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शनिवार, 30 अगस्त 2025

समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है

कोई कुछ शोर 

कहीं कोई दूर चौराहे पर

फटे वस्त्रों में 

चुप्पी में है। 

अधनंग भागते समय 

की पीठ पर 

सवाल ही सवाल हैं।

सोचता हूं

सवाल और खामोशी 

क्या एक जैसे होते हैं ?

नहीं नहीं

सवाल जब खामोशी में समा जाते हैं

तब समय की पीठ लहुलहान हो उठती है

और 

खामोशी जब सवाल बनती है

गहरे जख्म और गहरे होते जाते हैं।

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

अभिव्यक्ति

 प्रेम 

वहां नहीं होता

जहां दो शरीर होते हैं।

प्रेम वहां होता है

जब शरीर मन के साथ होते हैं।

प्रेम

का अंकुरण

मन की धरती पर होता है। 

शरीर 

केवल मन की अभिव्यक्ति का एक 

मूक पटल है।

शरीर और मन के बीच

कहीं 

कोई 

भाव जन्मता है और गुलाब की भांति

मन की धरा 

महकने लगती है

शरीर का रोम रोम पुलकित हो उठता है

प्रेम को करीब पाकर।

प्रेम 

मन का आवरण है

चेहरा 

उस आवरण का आईना।

यही कारण है

मन हमेशा मकहता है

और शरीर

एक दिन

एक उम्र के बाद

मुरझा जाता है।

सच प्रेम

मन से होता है। 

बुधवार, 2 जुलाई 2025

दरारों के बीच देखिएगा कहीं कोई पौधा

 कहीं किसी सूखती धरा के सीने पर

कहीं किसी दरार में

कोई बीज 

जीवन की जददोजहद के बीच

कुलबुलाहट में जी रहा होता है।

बारिश, हवा, धूप 

के बावजूद

दरारों में बसती जिंदगी

खुले आकाश में जीना चाहती है।

कोई पौधा 

जब

वृक्ष होकर देता है छांव

फल

जीवन

हवा

और बहुत कुछ।

तब उसे सार्थकता का होता है अहसास।

दरारों के बीच देखिएगा

कहीं कोई पौधा

यदि

नजर आ जाए 

तो 

बना दीजिएगा ठहरकर

दो पल

उसकी राह आसान।

उसके और खुले आसमान के बीच

के उस अंधेरे को

घुटन को

कम कर दीजिएगा

उस दरार को मिटाकर।


मंगलवार, 1 जुलाई 2025

प्रेम

 कोई प्रेयसी

ही थी, 

हां 

एकाकी

जीवन जीते हुए

कथा हो गई।

किताब के पन्नों में

महानता का दर्जा पाकर

लेटी है

शब्दों को सिराहने लगाए

सदियों से

प्रेम के इंतजार में।

प्रेयसी पर लिखे गए हैं

अनेक ग्रंथ 

कोई लिखा नहीं गया 

उसके प्रेम की अधूरेपन की बेबसी के बाद

गहरे समा जाने वाले 

मौन प्रेमालाप पर।

प्रेम का अंत 

मौन ही है

विरक्ति है

देह से कोसों दूर

किसी किताब में अब भी

वह

मौन से 

प्रेयसी कहलाती है।

सोचता हूं

प्रेम की हार

और 

प्रेम की जीत

आखिर

दोनों ही राह

भक्ति पर ही ले जा रही हैं।

आखिर में 

खोजा जाता है प्रेम से विरक्त 

कोई 

साझा सच

अपने-अपने अंदर। 

देह से कोसों दूर

किसी

खोह में चीखते हुए मौन के बीच। 




रविवार, 29 जून 2025

जल्द नहीं कटती दोपहर

 बोझिल सी सांझ

के बाद

कोई सुबह आती है

जो दोपहर की तपिश साथ लाती है

और 

उसमें घुल जाया करता है

पूरा जीवन।

उसके बाद 

थके शरीर पर 

होले होले शीतल वायु 

लगाती रहती है मरहम।

फिर 

कोई सांझ बोझिल नहीं होती। 

सुबह, दोपहर और सांझ

यही तो

जीवन है

और 

हरेक का अपना ओरा।

सुबह गहरे इंतजार के बाद होती है

कई स्याह रातों के कटने के बाद।

दोपहर जल्द नहीं कटती

