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रविवार, 30 मई 2021

बहुत सा बाकी है अभी

 


कितना सबकुछ 

छूट जाता है ना पीछे

समय के साथ।

मां की गोद

उसका वो 

अकेले क्षणों का दुलार।

चिंता वाली 

वो सलवटें

जो माथे पर 

अगले ही पल सुस्ताने लगतीं 

खुशी से 

हमें ठीक पाकर। 

हमें पहले पहल

पैरों चलाने वाली 

वो उंगली।

वो घर का दालान

जिसे हम पहली बार

करते हैं पार।

मां 

के हाथ का अचार 

उसका स्वाद

वो

स्वाद और मां के भरोसे 

वाली बरनी। 

सच कितना सबकुछ छूट जाता है

वो पहला

बस्ता

पहली 

सिलेट

पहली कलम

पहली

कापी

जिस पर हमने उकेरी थीं

पहली बार

मनचाही लकीरें

जिन्हें

सीधा करना सिखाया था

रसोई से थककर 

अक्सर आ बैठने वाली पसीना पोंछती 

मां ने। 

वो 

रंग 

वो कपडे

जो मां ने दिलवाए थे

अपनी पसंद के

हम बड़े हो गए 

कपडे 

अब भी मां की

उम्मीद पर

खरे उतर रहे हैं

वे छोटे ही हैं

अब बचपन की यादें उन्हें

पहना करती हैं।

सच कितना सबकुछ छूट जाता है 

पीछे

गलतियों पर 

मां

का कवच हो जाना

पिता 

के सामने आकर

अक्सर बचाना

अकेले में बैठकर

रिश्तों को समझाना

गलती पर डांटना

पिता के नेह सागर मन तक

हमें पहुंचाना

दोबारा गलती न करने का

अहसास करवाना

पिता और हमारे बीच 

अक्सर सेतु बन जाना।

कितना सबकुछ पीछे छूट जाता है

रात तक मां के जागने पर

कभी कभी खुलने वाली हमारी पलकें

और 

उनमें छिपी चिंता।

सफलता के पहले ही

अलसुबह

गूंथकर बनाए गए 

बेसन के लड्डू

जो 

भरोसे पर खरे उतरते 

ही थे।

गर्व से बाजू में बैठकर

हमारी समझदारी भरी बातें

सुनकर

मन ही मन उसका मुस्कुराना।

अब

हमें लगता है हम समझदार हो गए

और

जिम्मेदारियां हमें दूर ले आईं

बहुत दूर। 

अब

मां

बूढ़ी

उम्रदराज होकर

अकेले ही सहलाती है

अपने शरीर की

सख्त झुर्रीदार त्वचा को

ये कहते हुए कि

छोटा आया नहीं बहुत समय हुआ अब तक

पूछना तो अबकी कब लौटेगा। 

वो खुश हो जाती है

केवल आवाज सुनकर

वो

जी उठती है

केवल देखकर।

वो सी लेती है

पता नहीं कैसे

अब भी इस उम्र में

उस पुराने और इस नये

वक्त के 

बदलावों से 

रिश्तों में आने वाली उधड़न को।

मां के पास अब भी है

वो 

नेह भरा जादू

जो 

पढ़ लेता है

अक्सर

हमें

हमारे जीवन 

हमारी उलझनों

हमारे

अनकहे सच को।

वैसे

मां अक्सर कहती है

बेटा

अब दिखाई कम देने लगा है

ये 

आंखें

बनवानी पड़ेंगी दोबारा

और मैं 

मुस्कुरा देता हूं

उससे लिपटकर

जब भी 

होता हूं उसके करीब।

बहुत सा 

बाकी है अभी

जो 

मां के पास ही मिलता है

मां 

से ही मिलता है

अक्सर मां

पिता हो जाती है

पिता के जाने के बाद।


मैं तुम्हें बादल नहीं दे सकता

 


