

कोई

वाद।

चेहरों 

के

मुखौटे

विद्रोही होते हैं

उनका अपना

समाज होता है।

चेहरे मुखौटे

ओढ़ 

सकते हैं

मुखौटे

चेहरे

को 

ढांक लेते हैं

अपने हुनर से।

मुखौटों

का हुनर

सीख रहा है आदमी।

मुखौटों

वाला समाज

गढ़ रहा है

अपनी काया।

समाज और मुखौटों

के 

बीच 

कोई 

अदद 

सच है

जो 

चेहरा हो जाया करता है।

चेहरे 

मुखौटों के समाज

का 

आधिपत्य स्वीकार 

कर चुके हैं।

एक दिन

मुखौटों

के 

पीछे खोजा जाएगा

असल चेहरा।

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

हरापन शेष है


 कोरोना काल पर कविताएं

5.

अहसास की धरती

मरुस्थल

में

तब्दील कर दी गई है।

भावनाओं की दुर्वा 

सूखाकर

लालच का नमक

डालकर

संबंधों को

जंगल में तब्दील कर दिया गया।

अब अहसास की धरती

कंटीले

पौधों

पर

उग रहे

पीले फूलों को देख

सूखती जा रही है।

इस जंगल में

अब भी

कहीं

मन कंद्रा में

कोई दूब घास है

जिसमें

उम्मीद

का हरापन शेष है।

दूरियों की खाई अब

और 

गहरी है

अब 

सूखते अकेले शरीर

बेजान होकर सूखा कुआं हो गए हैं

जिसमें

बाज़ार अपनी महत्वाकांक्षाओं का

कूढ़ा उड़ेल रहा है।

सबसे ताकतवर प्राणी का शरीर

अब डस्टबिन हो गया है।

बाज़ार

और

उसके 

पिट्ठूओं को पहचानकर ही

जंगल

को अहसास में 

तब्दील किया जा सकता है।

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

सच को कांधे पर लटकाए


 कोरोना काल पर कविताएं...

4.

बहुत भूखा है बाज़ार

भय के कारोबार

का 

ग्राफ

चेहरों

पर 

नज़र आता है।

झूठ

फरेब

धोखा

मजबूरी नहीं होते

कोई

धधक रहा है

कहीं

सबकुछ टूटकर 

चकनाचूर है

केवल

यादें हैं

वे भी

आंसुओं में

धुंधली

ही हो गईं हैं।

बाजार

की भूख है

उसे अबकी

और 

ठहाके लगाना है

डर को

और बढ़ाना है।

मौत पर चीखते लोग

उसे 

अपने ग्राफ में

उछाल 

का

रास्ता नज़र आते हैं।

अखबार

अब सच देख पा रहे हैं

उन्हें

असल आंकड़ा

नज़र आ रहा है।

हर आदमी कल 

और

अगली सुबह से

भयाक्रांत है

केवल 

परजीवी

घूम रहे हैं

मदमस्त

भय और चीखते सच को

कांधे पर लटकाए

चीखों

पर 

अपनी 

हार पर

खिसियाहट बिखेरते।

सच

अब 

जेब में मरोड़कर

नहीं रखा जा सकेगा।

अब 

धैर्य की

तुरपाई उधड़ चुकी है।

अबकी समय चीखेगा

चीखते

शरीरों के बीच

सच

काफी रो लिया।

..........

फोटोग्राफ@विशाल गिन्नारे

रविवार, 18 अप्रैल 2021

मानवीयता रुआंसी है

 


कोरोना काल पर कविताएं...

3.