थकाकर पूरी उम्र को चकनाचूर कर देती है।

और 

सांझ उस दौर का नाम है

जब आप थके शरीर को

कमजोर पैरों पर

अनिच्छा भरे माहौल में 

रोज कुछ कदम

चलाते हो, थकाते हो

और 

सो जाते हो...।

फांस

 शब्द और उसकी कोरों के बीच

भाव कहीं उलझे रह जाते हैं

अक्सर।

एक उम्र तक

एक सदी तक।

कोई नहीं सुलझाता उन्हें

कोई नहीं खोलना चाहता 

उन उलझी गांठों को। 

कुछ नेह की फांस होती हैं

वह अक्सर

चुभती रहती हैं

मन में

उम्र भर।

देखा है मैंने

ऐसी फांस कोई निकालना भी नहीं चाहता..।

कुछ रिश्ते जीवन भर

महकते हैं

अपने सुखद होने के अहसास के बीच।

हम उन रिश्तों के रेशों को बांधना नहीं चाहते

वे 

हवा में मुस्कुराते ही अच्छे हैं।

शनिवार, 28 जून 2025

काश कोई बूंद जी पाती एक सदी



बारिश की बूंदों पर 

लिखी हैं

अनेक उम्मीदें

पर्व

खुशियां

जीवन

सहजता

जीवन का दर्शन

और 

प्रेयसी का इंतजार। 

बूंदों को भी क्या हासिल

एक पल का जीवन

हजार ख्वाहिशों पर 

हर बार कुर्बान। 

काश कोई बूंद

जी पाती

एक सदी

ठहर पाती एक पूरी उम्र

देख पाती

क्या बदल जाता है उसके उस एक पल में।

प्रेम

 


प्रेम 

जो तुमसे कहा न जा सके

और

मुझसे लिखा न जा सके।

केवल

अभिव्यक्त हो

तुम्हारी आंखों में

मेरे

व्यवहार में।

केवल

महसूस हो 

तुम्हारे और मेरे भाव 

की डोर में।

तुम्हारे

और 

मेरे बीच

प्रेम ही तो है

जो 

कुछ नहीं चाहता 

केवल 

बीतते हुए 

कुछ समय में से

दो बातें

और 

दो पल।

ये प्रेम ही तो है

वाकई।

गुरुवार, 26 जून 2025

कोई चेहरा न होना ही बेहतर है

कहीं कोई चेहरा

उदास है

बैठा है किसी भीड़ की नाभी में

किसी खोह में।

कहीं कोई चेहरा

सुर्ख है

अपने ही शरीर में 

हजार ज़ख्मों के बीच उलझा सा।

कहीं कोई चेहरा

दमक रहा है

असंख्य शरीरों पर 

रेंगता हुआ सच उस चेहरे के पीछे है।

कहीं कोई चेहरा 

बेदाग है

किसी कोठरी में मुंह डाले

खोज रहा है 

बेदाग बने रहने वाली कोई खिड़की।

कहीं कोई चेहरा है ही नहीं

केवल 

आवाज है, उसके भाव है

पथराए हुए 

शिलाओं पर नुकीले पत्थरों से उकेरे गए

समय की तरह बेबाक लेकिन अदृश्य।

और कितने चेहरे चाहिए

हर चेहरा 

अपनी किताब साथ लाएगा 

और 

असंख्य

सच जो रेंगते भी है समय की पीठ पर 

बरसों तक। 

सोचिएगा

कोई चेहरा न होना ही बेहतर है

चेहरे पाकर

हम उसी के होकर रह जाते हैं।


बुधवार, 25 जून 2025

नेह से उकेरा गया महावर है प्रेम



 प्रेम 

तुम्हारे चेहरे पर

मुझे देखकर

आने वाली मुस्कान ही तो है।

प्रेम 

तुम्हें छूते ही 

गहरे तक आंखों में सुर्खी का घुल जाना 

प्रेम ही तो है।

प्रेम 

तुम्हें बार-बार दरवाजे तक लाता है

मेरे इंतजार में

और मुझे

हर रात कई बार 

तुम्हें गहरी नींद में सोए देखने

और देखकर

आनंद पाने को जगाता है।

प्रेम

तुम्हारे शरीर में आत्मा 

और भाव का स्पंदन है

और

मेरे शरीर में 

तुम्हारे हर पल होने का शास्वत सत्य।

सच 

प्रेम परिभाषित नहीं हो सकता 

क्योंकि

वह 

जिंदगी पर नेह से

उकेरा गया 

महावर है

जिसका अर्थ

एक स्त्री से अधिक कोई नहीं समझ सकता। 






Thanks for photograp google

 