मैं तुम्हें

बादल नहीं दे सकता

तुम चाहो तो

कोई एक दिन मांग लो

कोई बोनसाई दिन।

बादल में

कुछ

तुरपाई रह गई है

बादल कराह रहा है

दर्द से

उम्मीदों की चुभन

गहरी होती है।

हर आंख घूर रही है।

देखो सच

कहूँ

वो बारिश का बढ़ता

बोझ

अधिक नहीं ढो

पाएगा

फट जाएगा तार तार

हो जाएगा।

क्या अब भी चाहती हो

वो थका सा बादल।

हां

मैं जानता हूँ

तुम्हें

सपने बुनने हैं

मेरी मानो

तुम बोनसाई दिन

रख लो।

मैं बादल की

तुरपाई करता हूँ

तब तक तुम

जीवन बुन लेना।

एक दिन जब

बादलों की बेबसी

नहीं होगी

जब तुम

सपने गूंथ चुकी होगी

मैं

सुई और धागा

बादल की पीठ पर रख

सपनों के उस

बोनसाई घर में

लौट आऊंगा।

सच मैं तुम्हें बादल

नहीं दे सकता।

शनिवार, 29 मई 2021

छत पर ठहाकों की हाजिरी


 घर

कुछ

पिल्लरों पर

टेकता है

अपना भारी भरकम शरीर।

पहले

उन्हें खुशियां

कहा जाता था

अब

कर्ज में

दबे

व्यक्ति का चीत्कार।

पहले घर की

जमीन और दीवारें

हरदम साथ

महसूस होती थीं

अब

जमीन पर

कोई है कहां।

घर बड़े हो गए हैं

आदमी हो रहा

बहुत छोटा।

कच्चे

घर की दीवारों की

दरारें भी

कच्ची होती थीं

मन के लेप से

भर जाया

करतीं थीं।

अब घर और दीवारें

पक्की हैं

दरारें

नज़र नहीं आतीं

होती हैं

आसानी से

भरी नहीं जातीं।

पहले

जिसकी छत

वो

सबसे धनी

कहा जाता था

हवा और धूप

खुलकर पाता था।

अब छतें हैं

हवा

और धूप भी हैं

बस

आदमी

का रिश्ता

उस छत से

टूट गया।

पहले रोज पूरा

घर

छत पर

ठहाकों की हाजिरी

लगाता था

अब

पूरी उम्र

छत के नीचे

ही बिताता है

ठहाकों को छत पर

कहीं

छोड़ आई है

ये नई सदी...।

शुक्रवार, 28 मई 2021

हिज्जे वाले सबक के बीच



मन में
कहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
अक्सर।
तुम कहती हो
मैं
पढ़ लेता हूँ
तुम्हें
अक्सर तुमसे पहले।
ये जो
हम हैं
ये
जो
हमारी नेह गंध है
ये
कहीं
हमारे शब्दों का
एक ग्रंथ है
जो
तुम पढ़ जाती हो
एक पल में
हजारों बार
और में
जी लेता हूँ
तुम्हें
शब्दों के पार...।
आओ
छूकर देखते हैं
दीवार
जहाँ
अक्सर
हम रहते हैं
शब्दों के व्याकरण
के बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।


बुधवार, 26 मई 2021

गली के नुक्कड़ का लैटर बाक्स


 सुनो ना..

वो

गली के नुक्कड़ का

लैटर

बाक्स

कितना बूढ़ा हो गया है।

कल

ठहरा था कुछ पल

उसके करीब।

उम्र

का भारीपन

शरीर पर हावी हो गया है

हां

लेकिन वो कुटिल

मुस्कान नहीं गई

अब तक।

मैं नेटवर्क नहीं मिलने से

उस पर हाथ टेककर

खड़ा था

वो ठहाके लगाने लगा

वो पूछ रहा था

बातों में और रिश्तों में

गरमाहट

बाकी है अभी।

मैं चुप हो गया

वो देखता रहा

मैं नज़र चुराने लगा

तभी उसने

तीन पुरानी और पीली

चिट्ठियां मेरी ओर

बढ़ा दीं।

मैं अपलक देखता रहा

उनके छूते ही

कुछ अजीब सा हुआ

तुम

और

तुम्हारा वो

शब्द हो जाना

याद आ गया।

चिट्ठी की पीठ पर

लिखे पते

धुंधले हो चुके थे।

खोलकर देखा

लैटर बाक्स ने पूछा

क्या हुआ

किसका है ये

बिसराया हुआ खत।

मैं

डबडबाई आंखों को पोंछते

हुए बोला

पिता का मेरे लिए।

अब पिता नहीं हैं

केवल खत है

उनकी लेखनी

और छूकर

देखी जा सकें

वो भावनाएं..।

दूसरा खत

पड़ोस के मिस्त्री का था

जो

अपने बेटे को

बताना चाहता था

मरने से पहले

कि

वह उसे

बहुत चाहता है।

तीसरे खत पर

पानी ने

मिटा दी थी

पहचान

बस

अंदर लिखा था

कभी तो

एक चिट्ठी लिख दिया कर

बेटा

हममें प्राण आ जाते हैं...।

दो खत

लैटर बाक्स को लौटाकर

लौट आया

घर

पिता की चिट्ठी लिए...।

भीड़ के पैरों में गहरे छाले हैं



खोज

के परे एक और

संसार है।

चेहरे हर बार

बिकते नहीं

चेहरों

का

अपना लोकतंत्र है।

थकी हुई

भीड़

बदहवास विचारों से

दूर भाग रही है।

भीड़

के पैरों में

युग से

गहरे छाले हैं।

छाले

शोर मचा रहे हैं

गर्म रेत पर

दूर कहीं

कोई

पानी बेच रहा है

रेत के चमकीले मटकों में।

आवाज़

के पैर हैं

वो

घुटने के बल

रेंग रही है

दरिया में

अगली सुबह तक...।


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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र 

सोमवार, 24 मई 2021

धूप दिखाना चाहता हूँ सपनों को


सीले से

सपने

रंग खोते हैं

कुछ पीले

से

फीके रंग के

सपने।

कुछ जो

बचपन में

दबाये थे

मिट्टी के घरों में

महक रहे हैं

अब भी।

सपनों के पैर होते हैं

चेतना भी

तभी

हमारी अचेतन अवस्था में

खटखटाया करते हैं

मन के कपाट।

वो

जागते हैं

पूरी रात।

हां, बस सपनों की

उम्र

तय होती है

हमारी चेतना के

कोलाहल पर।

वे रंगहीन

हो जाते हैं

जब

रख दिए जाते हैं

मन के किसी

बंद से रौशनदान के करीब

जहां नहीं मिलती

सपनों को प्राण वायु।

हां पीले से सपने

जीवित रहते हैं

सदियों तक...।

अबकी सपनों को

स्याह अंधेरे से निकाल

धूप दिखाना चाहता हूँ

पकती उम्र

के पथराये रास्तों पर।

...........


आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ, वशिष्ठ जी...। खंडवा, मप्र। आदरणीय बैजनाथ जी देश के उन ख्यात आर्टिस्ट में से हैं जिन्होंने अपनी पूरी उम्र कला को समर्पित की है, उनका पसंदीदा विषय (गहराई) है

वृक्ष की मौत एक सदी की मौत है

 


एक दिन

केवल थके हुए शरीर होंगे

झुलस चुके

मन

विचार और मानवीयता लेकर। 

बिलखते बच्चों को छांह 

नहीं दे पाएंगे

चाहकर भी।

परछाईयों 

की तुरपाई कर

नहीं

बना पाएंगे

हम

कोई वृक्ष।

हांफते शरीर 

झुलसते बच्चों के सिर 

ओढ़ा देंगे

परछाई की 

आदमकद सच्चाई। 

सूखी जमीन 

तब नहीं पिघलेगी

हमारे आंसुओं से भी

क्योंकि

हमारे आंसू

में केवल दर्द का 

नमक होगा

और 

इतिहास गवाह है

नमक पाकर जमीन

बंजर हो जाया करती है।

वृक्षों को

देख लेने दीजिए

बच्चों को

कि 

कोई कल

ऐसा भी आएगा

जब 

जंगल 

ठूंठों के रेगिस्तान होंगे

कुओं में

पानी की जगह

सूखी अस्थियां होंगी

बेजान परिंदों की।

हवा से उम्मीद भी

सूख जाएगी

क्योंकि 

रेगिस्तान में 

हवा 

का कोई शरीर नहीं होता

मन नहीं होता 

और आत्मा तो 

कतई नहीं होती।

हमारी सभ्यता में 

सब

यूं ही

छूटता जा रहा है पीछे

एक दिन

आदमी 

और

जिंदगी की हरेक उम्मीद

छूट जाएगी बहुत पीछे

तब केवल

चीखता हुआ अतीत होगा

जो 

मानव सभ्यता के मिट जाने पर

चीखेगा

और कहेगा

काश जाग जाते 

समय पर

बच्चों के लिए

अपने लिए...। 

एक वृक्ष की मौत

एक सदी की मौत है

ये 

सबक समझ लीजिए

क्योंकि 

बिना जीवन

सदी 

बहुत खौफनाक लगेगी। 


रविवार, 23 मई 2021

किताब में खोजता है एक अदद नींद




किताब के कुछ

पृष्ठ

जो मोड़ दिए

जाते हैं

अगली रात

पढ़ने के लिए।

उसमें भी कुछ शब्द

दबकर

कसमसा उठते हैं।

दबे शब्द

खामोश हैं

वे जानते हैं

पृष्ठ को मोड़ना

इंसान की मजबूरी नहीं

आदत हो गई है।

इस पर भी मैं

मानता हूँ

बदहवास मानव झूठ के

शिखर पर पूरा दिन

इतराता है।

थकी देह से

अपनी वैचारिक भूख

केवल अपने आप को

बेहतर साबित करने

लौट आता है

बिस्तर के रास्ते

किताब के लिहाफ तक।

वो

अब किताब में

ज्ञान से पहले खोजता है

एक अदद नींद।

कई जगहों से

मुड़ी किताबें

ज्ञान

रखती हैं

अभिमान नहीं।

वो थके व्यक्ति को

शब्दों की थाप देकर

सुला देती है

इस उम्मीद से

कि कोई भोर होगी

जब व्यक्ति

अपने अंदर से जागेगा

बदहवास दौड़ को

पीछे छोड़...।

किताबें

शब्दों में हमारी

समझ की

तस्वीर भी हैं..।


----------------------


(आर्ट... आदरणीय बैजनाथ सराफ जी, खंडवा, मप्र का है, वे ख्यात आर्टिस्ट हैं, उन्हें कलाक्षेत्र के अनेक ख्यात सम्मानों से नवाजा गया है। )