ये जीवन समर है

सब भाग रहे हैं

अंतहीन

दौड़

में

पैरों में

सपने

कुचले जा रहे हैं।

चेहरे और मानवीयता 

अब

रुआंसी है।

चेहरे पर चेहरे

वाला समाज

एक और मुखौटे को

ओढ़ चुका है। 

मन

की मन से 

दूरियों वाला समाज

असहज

और असहाय है।

कुछ चेहरे

मन 

कुछ

चेहरे

खुशी

कुछ चेहरे

अब तलाश रहे हैं

धन।

मन का बाजार

सूखा है

एक रेगिस्तान

है

धन की भूख

का भेड़िया

निगल रहा है

समाज को।

दो पैरों वाला इंसान

मदमस्त

घूम रहा है

अपने

बसाए जंगल में।

कुछ दूर

जंगल की सीमा पर

धन की गठरी

बांधे कुछ

बेबस मुसाफिर

तलाश रहे हैं

जीवन

अपने

सपने

और

समय जो कुचल दिया गया

लोलुपतावश।

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

शरीर चल रहे हैं, आंखें सुर्ख हैं


 कोरोना काल में कविताएं...

2.


जीवन

बुन रहा है

आंसुओं का नया आसमान।

चेहरे 

पर 

चीखती लापरवाहियां

भुगोल होकर 

इतिहास 

हो रही हैं।

घूरती आंखों के बीच

सच

निःशब्द सा 

खिसिया रहा है। 

सूनी

डामर की तपती सड़कें

बेजान 

मानवीयता के 

अगले सिरे पर सुलगा रही है

क्रोध।

चीख

तेजी से मौन

ओढ़ रही है। 

आंखें घूर रही हैं

बेजुबान

सी

सवाल करना चाहती हैं

कौन

है 

जिसने बो दी है

इस दुनिया में

ये जहर वाली जिद।

कौन है 

जिसकी सनक ने

मानवीयता को कर दिया है

बेजुबान।

कौन है

जिसे

फर्क नहीं पड़ता 

आदमी के बेजान 

शरीर में तब्दील हो जाने पर।

शरीर 

चल रहे हैं

आंखें सुर्ख हैं

शिकायत 

और शोर 

अब मौन में तब्दील है

सब 

तलाश रहे हैं

एक जीवन

एक सच

और

एक खामोशी।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

भीड़ बदहवास सी भाग रही है


आज से कोरोना काल पर कविताएं...

1.


सुबह 

कोई हिचकी

गहरे समा गई

किसी 

परिवार

की 

आंखों से

छिन गया

सूरज।

आंखों में

सपनों की फटी हुई

मोटी सी पपड़ी है

जिसमें 

गहरे 

आंसुओं का नमक है।

सभ्यता

और 

मानवीयता

का नमक हो जाना

आदमी

की खिसियाहट भरी

चालकी का

टूटकर

कई हिस्सों में 

बिखर 

जाना है।

सुबह

सूरज के साथ जागा 

कोई परिवार

अपने घर

असमय घुस आई

स्याह रात में

दीवारों से सटा

सुबक रहा है

देख रहा है

अंदर और बाहर

गहराती रात।

दूर 

कहीं कोई

वृद्धा

सूखी पसलियों को

पीट रही है

झुर्रियों से बहते

आंसू

में मिट्टी है

बहुत सारा नमक भी।

क्रूर बाजार

घूर रहा है

वृद्धा के विलाप पर।

भीड़

भाग रही है

बदहवास सी

अपनों के साथ

अपनों से दूर।

अखबार

का फटा

हिस्सा

काला है

खबर है

जहरीली हो गई है हवा...।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

अनुभूति


 













खूबसूरती
के 
पीछे 
कोई
तर्क नहीं होता
बस एक 
अनुभूति होती है
जो 
अभिव्यक्त 
नहीं की जा सकती।
अनुभूति
श्वेत-श्याम 
और 
रंगमयी
भी नहीं होती
केवल मन में
कहीं
शब्दों की अनकही
भाषा
सरीखी है।
अनुभूति
की महक होती है
जो
बिना कहे
अधिक गहरी
सुनी जा सकती है।
अनुभूति 
में फूलों का रंग
वैसा ही होता है
जैसे 
कोई
सबसे अधिक पढ़ी गई
किताब
का हर 
वक्त सिराहने होना।
अनुभूति 
जंगल नहीं बनाती
वो 
मन में मथे 
शब्दों 
का 
आभासी संसार अवश्य 
बसाती है...।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