बुधवार, 18 जून 2025

तो जिंदगी आसान है

 जीने के लिए 

कोई खास हुनर नहीं चाहिए इस दौर में

केवल हर रोज

हर पल

हजार बार मर सकते हो ?

लाख बार धक्का खाकर

उस कतार से

बाहर और आखिरी तक पहुंचकर

दोबारा कतार का हिस्सा हो सकते हो ?

बिना शिकायत अंदर ही अंदर

रोते रहिए

चेहरे पर फिर भी मुस्कान बरकरार रख सकते हो ?

आगे चलते व्यक्ति को 

गलत साइड ओवरटेक कर 

चाहो तो 

दाखिल हो सकते हो

अमानवीयता के जंगल में यदि हां ?

तो जिंदगी आसान है

लेकिन 

यह न कहना

कि ये भी कोई जिंदगी है।

जिंदगी का अधिकांश भू भाग

इन्हीं तरह की कशमकश से भरा होता है। 


मंगलवार, 17 जून 2025

नहीं आएगी वह खौफनाक रात

 हर सुबह कोई उम्मीद 

मन में कहीं

अंकुरित होती है

दोपहर तक 

उम्मीद का पौधा

उलझनों और घुटन के बीच

अपने आप को बचाता है

सांझ होते ही

उम्मीद उस पौधे के साथ मुरझाकर 

सूख जाती है। 

देर रात 

स्याह अंधेरा  

सूखी लटकी, हवा में डोलती 

उम्मीद की वो पत्तियां

कितने सवाल दबाए

अपनी पथराई आंखों से 

देखती रहती हैं। 

रात से सुबह का वह समय

दोबारा मन के ठहराव में कहीं

ओस को पाता है

उस उम्मीद के पौधे को 

दोबारा सींचता है

सुबह फिर 

पौधा नई उम्मीद के साथ 

अंकुरित हो उठता है

इस उम्मीद से 

वह खौफनाक रात नहीं आएगी आज।

नहीं

नहीं आएगी। 

सोमवार, 16 जून 2025

जिंदगी कैसे कहें तुझसे कुछ मन की

जिंदगी बता तो सही

कैसे कहें तुझसे

कुछ मन की

कुछ बचपन की

कुछ जवानी की

कुछ उम्रदराज होने के पहले भयाक्रांत सच की।

हर हिस्सा

अपने अपने सच समेटे है

कोई किसी की सुनना नहीं चाहता 

केवल

अपनी सुनाना चाहता है

कौन है जो उम्र के इन हिस्सों की 

तसल्ली से बैठकर 

सुन ले...।

जिंदगी कोई शिकायत कहां है

हां

सवाल हैं

रहेंगे 

क्योंकि इस दौर में 

कोई और सुन भी कहां रहा है

हम अपनी 

और 

अपने मन भी

सुन नहीं पा रहे हैं

जिद है

सनक है

और

जिंदगी तुम हो...

निखालिस तुम...सवाल सी ?


रविवार, 15 जून 2025

जिंदगी यही तो है

बेशक तुम्हें पसंद है

इस दुनिया के रिवाजों में जीना

लेकिन

मुझे पसंद है

तुम्हारे साथ 

तुम्हारे समय और तुम्हारी उस बेफक्री में जीना

जहां 

कोई पाबंदी नहीं है

तुम हो

मैं हूं

और 

हमारा समय।

हां 

मैं विरोध करता हूं उन सभी बातों का

जो

तुम्हें और मुझे

हम कहे जाने का विरोध करती हों।

जिंदगी यही तो है

और 

इसके अलावा कोई दूसरी दुनिया भी तो नहीं।

 

दो दुनिया, तीसरी कोई नहीं

 कोई दुनिया है

जो बहुत शांत है

अकेली है

अपने से बतियाती है

वहां कोई कर्कश शोर नहीं है।

एक दुनिया है 

जहां शोर ही शोर है

जो न बतियाती है

और 

न ही 

जीने देती है। 

यह शोर और कर्कश भरी दुनिया

हमने बुनी है

अपने लिए

अपने समय को इस कर्कशता के सांचे में ढालकर।

यकीन मानिए 

वह पहली दुनिया 

जंगल है

दूसरी हमारी 

और तीसरी कोई दुनिया नहीं है।





गुरुवार, 20 मार्च 2025

ये हमारी जिद...?