शुक्रवार, 21 मई 2021

दर्द होता है उन्हें भी


झुर्रियों वाले समाज मेंं

शोर नहीं है

एकांकीपन है

जो कभी-कभी चीखता है 

उम्रदराज चीख

बेदम होती है

लेकिन

अक्सर

कालखंड को 

कर जाती है

बेदम। 

धुंधली आंखों से

बेशक 

सब कुछ धुंधला नजर आता है

बावजूद 

वे दूर का संकट देख लेते हैं

बेहद साफ।

बेशक सुनने की क्षमता भी 

कम हो जाती है

बावजूद सुन लेते हैं 

आहट उस संकट की। 

बेशक चलने की गति

धीमी हो जाती है

बावजूद

वे सोच लेते हैं

समाधान संकट का 

तेज गति से।

बेशक अकेले दम घुटता है उनका

बावजूद 

रखते हैं ख्याल 

उन 

बच्चों द्वारा बनाई गई दूरियों का 

उनमें तलाशी जाने वाली

मरीचिका वाली 

खुशी का

बच्चों के चेहरों का

उनकी बेनामी बेबसी का

मन में उठने वाले तूफानों का

और

रह जाते हैं

अकेले

एकांत 

और मौन समेट 

किसी एक कमरे में

तन्हा

बिना किसी शिकायत 

केवल मुस्कुराते हुए। 

बेशक दर्द होता है उन्हें

बावजूद 

वे कहते नहीं हैं

मन की 

अक्सर वे

उस समय खामोश हो जाते हैं

जब उन्हें 

घर की कोई पुरानी 

लकड़ी की कुर्सी 

पर बैठकर

सबकुछ सुनने का होता है

निर्देश।  

बेशक वे सोचते हैं

अपनी परिवरिश में रह गई कमियों पर 

मनन करते हैं

अपनी खामियों पर

बच्चों की जिद पर

अपने जरुरत से अधिक नेह पर

सुखों वाले दिनों पर

और 

केवल आज पर। 

वे 

मनन नहीं करते

अपने आज के हालात पर 

अपने माता-पिता होने के अधिकार पर

अपनी खुशियों पर 

अपनी बातों के अनसुना कर दिए जाने पर

बच्चों की जिद पर

उनके रूखे बर्ताव पर

अपने सम्मान पर। 

अक्सर वे 

बतियाते हैं

समय से

वृक्षों से

खाली मैदानों की बैचों से

हमउम्र और कम सुनने वाले साथियों से

अपने अकेले कमरे से

कभी-कभी अपने घर की दीवारों से

आंगन में फुदकते पक्षियों से 

वृक्षों से

वे बतियाते हैं

थकन से

कुछ पुरानी किताबों से।

अक्सर देर रात

थकी आंखों से

आंसुओं में बहने लगता है दर्द

तब किताब

बंद कर देते हैं

ये कहते हुए

कोई अध्याय अधूरा सा रह गया

इस जनम

कोई 

पेज आधा सा लिखा हुआ।


बुधवार, 19 मई 2021

उन उम्रदराज शरीरों का मुस्कुराना


 मैंने 

सुबह मुस्कुराते हुए देखा

बुजुर्ग दंपत्ति को

ठीक वैसे ही

जैसे

छत की मुंडेर पर बैठ

कोई लंबी दूरी तय कर आया

थका सा पक्षी 

राहत पाता है।

छत पर गर्मी के बाद

ठंडी हवा 

उम्र के चढ़ने के साथ

उठने वाले 

कई दर्दों को राहत दे जाती है।

वृद्ध हो चुके उड़ते 

सफेद बालों को देख

एक मुस्कान दोबारा पसर जाती है

उम्र की

उम्रदराज होते शरीरों की

खुशियों की। 

चीखते और तपते दिनों 

का दर्द

आज 

नहीं है

आज  सूख चुकी उम्र को

मिली है वायु 

और 

जो 

अभी अभी कहीं बारिश में

सावन में

नहाकर आई थी।

वायु में 

फुहारें थीं

उम्मीद थी

जीवन था

भरोसा था

और

अपनापन।

थका हुआ शरीर

थके हुए समय का प्रतीक नही होता

अनुभवों का एक पिरामिड अवश्य हो जाता है।

उम्र के इस दौर में

सच 

और 

सच 

बहुत साफ नजर आता है

उन धुंधली नजरों से।

उम्र के इस दौर में

सच 

साफ शब्दों में बोला जाता है

जुबान के लड़खड़ाने के बावजूद।

उम्र के इस दौर में 

सच 

सहेजा जाता है 

थके और कमजोर से शरीर के 

मजबूत हो चुके विचारों में।

उम्र के इस दौर में 

सुबह अच्छी लगती है 

क्योंकि

उम्र की सांझ 

अंतर मिटा देती है

सुबह और दोपहर के बीच के तपिश भरे छोरों का।

छत

दोबारा आबाद है

क्योंकि 

बुजुर्ग उस मुंडेर पर 

उस पक्षी को देख

उसकी थकन 

अपने अंदर महसूस कर रहे हैं

और

बहुत भरोसे के साथ

दो हाथ

कांपते हाथ

एक दूसरे पर 

रख दिए जाते हैं

दरारों की भुरभुरी चुभन की परवाह किए बिना।

शनिवार, 15 मई 2021

कांपते हाथों का दोबारा मिलना


 