मौसम में उसके आसपास


 तुमने

फूल 

देखा मैंने देखी

उसकी गहराई।

तुमने 

रंग देखे

मैंने 

देखी

रंगों की जुगलबंदी।

तुमने 

फूल का 

खिलना देखा

मैंने

उसके अंकुरण के सफर को।

तुमने 

उसका सौंदर्य देखा

मैंने 

देखी सादगी।

तुमने

उसके सौंदर्य के शिखर

तक 

पहुंचाई अपनी 

ख्वाहिश

मैंने 

उसे 

केवल खिलने दिया।

तुम 

खड़े रहे उसके

उस खिले हुए

मौसम में उसके आसपास

जैसा 

भंवरे को 

होती है 

फूल के रस की आस।

मैं 

उसे 

बस रोज देखता रहा

उसकी 

सादगी के साथ

उसकी उम्र के 

अच्छे दिनों में।

तुम 

तब वहां से बढ़ गए

अगले 

फूल की ओर

जब 

इसकी पत्ती पर

उम्र की 

पहली झुर्री

आई थी नज़र।

तुम अब नहीं आते वहां

जहाँ कभी

तुम्हारी नज़रें

ठहर जाने का वादा 

करतीं थीं पूरी उम्र।

तुम्हें 

बताऊँ

अब 

वो फूल 

सूख चुका है

झुर्रियों वाले

उम्रदराज़ मौसम को 

जी रहा है

मैं

आज 

भी उसके 

रेगिस्तान में 

उसके साथ हूँ।

अब बस

वो 

फूल कभी कभार

सूखने 

के 

दर्द से 

कराहता है

कभी कभी

हवा के साथ

उसकी 

उम्र वाली कराह

सुनाई देती है...।


रविवार, 11 अप्रैल 2021

आभासी दुनिया की धुंध


 कांटों

के जंगल को 

गुलाब

एक तोहफा है।

कांटों

के मन 

में उठते

कोहराम के बीच

गुलाब

होना

और 

गुलाब बने रहना 

दुर्लभ चुनौती है।

गुलाब

का जीवन

कांटों भरा है

कांटों 

का जीवन 

कोई 

गुलाब नहीं है।

खूबसूरती 

की परिभाषा

है 

कि 

उसका

वाक्य 

अधूरा रह जाता है।

खूबसूरती

के बाहर

गुरूर का

दैहिक 

आवरण है

जो 

अंदर से उतना ही

स्याह है

एकांकी है

विद्रोही है

और 

अकेला है।

खूबसूरती

कभी नहीं जीतती

उसकी

और 

उससे

केवल हार के 

चीत्कार 

सुनाई देते हैं।

खूबसूरती

केवल 

आभासी 

दुनिया की धुंध 

की मानिंद 

जीती है 

अक्सर हारती हुई

और खुद

से

बेज़ार होती सी...।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

कच्ची और अधूरी छत


 कुछ

घर

केवल 

अधूरे रह जाने के लिए

बनते हैं।

जीवन 

की सिसकी

और

अट्टहास

उन दीवारों को

नहीं 

मिलते

उन्हें 

केवल 

एकांत मिलता है।

मौन 

के 

चीखते 

शब्द उन्हें

जीवित रखते हैं।

मकान से घर 

के 

सफर के 

अधबीच