 


सुना है 

गिद्व खत्म हो रहे हैं

गौरेया घट रही हैं

कौवे नहीं हैं

सोचता हूं

पानी नहीं है

जंगल नहीं है

बारिश नहीं है

मकानों के जंगल हैं 

तापमान जिद पर है

पता नहीं

कौन 

किसे खत्म कर रहा है ?

अगली खबर पर नजर गई

हजारों पेड़ कटेंगे

हाईवे के लिए।

मैं 

बाहर लटके 

घोंसले के बाहर 

हवा में हिलते

तिनके देख रहा था। 


(साभार फोटो फ्री पिक डॉट कॉम) 


मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

साइकिल से साइकिल तक

 

ये कैसा चक्र है

हम साइकिल से 

विकास के शीर्ष पर पहुंचे

आकाश नापा

समुद्र के तल को छू लिया

चंद्रमा की सतह पर पैर रखे

और 

लौटकर 

दोबारा साइकिल पर ही आ गए

अब यह कहते हैं

स्वस्थ्य रहना है तो

साइकिल बेहतर है

सोचता हूं 

विकास के उस फेरे का क्या 

जो हमें 

साइकिल से लौटाकर 

साइकिल पर ही ले आया। 

अब हम बेडोल शरीर से 

चढ़ा रहे हैं

पुरानी साइकिल की चेन

पसीना पौंछते हुए 

मुस्कुरा रहे हैं।



(फोटोग्राफ गूगल से साभार )



सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

पहिया सभ्यता

आदमी ने सभ्यता को

पहिये पर रख

पहुंचा दिया है

दोबारा उसके पुरातन काल में

अब पहिया 

दोबारा लौटेगा 

बिना सभ्यता के

वह 

गढना नहीं चाहता 

दोबारा पहिया सभ्यता

पहिये पर बहुत भार है

सभ्यता के खून के धब्बे भी हैं

वह युग की पीठ पर

बंधा है

पुरातन की युगों की सजा भोग रहा है

सोमवार, 27 नवंबर 2023

कागज की नाव


कागज की नाव

इस बार

रखी ही रह गई

किताब के पन्नों के भीतर

अबकी

बारिश की जगह बादल आए

और

आ गई अंजाने ही आंधी।

बच्चे ने नाव

सहेजकर रख दी

उस पर अगले वर्ष की तिथि लिखकर

जो उसे

पिता ने बताई

यह कहते हुए

काश कि 

अगली बारिश जरुर हो। 

शनिवार, 7 अक्टूबर 2023

आदमी की पीठ पर

 खरापन इस दौर में

एकांकी हो जाने का फार्मूला है

सच 

और

सच के समान कुछ भी

यहां हमेशा 

नंगा ही नजर आएगा। 

फटेहाल सच

और

भयभीत आदमी

एक सा नजर आता है।

आदमी की पीठ पर

आदमीयत है

और पर

हजार सवाल। 

भयभीत आदमी हर पल 

हो रहा है नंगा।

नग्नता 

इस दौर में 

खुलेपन का तर्क है। 

तर्क और अर्थ के बीच

आम आदमी

खोज रहा है 

अपने आप को

उस नग्नता भरे माहौल में। 

एक दिन

पन्नों पर केवल 

नग्नता होगी

तर्कों की पीठ पर 

बैठ 

भयभीत और भ्रमित सी। 

तब

आम आदमी

नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे 

छिपी नपुंसकता को

छलनी-छलनी हो जाने तक। 

आम आदमी

कई जगहों से फटा हुआ है

उधड़ा सा

अकेला 

और 

गुस्सैल। 


समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...