उम्रदराज जीत

इतिहास लिखती है

थरथराते हाथों का दोबारा जीवन पाना

झुर्रीदार चेहरे पर 

पपड़ाए होठों को

दोबारा मुस्कुराते देखना 

इस संसार का सर्वोत्तम

सुख कहा जा सकता है। 

उम्र की थकन के बीच

एक 

शरीर को यूं बीमार होकर 

जब्त हो जाना 

अकेले

और बोझिल से माहौल के बीच

कहीं 

भयभीत करता है

उस दूसरे साथी को

जो 

उसी तरह ही झुर्रीदार उम्र

जी रहा होता है

अकेले किसी और कमरे में।

सोचियेगा 

जब ऐसे दो शरीर 

किसी

ऐसी कठोर मंजिल को पार कर

होते हैं रूबरू 

तब बहुत कुछ

चटखा हुआ दोबारा 

जुड़ने लगता है। 

उम्रदराज शरीर

प्रेम के

आध्यात्म को 

जी रहे होते हैं

वे

थके हुए हाथ जब

दोबारा होते हैं

एक दूसरे का सहारा

तब

यकीन मानिये 

दरारों से होकर 

दर्द का हर कतरा

दूसरे की दरारों में समा जाता है। 

प्रेम की इस गोधुलि बेला में 

ईश्वर मुस्कुराता है

प्रकृति खिलखिलाती है

कहीं कोई 

मयूर मन नाच उठता है।

आदमी का थका होना

और 

आदमी का उम्रदराज होना

दोनों में 

एक कहीं एक सख्त 

सच है

थका आदमी उम्र नहीं जीता

हर पल केवल 

थकता है 

रिश्तों से, बातों से, जीवन से

और 

उम्रदराज आदमी

जीता है उम्र और उसका हरेक दिन

अंतर तो है

उम्रदराज व्यक्ति

समुद्र की रेत पर खेलते 

बच्चे 

सा हो जाता है 

जिसके पैरों पर नमक

असर नहीं डालता।

जीत की परिभाषा

में शब्द

हमेशा ही उम्रदराज होकर 

मुस्कुराते हैं। 

देखे हैं आपने भी

उम्रदराज

चेहरे 

जो हाल ही

जीतकर मुस्कुरा रहे हैं

देखियेगा

कि वे

हमें

सिखा रहे हैं कि 

प्रेम 

से जीता जा सकता है

ये कालखंड

और 

इसकी सनक को। 

मानियेगा कि

प्रेम 

को चेहरा पा जाने में

एक पूरी सदी लगती है

उम्रदराज होने पर ही

प्रेम नजर आता है

थके हुए शरीरों में

पूर्णता पाता है। 

शुक्रवार, 14 मई 2021

बुजुर्ग के साथ पूरा घर ही उठकर चला जाता है


एक बुजुर्ग की मौत का 

आशय है

एक युग का 

बीत जाना।

एक नीम का 

आंगन में 

सूख जाना।

एक घर के रौशनदान का 

हमेशा के लिए बंद हो जाना।

घर का बेसाया होना जाना

अनुभव की कोई किताब

हाथ से छूट जाना।

घर का बेजुबान हो जाना

आंगन का एकांत हो जाना

बालकनी का कभी न मुस्कुराना

घर की लंबी कुर्सी 

का

उदासी में खो जाना।

पौधों का सूख जाना

परिवार का सुख जाना।

मौसम का फिर कभी न खिलखिलाना

अखबार का 

बॉक्स में ही रह जाना।

घर का एक कोना

हमेशा के लिए

सूना हो जाना।

बच्चों का मौन हो जाना

दरवाजे का शोर करना

दहलीज का 

उठकर चले जाना

उस एक दिन का सूरज

हमेशा के लिए ढल जाना

अगली सुबह का न होना

केवल

जागना और फिर कभी भी 

कोई रात

आराम से न सोना।

एक बुजुर्ग की मौत

अंधेरे घर में

एकमात्र रौशनी की किरण का

खो जाना है।

एक बुजुर्ग की मौत

एक परिवार के लिए

एक सदी की मौत होती है। 

एक बुजुर्ग की मौत का आशय

घर के किसी सबसे मजबूत पिल्लर में

दरार का होना

घर में बेबस सी खामोशी का पसर जाना।

घर की सबसे पुरानी तस्वीर का

बार-बार पोंछा जाना

उनके छूए गए सामान को

कई बार

सीने से लगाना

उनकी अनुभूति में खो जाना

उनका हर पल

हर बात में याद आना

बुजुर्ग के साथ

चला जाता है 

पूरा घर ही उठकर

क्योंकि 

घर बुजुर्ग से ही तो बतियाता है 

खाली समय में अक्सर।

कायदे बुन रहा है उम्रदराज़ समाज


 तुम्हें

उम्रदराज़ होना

पसंद नहीं है

तुम डरते हो

उस अथाह सूखे से

बेलगाम सन्नाटे से

उस एकांकी समाज से

उस स्याह सच से।

उम्रदराज़

अकेलेपन में चीखते

चेहरों का समाज है।

सूखे और बेजान

शरीर

एक - दूसरे

को समझा रहे हैं

अपना-अपना समाजवाद।

थके शरीरों

पर

चिपटे हैं ढेर सारे सवाल।

सवालों के पैर नहीं हैं

चेहरे हैं

चेहरों के बीच

कुछ चेहरे

पुराने आईने

से हैं।

पीली सी शक्ल

उस आईने के पार

देखना चाहती है

उम्र के

सुनहरी दिन

भंवरों का

खामोशी भेदता झूठ

चेहरों पर भाव

और

उन पर

बरसता नेह संसार।

ओह वह

कितना सच था

या ये

कितना खरा है।

थकन और उम्र के बीच