बो दिए जाते हैं

दालान।

चीखते मकानों

की तरह

चीखते 

घर 

अच्छे नहीं लगते।

कुछ 

घर 

अधूरे 

भी पूरे

से लगते हैं।

कच्ची 

दीवारें

मन के फर्श के साथ

अंगुली थामें

पूरा घर घूम आती हैं।

कच्ची और अधूरी छत

सवाल 

नहीं पूछती

हर 

बार 

बातों ही बातों में

परिवार के बीच 

आ बैठती है

ठहाकों की महफिल में।

आंगन

भीगने की शिकायत 

नहीं करता

कैसा 

पागल है

हंसता ही रहता है।

घर

अधूरे 

और 

पूरे

ठहाकों 

से बनते हैं। 

वे 

बनकर भी अधूरे रह 

जाते हैं

बिना 

बतियाये।

वे अधूरे होकर भी

पूरे हो जाते हैं

मुस्कुराते 

हुए।

घर 

खुद का नहीं

आपका 

प्रतिबिंब होता है

जिसमें 

आपकी शक्ल, हालात और

व्यवहार 

हर पल 

नज़र आते हैं...।

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

मन की नदी के तट पर


एक नदी

बहती है

अब 

भी निर्मल

और 

पूरे प्रवाह से

मन 

की स्मृतियों में।

कोई 

तटबंध

नहीं है

कोई

रिश्ते 

की बाधा भी नहीं।

वो बहती है

मन 

की 

एक इबारत वाले

पथ पर।

वो बहती है

आंखों में

बिना सवाल लिए।

अंदर और बाहर

एक 

जिद्दी

सच है जो 

नदी को

पानी को

भावनाओं को

तटबंध 

में बांधकर

उसका दूसरा सिरा

कारोबार

की 

घूरती और ललचाई 

शिला से बांध देता है।

बाहर 

नदी नहीं है

केवल 

स्वार्थ और उसकी दिशा

के पथ पर

एक 

विवशता बहती है।

बाहर की नदी

कभी

मन की नदी

थी

अब केवल उसका

अक्स है।

बाहर की 

नदी 

अब नहीं झांकती

अपने अंदर

क्योंकि

सूखा देख 

वो सहम उठती है।

मैं थका हारा

बाहर की नदी

किनारे

पड़ी कुछ

अचेतन 

अवस्था वाली मछलियों 

को लिए

लौट आया

मन की नदी

के तट पर

और 

उन्हें

दे दी

वो निर्मल नदी।

एक दिन

मन की नदी

से 

मिलवाऊंगा

बाहर की नदी को। 

कहते हैं

स्मृतियां

हमें 

दोबारा गढ़ जाया करती हैं।

जब हम पनीली आंखों में मुस्कुराए


जिंदगी

का वह हरेक दिन

जब हम साथ बैठ

खिलखिलाए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब हम 

उलझनों पर 

दर्ज करते थे जीत

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब

तुम और 

मैं 

हम हो गए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब हम पनीली आंखों में