शरीर

एक सच है

और सच

हमेशा आईने में

नहीं ठहर पाता।

सच के

आईने

एक उम्र अपने साथ

रखती है

और एक उम्र

उसे तोड़ देती है।

उम्रदराज़ समाज

अब

कायदे बुन रहा है

अपना समाज बुन रहा है

हमारे

इस समाज की

चारदीवारी में

वह

गहरे उतरना चाहता है

क्योंकि

चारदीवारी

सीमा भी है

और सच भी

जो

उम्रदराज़ कालखंड

को

नकार नहीं सकती।

बुधवार, 12 मई 2021

पक्षियों का बेघर हो जाना


तुम्हारा ढहना

एक

सभ्यता के

चरमराने

और

चटखने

जैसा है।

तुम्हारे

कटकर गिरने

की आवाज़

अगली पीढ़ी

के कानों तक

दे चुकी है दस्तक।

तुम्हारे शरीर पर आरी

के जख्म

इस सदी की पीठ पर

अंकित हो चुके हैं।

तुम्हारे

न होने का आशय है

सैकड़ों

पक्षियों का बेघर हो जाना है।

बेशक तुम्हारी जगह

कोई

आलीशान मकान होगा

पर

वो घर नहीं हो पाएगा।

नींव के नीचे

तुम्हारे अवशेष

कराहते रहेंगे

सदियों तक

और

पूछेंगे सवाल

आखिर मेरा कुसूर क्या था।

मंगलवार, 11 मई 2021

ये हार है

 

सुबकते हुए

सुना है

नदी को।

पानी में उसके आंसू

सतह पर तैर रहे थे

उन शवों के इर्दगिर्द

जहां 

उम्मीद हार गई थी।

जहां

मानवीयता हार गई थी

जहां

जीवन हारकर घुटनों के बल आ गया था।

नदी

का रोना

सदी का रोना है

नदी 

शवों को नहीं ढो पाएगी

उसे

उसकी नजरों में मत गिराईये

नदी 

चीख नहीं सकती

नदी

मौन को पीकर

धरातल में लौट जाएगी

सदियों 

नहीं लौटेगी

वह धरा पर

क्योंकि उसका अवतरण

जीवन के लिए हुआ था

शवों को

ढोने के लिए कदाचित नहीं।

सोचियेगा

इस सदी के चेहरे पर एक दाग है

इस दौर में

एक नदी

जीवन ढोते हुए

अनचाहे ही

शवों को ढोने लगी

ओह

ये 

हार है

इसके अलावा और कुछ भी नहीं।

सोमवार, 10 मई 2021

सांझ का रात होना


 

उम्र की सुबह

में

सांझ

अक्सर

बेज़ार होती है।

धूप, बवंडर और जीवन

दोपहर

का अर्थ

समझाते हैं।

दोपहर

के सिराहने

कहीं

सांझ बंधी होती है

जैसे

तेज प्रवाह

वाली

नदी के किनारे

बंधी होती हैं

बेबस

और

कर्मठ नौकाएं।

सांझ

किनारे पर

बैठी किसी

स्त्री के समान होती है

जो

पूरे दिन को

जी जाती है

एक उम्र की तरह

इस भरोसे की

सांझ है ना

सुस्ताने के लिए

अपने लिए।

दोपहर

से सांझ का सफर

लौटने की

अनुभूति है।

सांझ समझी जा सकती है

सांझ के समय

उम्र के उस

तटबंध पर बंधी नाव

की

खुलने को आतुर

गांठ की जद्दोजहद में।

उस स्त्री में

उसके उम्र जैसे

दिन में

उस शांत होते

पक्षियों के कलरव में

जो

सुबह अगले दिन को दोबारा

पढ़ने के लिए

घोंसले में दुबक जाते हैं

सांझ और रात के

मिलन से पूर्व।

सांझ का रात होना

ही

सुबह की प्रसव पीड़ा है।

शुक्रवार, 7 मई 2021

हर आदमी कविता नहीं होता


 कोई कविता

कहीं

जड़ से 

अंकुरित होती है

जैसे

आदमी।

हां आदमी शब्दों

के बीच

भाव 

होता हुआ

मात्राओं में ढलकर

कविता हो जाता है।

कविता 

आदमी 

की तमीज़ 

है

और 

आदमी का

वैचारिक पहनावा भी।

आदमी से 

झांकते हैं 

कई

आदमी

हर आदमी 

कविता नहीं होता 

अलबत्ता 

पढ़ा जाता है। 

कविता 

स्मृति में ठहर जाती है

आदमी 

से झांकते आदमियों की 

भीड़

स्मृति

को नहीं छूती

वे 

झांकते आदमी

पूरे शब्द नहीं है

अलबत्ता हल्लंत हो सकते हैं।

आदमी,भाषा और प्रकृति

रिश्तों का

अनुबंध हैं

ठीक वैसे ही

जैसे

आदमी और उसके विचार।

आदमी से खर्च होते 

कई

आदमियों

की भीड़

के क्षरण को

अंकुरण

में 

परिभाषित 

किया जा सकता है

ठीक 

कविता के भाव की तरह।

गुरुवार, 6 मई 2021

काश वो सब देख लिया होता


 हमें 

नज़र नहीं आतीं

पेड़ों की अस्थियां 

और उन पर रेंगते 

समय की पीठ पर

हमारे कुचक्र।

हमें 

नज़र नहीं आते

सूखे 

पेड़ों के जिस्मों पर

कराहती कतरनें।

हमें

नज़र नहीं आती

उम्रदराज़ पेड़ों 

की पिंडलियों की सूजन।

हमें नज़र नहीं आती

उनके 

शरीर पर 

अंकुरण का गर्भ होती

मिट्टी भरी छाल।

हमें नज़र 

नहीं आता

वृक्ष और आदमी के बीच

अपंग होता रिश्ता।

ओह !