मुस्कुराए

गुलाब थे।

वह हरेक दिन 

जब खुशियों में भीग गए

हमारे मन

गुलाब थे।

वह हरेक दिन

जब जब 

कठिन दिनों में

तुमने रखा कांधे पर हाथ

गुलाब थे...।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

हम हाईटेक होकर जंजाली हो गए


 पहले हम 

नदियों की तरह 

प्रवाहित थे

अब तालाबों की तरह

सूख रहे हैं।

नदियों से पहले 

हम प्रदूषित हुए

अब 

हम और हमारा 

प्रदूषित भविष्य

नदियों में समा रहा है।

हमने

नदियों को 

अपनी तरह बना दिया है

हमने अपने

सुखों के लिए

नदियों को सुखा दिया।

नदियों ने हमें जीवन दिया

हमने

उन्हें

कालिख पुती मौत।

हम

और प्रदूषित हुए

अब बावड़ी, तालाब

कुएँ

और 

बच्चों को 

सुखाने लगे।

हम 

और प्रदूषित हुए

अब जंगल

खत्म करने पर आमादा हो गए

अबकी प्रदूषित से हम 

अंदर से दहकने लगे।

हमने

वन्य जीवों को

अपनी शहर की मंनोरंजन शाला में

कैद कर लिया।

हम हाईटेक होकर 

तारों से जंजाली हो गए।

हम

जंगल को क्रूर 

और

अपने को

सभ्य 

कहने लगे हैं।

हम हाईटेक जंगल 

के

मशीनी

चिलगोजे हैं।

हम

पक्षियों के हिस्से की हरियाली

भी 

छीन लाए

और 

गहरे चिंतन का

हिस्सा हो गए।

अब

सुधार पर 

सालों मनन होगा

क्योंकि

हम

समझ ही नहीं पाए 

कि

प्रदूषित 

प्रकृति नहीं

हमारी मानव जाति है...।

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

पहाड़ तुम कभी शहर मत आना


 सुना है

सख्त पहाड़ों

के

गांव

में

तपिश

भी नहीं है

और 

गुस्सा भी नहीं।

वे

अब भी

अपनी पीठ पर

बर्फ के 

बच्चों को

बैठाकर

खिलखिलाते हैं।

सुना है

वहां

सुनहरी सुबह

और 

गहरी नीली

सांझ होती है।

पहाड़

अपने पैर

जमीन में

कहीं बहुत गहरे

लटकाए

बैठे हैं

चिरकाल से।

हवा

भी उसके भारी भरकम

शरीर पर

सुस्ताने आती है।

ओह

पहाड़ तुम

कभी 

शहर मत आना

यहाँ

आरी और कुल्हाड़ी

का 

राज है

जंगल

भी आए थे

शहर घूमने

यहीं बस गए

और अब

शहर

उन पर 

पैर फैलाए

ठहाके लगाता है।

आती है

कभी कभी

जंगल के

सुबकने की आवाज़...।

मत 

आना तुम शहर...।

रविवार, 4 अप्रैल 2021

पत्तों की उम्र में सयानेपन की धमक


 


फूलों की देह

पर 

जंगली 

सुगंध के निशान

उभरे हुए हैं।

प्रेम का जंगल 

हो जाना

सभ्यता 

को 

ललकारना नहीं है।

जंगल 

के बीच कहीं कोई

प्रेम

अंकुरित हो रहा है

पथरीली

जमीन

पर 

पांव

के 

निशान हैं।

ये 

निश्चित ही प्रेम है।

फूलों

के चेहरों पर

उम्र 

की शोखी

है 

और

पत्तों की उम्र

में सयानेपन 

धमक।

प्रेम

फूलों के 

कानों में

होले से 

सुना जाती है

कोई

जंगली

गीत

और प्रेम

वृक्ष हो जाता है

जो 

अनुभूति 

का स्पर्श 

सदियों पाता है।

प्रेम 

ऐसा ही होता है

जंगली खुशबू लिए...।

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

स्याह वक्त बोध का शिखर है



दो 

मौसम

दो 

उम्र 

और 

सारे सच।

अबोध सुर्ख

और 

स्याह बुढ़ापा

दोनों

गहरे होते हैं।

उम्र का सुर्ख 

मौसम

अबोध से बोध 

की ओर 

सफर है।

उम्र का स्याह

वक्त

बोध का शिखर है।

दो 

रंग उम्र नहीं हो सकते

उम्र 

रंग से उकेरी जा 

सकती है।

कोई 

सर्द सुबह 

कुछ भीग रहा होता है

अंतस 

में गहरे

वो सूखकर

स्याह हो जाता है

बुजुर्ग 

हो जाता है।

स्याह मौसम में 

सुर्खी को समझना

अबोध वक्त

को 

दोबारा टांकने जैसा है।

थकी उम्र की

धुंधली पायदान

पर 

केवल 

सच दिखता है

सुर्खी और स्याह 

मौसम के बीच।



गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

एकांत में बुनती है घर की खिड़की


 

घर की खिड़की

पर 

सीले 

दरवाजे 

की

एक फांस

में 

लटका है

बचपन।

बंद 

घर को 

झीरियां

जीवित रखती हैं

वहां से आती 

हवा 

से 

सीलती नहीं हैं

घर की यादें

बचपन

और 

बहुत कुछ

जो

जिंदगी

अकेले में

एकांत में बुनती है।

एकांत में

बुने गए

दिनों पर

अब 

समय के जाले हैं।

खिड़की

की वो 

फांस

उम्रदराज़

दरवेश है

जो

संभाले है

मौन 

के बीच सच

और 

बचपन

और 

यादें...।

खिड़की का दूसरा 

हिस्सा

अकेलेपन के बोझिल

मौसम की पीड़ाएँ

झेल रहा है

वो 

जानता है

फांस 

और 

उसके कर्म में

आए 

बदलाव

और

झूलते बचपन

के बीच

बीतते

उम्र के कालखंड की

बेबसी को...।

ये 

घर 

और खिडक़ी

एक दिन

किताब 

में गहरे समा जाएंगे...।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...