कितना कुछ 

नहीं देखा 

हमने अपने जीवन में..।

हमने देखे 

केवल खिलती 

कलियां

फूलों के रंग

उनकी खुशबू पर 

बहकता भंवरा

आरी

कुल्हाड़ी

मकान 

सड़क

सुविधाएं

अपने बरामदे

अपने 

दालान

अपने बच्चे

अपना जीवन।

जंगल 

को शहर बनाने 

का सपना

और

भी बहुत कुछ...।

देखना 

हमारी आवश्यकता नहीं

हमारी 

होड़ है

अपने से

प्रकृति से

जंगल से...।

हम सब भाग रहे हैं

हमारे पीछे 

शहर

फिर 

हमारे कर्म

फिर 

बेबस और बेसुध पीढ़ी...

काश

वो सब 

देख लिया होता

कुछ ठहरकर...।

बुधवार, 5 मई 2021

आईये सुबह बुनते हैं


आईये सुबह बुनते हैं

वह सुबह 

जिसका इंतजार 

सभी को है

वह

सुबह जिसमें

दादाजी बगीचे में 

हमउम्र साथियों के साथ 

ठहाके लगाकर

लौटें 

और

घर पहुंचकर खूब किस्से सुनाएं

अपने उम्र से थककर जीते 

साथियों के।

वह सुबह

जब पिता बेखोफ होकर

अखबार हाथों में लेकर

सोफे पर

बैठकर

बतियाएं

और 

बीच में

चाय के देरी पर

कई बार शोर मचाएं।

वह सुबह

जब बच्चे दोबारा 

स्कूल जाने को 

हो जाएं तैयार 

और

बस वाला

हमेशा की तरह

घर के बाहर

हार्न बजाए।

वह सुबह

जब पूजा के लिए

फूल लेने

दादी 

अलसुबह ही

बगीचे चली जाएं।

वह सुबह

जब थक चुकी मां

के चेहरे पर

परिवार को मुस्कुराता देख

झूमने लगे घर। 

वह सुबह

जब रसोई खिलखिलाए

दालान

मुस्कुराए।

अखबार वाले के चेहरे पर

दोगुनी फुर्ती 

दूध वाले के चेहरे पर

सयानी सी हंसी

प्रेस वाले के चेहरे पर

उम्मीद के सुकड़न 

के बाद

सपाट सी मुस्कुराहट नजर आए।

वह सुबह

जब सोशल मीडिया

दुख को भूल जाए

केवल 

खुशियों वाली ही सूचनाएं लाए।

वह सुबह

जब बाजू वाले शर्मा जी

बिजली के 

बिल पर 

चीखने की बजाए

मूंछों पर ताव देकर

हंसते नजर आएं।

वह सुबह 

जब

इन बोझिल दिनों की

याद न सताए।

वह सुबह

जब अपनों का कांधा हो

अपनों का साथ हो

अपनों का हाथ हो

अपनों की बात हो

अपनों से 

गले लगने की आजादी हो।

वह सुबह

जब हम भी 

अपनी धरती पर 

पहले की भांति

खूब उडें़

पंछी बनकर।

वह सुबह

जब पक्षियों का कोई झुंड

हमारी छत पर

डाले बसेरा

बतियाए 

और 

धैर्य बंधाए।

वह सुबह 

जो पानीदार हो

हवादार हो। 

वह सुबह

जिसमें 

न कोई मास्क

न कोई दवा

न कोई दूरी

न ही 

घर में दुबकने की मजबूरी।

बस धैर्य रखिये

सुबह आने को है।

ये मानिये

कि

जब 

रात अधिक स्याह हो

तब 

सुबह 

की दमक

हमारे लिए होती है।

सोमवार, 3 मई 2021

अब चंद्रमा नहीं, वे बच्चे रोटी मांग रहे हैं


अचानक क्यों 

लगा 

कि हम

जमीन पर भी

चल नहीं पा रहे 

अपने पैरों।

हमें चंद्रमा अब

नजर आने लगा है

घर की रोटी में।

चूल्हे की 

अधिक सिकी रोटी

आधी जली हुई

चंद्रमा जैसी 

होती है।

झोपड़ी के बाहर 

खाट पर लेटे बच्चे

उस रोटी से

ढांक रहे हैं

चंद्रमा को।

वे नहीं जानते

उन्होंने

एक सदी के झूठ को 

ढांक दिया है

रोटी से। 

भूखे दौर में

कोई बच्चा

अब

नहीं मांग रहा चंद्रमा

क्योंकि 

वे रोटी मांग रहे हैं।

हमें रोटी चाहिए

तब

चंद्रमा पर पहुंचने की कोई

सीढ़ी

का सपना

किसी किताब में 

अच्छा लगेगा।

पहले

अमावस हो चुके दिनों में

स्याह

होते हालातों 

और

बेगैरत रिश्तों के बीच

आप 

एक

सभ्य समाज 

की कोई 

गोल रोटी बेलियेगा। 

भूखे और परेशान लोग

रोटी को 

चंद्रमा कहेंगे। 

ये दौर

अंगीठी है

आदमी

तप रहा है 

सुर्ख है

उसे

छूने वाली

और 

खाने वाली

रोटी दे दीजिए

क्योंकि

वे

अब भूखे 

और 

अंतड़ियों से चिपटे पेटों

रोटी को

ख्वाब में 

नहीं 

पचा पाएंगे।

कीजिए कुछ

जिससे

तपती हुई

इस मानसिकता पर

और फफोले न आने पाएं

क्योंकि

ये छाले

समय के चेहरे पर हैं

और

समय के चेहरा

बेदाग ही अच्छा लगता है।

समय की किताब में

हरेक का चेहरा

स्पष्ट उभरता है

तुम्हारा भी 

उनका भी 

जो

चेहरा खो चुके हैं

उनका भी 

जो

परेशान हैं, भूखे हैं।

बेचेहरा

समाज को गढ़ना

भले ही तुम्हारी भूल है

लेकिन

ये तुम्हें सदियों परास्त करेगी। 

रविवार, 2 मई 2021

जंगल, कंटीला जंगल


 मैं सूखा कहता हूँ

तुम रिश्तों का 

जंगल दिखाते हो।

मैं दरकन कहता हूँ

तुम टांकने के 

हुनर पर 

आ बैठते हो।

मैं जमीन कहता हूँ

तुम अपना कद 

बताते हो।

मैं आंसुओं के 

नमक पर कुछ कहता हूँ

तुम मानवीयता का 

देने लगते हो हलफनामा। 

मैं प्यास कहता हूँ 

तुम

सदियों पुरानी जीभ 

फिराते हो

नागैरत होंठों पर।

मैं जंगल कहता हूँ

तुम चतुर 

इंसान हो जाते हो।

बस 

अब मैं कुछ नहीं कहूँगा

केवल देखूंगा 

तुम्हारी पीठ पर 

इच्छाओं का पनपता 

कंटीला जंगल...।

शनिवार, 1 मई 2021

बोनसाई दुनिया


 कुछ देर वो बतियाया

रहा

वृक्ष से।

वृक्ष कहने लगा

मैं थक गया हूँ

एक जगह 

खड़े रहकर।

अब चलना 

चाहता हूँ

अगली पूरी सदी।

उसने 

झल्लाते हुए कहा

देखो मेरे

जिस्म

को 

तुम्हें ही सहेज रहा हूँ

सदियों से।

तुम्हारे लिए 

जड़ हो गई है 

काया मेरी।

जानते हो तुम्हारे जीवन 

की चिंता में

कई मौसम सूख गए

कई

आंधियाँ सही हैं

ठंड में ठिठुरन 

से 

मेरा शरीर भी 

कंपकंपा उठा है।

मेरे यौवन 

से

मेरे उम्रदराज 

होने 

तक सफर में 

केवल तुम्हारे ही

जीवन को 

गढ़ता रहा...।

देखो दिखाता हूँ तुम्हें

ये 

देखो

तुम समाए हो 

मेरे शरीर

में

गहरे बहुत गहरे।

वृक्ष की बातें 

सुनता आदमी

अब झल्ला उठा

और

सीना तानकर बोला

अब 

तुम्हें मेरे लिए

जीने की जरूरत नहीं है

मैं 

अपनी दुनिया बसाना 

जानता हूँ

और हां सुनो

वो 

हमारी बोनसाई दुनिया है

तुम 

चाहो तो 

चले जाओ

किसी और दुनिया में

हमें 

ये 

इतने पेड़ नहीं चाहिए।

ठगा सा पेड़

अपने 

सदियों से 

जमें और सूजे 

पैरों को देख रहा था

ये सोचते हुए

अब 

यहां से जाना है

किसी और दुनिया में

जहाँ 

आदमी 

अब भी 

इंसान है

लेकिन इन 

पैरों से 

कितनी दूरी मापी जा सकेगी।

भरोसे 

की टूटन

बहुत गहरी होती है

उसकी गूंज 

अब सुनाई देने लगी है।

झल्लाया आदमी

वहां से

चला गया।

वृक्ष ने भी

पैर उठाया

और 

धराशायी हो गया।

दूर 

बोनसाई दुनिया 

झूम रही थी

और 

वृक्ष के पत्ते 

हवा 

के साथ बारी-बारी 

उड़ 

त्याग रहे थे शरीर

और 

ये 

दुनिया...।  

समय की पीठ

 कहीं कोई खलल है कोई कुछ शोर  कहीं कोई दूर चौराहे पर फटे वस्त्रों में  चुप्पी में है।  अधनंग भागते समय  की पीठ पर  सवाल ही सवाल हैं। सोचता ह...